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(६७) अब बीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथा करके कहते हैं। विजा विनाणं वा मिच्छारिगए ग गिह्निउं जो उ। अवमन्नइ आयरियं सा विजा निष्फला तस्म ॥३६॥
अर्थात् जो जीव विद्या अथवा विज्ञान जो कलादिकको मिथ्या अर्थात् अविनयले ग्रहण करना चाहे अर्थात् पढाने वाला जो आचार्य उनका नाम गुप्त रखे, उनको अवगणना करे नहीं उस जीवको परभवमें पढी हुइ विद्या मफल नहीं होती है-निष्फल होती है। जैसे त्रिदंडीयाने नापितसे विद्या मीख कर उस विद्याके बलसे विदेशमें जा कर त्रिदंडको आकाशमं रक्सा और गुरुका नाम गुप्त रक्खा, जिससे त्रिदंड आकाशसे गिर गया, और विद्या निष्फल हुइ। यहां नापितकी कथा कहते हैं।
" गजापुर नगरमें कोइ विद्यावत नापित रहता था। वह विद्याके बलसे अपना छुरा आकाशमें निराधार रखता था; परन्तु लोक उसे मानते नहीं थे। एक त्रिदंडी ब्राह्मणने उसका प्रभाव देख कर विद्या सीखनेका निश्चय किया और उस नापितका वह बाह्य ( दिखलाने रूप) विनय करने लगा। उसने सोचा कि किसी युक्तिसे मैं उससे विद्या ले लूं तो ठीक | "अमेध्यादपि कांचनम्" यानि अपवित्र चीजमेंसे भी सुवर्ण लेना चाहिये। ऐसा विचार कर सदैव उसकी सेवा करता और भक्ति करता फिर उसने विद्याकी याचना की, तब उसने भी सन्तुष्ट हो कर विधि पूर्वक विद्या प्रदान की। उस त्रिदंडीने भी विधिपूर्वक आराध कर विद्या साध ली। फिर अपना जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com