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अब चौवीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं।
जं जं नियमणइदं तं तं साहूण देइ सद्धाए । दिनेवि नाणु तप्पड़ तस्स थिरा होइ धणरिद्धी ॥४०॥
अर्थात्-जो जो मनोज्ञ वस्तुएं अपने पास होती हैं, वे सब चीजें जो पुरुष साधुको श्रद्धा करके भावपूर्वक देता है दे कर उसकी अनुमोदना करता है; परंतु पश्चात्ताप विषाद करे नहीं, उस पुरुषके वहां विपुल ऋद्धि स्थिर हो करके रहती है। जैसे कि शालिभद्र सेठके घरमें ऋद्धि स्थिर हो करके रही, बत्तीस कन्या ब्याही, उनको नित्य नये नये वस्त्राभरण मिलते थे (४०) उसकी कथा कहते है।
“मगध देशमें राजगृही नगरीके करीब शालिग्राम नामक ग्राम था। वहां पर धन्या गोवालका संगम नामक पुत्र लोगोंके बछडे चरा कर पेट भरता था । एकदा पर्वके दिन माताके पास उसने खीर की याचना की; मगर घर में कुछ भी चीज न थी, कि जिससे खीर पका कर लड़केको खिलावे । माता रोने लगी। यह देख कर पडोसणने दूध, सक्कर व शालिधान्य ला दिये । जिसकी उत्तम खीर पका कर संगमको थाली में परोम कर माता बाहर गइ। उस समय पीछेसे वहां मासखमणके पारणे एक मुनि पधारे, उनको संगमने बडेही उल्लालभावसे आनन्दित हो कर वह सर्व खीर बहरा दी । उल पुण्यके योगसे राजगृही नगरीमें गोभद्र सेठकी भद्रा नामक स्त्रीकी कुक्षिमें वह उत्पन्न हुआ। माताको शालिक्षेत्रका स्वप्न आया, जिससे शालिभद्र ऐसा नाम
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