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त्रिदंड था, उसे आकाशमंडल में रख कर लोगोंको कौतुक दिखाता हुआ घूमने लग। लोग भी उसकी पूजा भक्ति करके प्रशंसा करने लगे । एकदा लोगोंने पूछा कि हे स्वामिन् ! यह विद्या आपने किस गुरुके प्रसाद से प्राप्त को है ?
तब उस ब्राह्मणने लज्जासे नावीका नाम न दिया और उसके एवज में हिमवंतवासी विद्याधर मेरा गुरु है, उनके प्रसादसे, उनकी सेवा भक्ति करनेसे मुझे यह विद्या मिली है । इस प्रकार गुरुका नाम छिपाते ही उस ब्राह्मणका त्रिदंड, जो आकाशमें अद्धर रहा हुआ था, सनसनाट करता हुआ आकाशसे नीचे धरती पर आ गिरा । तब सर्व लोग हांसी करने लगे और जैसेमान महत्व वृद्धिंगत हुआ था, वैसेही बल्कि उससे भी दुगुनी उसकी लोगों में अवहेलना होने लगी । जो लोग पूजा भक्ति करते थे उन्होंने पूजा भक्ति करना छोड़ दिया । इस प्रकार जो पुरुष विनय विना विद्या सीखते है, गुरुका नाम गुप्त रखते हैं, गुरुकी अवगणना करते हैं, उसकी विद्या निष्फल होती है । और भवान्तरमें भी उसके लिये ज्ञानप्राप्ति दुर्लभ होती है । "
अब इक्कीसवीं पृछाका उत्तर एक गाथा द्वारा कहते हैं ।
बहु मन आयरियं विणयसमग्गो गुणेहिं संजुत्तो । इह जा गहिया विज्जा सा सफला होइ लोगंमि ||३७||
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