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(१८) अर्थातः-जो जीव तप, संयम और दान में रक्त होवे, सहज प्रकृतिसेही भद्रक परिणामी होवे, कृपालुदयावन्त होवे, गुरुके वचनमें निरन्तर रक्त होवे और हमेशा गुरुकी आज्ञाका पालन करे, वह जीव मर कर देवलोकमें उत्पन्न होता है ॥ १८ ॥
जैसे आनन्द श्रावकने तपस्या की, प्रतिमा अंगीकार की, दान दिया और श्रीमहावीरके वचनमें निरन्तर रक्त होकर दयावन्त व भद्रक परिणामी हुआ; जिसके कारण वह अवधिज्ञान प्राप्त कर देवगतिमें उत्पन्न हुआ। आनन्द श्रावकका वृत्तान्त इस प्रकार है:
" वाणिज्य " नामक ग्राम में जितशत्रु राजा राज्य करता था। वहां आनंद नामक गृहस्थ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम था शिवानन्दा । उसके घर में बारह करोड सुवर्ण थी । और दश हजार गौओंका एक गोकुल, ऐसे चार गोकुल थे। उस गाँवके ईशान कोन में कोलाग नामक गाँव था, जिसमें आनन्द के अनेक रिश्तेदार रहते थे ।
किसी समय वहांके ' द्रुतपलाश' नामक उद्यानमें श्रीमहावीर स्वामी पधारे। वहां जितशत्रु राजा और आनंदादि गृहस्थ लोग भगवानको वंदन करने के लिये गये। वीरप्रभुको धर्मदेशनाको श्रवण कर आनंद श्रावकने बारह व्रत अंगीकार किये। जिनमेंसे पांचवें 'परिग्रह परिमाण' व्रतमें 'चार करोड सुवर्ण कोश ( भंडार) में रखना, चार करोड ब्याजु देना, और चार करोड व्यापारमें रोकना, यह सब मिल कर बारह करोड सुवर्ण तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com