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(८६) " महेन्द्रपुर नगरमें गुणदेव नामक सेठ रहता था, उसकी गायत्री नामक स्त्री थी । उसे बहुत दिनोंके पश्चात् पुत्र हुआ; परन्तु वह कर्म के योगसे जन्मांध और बधिर हुआ। जिससे बधाइ देना तो बाजु पर रहा, मगर उस लडकेका नाम संस्करण भी नहीं किया । वह अंधबधिर इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । उसकी बाल्यावस्था व्यतीत हो गई और यौवनावस्था प्राप्त हुइ तब उसके मातपिताने मोहके वशीभूत हो कर जितने २ मंत्र तंत्र थे वे सब किये, कुछ बाकी न रखा । वैसेही निमित्तिया, ज्ञानी, जोशी, चूडामणीयादिक सब सिद्ध पुरुषोंको पुछा, मंडल बैठाये, दीपावतार, अंगुष्टावतार, पात्रावतार देखे । तथा ग्रहपूजा शान्तिकर्म कराये, पादर देवताकी मानता की, यक्ष की सेवा की, क्रोडीयाको पूछा, पुत्रके मोहसे ऐसा कोइ देवस्थान शेष रहा कि जिस स्थानको उसके मातपिताने पूछे व पूजे विना छोड दिया हो; परन्तु वह सर्व प्रयास जिस प्रकार उखर भूमिमें बोया हुआ बीज निष्फल होवे, उसी प्रकार निष्फल हुआ । अनेक वैद्योंके औषध भी किये, परन्तु वह लडका अच्छा न हुआ । आंखोंसे कुछ देखे नहीं व कानसे कुछ सुने नहीं, जिससे भोजन पान कराना पडे वह भी इसारेसे कराते । मातपिताने सोचा कि हमने पूर्वभवमें न मालूम कैसे पाप किये होंगे कि जिससे यह पुत्ररूपमें सदैवका शल्यही हुआ। ऐसे पुत्रके होनेकी अपेक्षा न होनाही अच्छा, और यह पुत्र जीवित रहे इसकी अपेक्षा मृत्यु पावे तो भी अच्छा । ऐसा बार बार विचार करते।
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