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कर भी परित हुए
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" महाविदेह क्षेत्रमें अपराजिता नगरीमें ईशानचंद्र राजा राज्य करता था। वहां चंदनदास नामक एक श्रेष्ठी ( सेठ ) रहता था, उसको सागरचंद्र नामक एक गुणवन्त पुत्र था। वह सरल चित्तवाला, निरन्तर धर्मपरायण और निर्मल आचारवाला था । उसको अशोकदत्त नामक मित्र था । वह मायावी मनमें कूड कपट बहुत रखता था । किसी समय वसन्त मासमें राजाका आदेश हुआ कि-' आज वसन्तक्रीड़ा करने के लिये सर्व लोग वनमें आवें । यह वार्ता श्रवण कर सागरचंद्र व अशोकदत्त-ये दोनों वनमें गये, और राजा भी परिवार सहित वनमें आया । और भी लाखों लोग वहां एकत्रित हुए । सर्व स्थल में गीत, गान, नाटक झूलणादि कौतुक सब लोग करने लगे। उस समय " बचाओ बचाओ " ऐसी चिल्लाहट सुनाई दी । तब सागरचंद्र नजीक होनेसे खड्ग हाथमें ले कर वहां गया, तो चौरोंसे अपहराती हुई पुण्यभद्र सेठकी पुत्री प्रियदर्शनाको दयाजनक स्थिति में देखी । उसे सागरचंद्रने बलपूर्वक छुड़ाई । यह बात सागरचंद्र के पिता चंदनदासने सुनी । पुत्र जब घरको आया, तब पिताने शिक्षा दी कि-'हे वत्स ! कभी उद्धत मत होना, कुलमर्यादाके अनुकूल बल-पराक्रमका उपयोग करना, द्रव्यके अनुसार वेष पहिरना, कुसंगति नहीं करना, बड़ोंका विनय करना, बडोंके कटुवचनको सहन कर लेना, ताकि महत्ताकी प्राप्ति होवे । इस लिये तू तेरा मित्र जो अशोकदत्त है, इसकी संगति छोड दे और श्रीजैनधर्मका पालन कर।' इस प्रकार पिताकी शिक्षाको श्रवण कर सागरचंद्रने
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