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अमें गाज-बीज और वर्षा हुई । तूफानसे प्रवहण नष्ट हो गया, मगर भाग्ययोगसे एक तखता हाथमें आया, जिसको पकड कर सेठ किनारे पहुंचा। वहांसे भटकता हुआ घरको आया । मनमें विचार करने लगा किमुझको द्रव्य मिला; परंतु कभी सुपात्रमें दान नहीं दिया, बल्कि देते हुएको भी रोका। मेरी लक्ष्मी परोपका. रादि किसी सुकृतमें काम नहीं आई। शास्त्र में लक्ष्मी की
तीन गति हातमें काम! मेरी लक्ष्म नहीं दिया,
को वंदन करना किस कर्मके
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥१॥
उपर्युक्त दान, भोग और नाश-ऐसी तीन गतिमेसे मेरी लक्ष्मीकी तो केवल एक तीसरी गती ही हुई । अर्थात् नष्ट ही हो गई।
एक दिन वनमें केवली भगवान समोसरे। सेठ उनको वंदन करनेके लिये गया। वन्दन कर के उसने पूछा कि-'हे भगवन् । किस कर्मके उदयसे मैं कृपण हुआ? तथा मेरी सर्व लक्ष्मी चली गयी इसका कारण क्या ?' गुरु कहने लगे कि-' हे सेठ! भरतक्षेत्रमें दो भाई अत्यंत ऋद्धिवान् थे । उनमें बड़ा भाई तो सरल चित्तवाला, उदार और गंभीर था और छोटाभाई रौद्र परिणामी पवं कृपण था । वह बडे भाईको भी दानादिक देते हुए रोकता था, मगर वह तो दान अवश्य दियाही करता था।
कालक्रमसे बड़े भाईके पास दिनप्रतिदिन लक्ष्मी बढ़
कारण क्य
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