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कहा कि-' हे पिताजी ! ऐसा कार्य मैं कभी न करूंगा कि-जिससे मेरी इज्जतमें धब्बा लगे ।' पुत्रके इन बचनोंसे पिता हर्षित हुआ ।
अब पुण्यभद्र सेठने भी सागरचंद्र कुमारका उपकार जान कर अपनी प्रियदर्शना कन्याको बडे महोत्सवसे उसके साथ ब्याह दी । प्रारब्धने दोनोंका अच्छा समागम मिलाया । कुंवर-कुंवरी दोनों सुख समाधिसे रहने लगे।
किसी समय सागरचन्द्र ग्रामान्तरको गया। पीछे से अशोकदत्त अपने मित्र सागरचन्द्र के वहां आ कर प्रियदर्शनाके प्रति कपटयुक्त स्नेह दर्शाने लगा और कहने लगा कि-' आइये अपने दोनों परस्पर स्नेह सम्बन्ध कर सुखी होवें । ' इस बातको श्रवण करते ही स्त्रीको क्रोध उत्पन्न हुआ। जिससे उसको घरसे बाहर निकाल दिया । बाहर निकलते हुए रास्ते में सागरचन्द्र भी ग्रामान्तरसे आता हुआ उसको मिला । उसको अशोकदत्तने कहा कि- तुम्हारी स्त्री मेरे साथ स्नेह करनेको तत्पर हुई; मगर मैंने निषेध किया।' यह बात सुन कर सागरचंद्रने विचार कर कहा कि-' अघटित कार्य करना उचित नहीं। ' सागरचंद्र घर आया, तब स्त्रीके मुखसे मित्रका सर्व स्वरूप जान लिया और सोचने लगा कि मेरे पिताने जो कहा था कि-अशोकदत्तकी संगति मत करना, यह बा सत्य हुई। ऐसा निश्चय करके धर्मकार्य करने में स-पर हुआ। अपनी
लक्ष्मीका सय सात क्षेत्रों में करने का । स्त्री भतार-दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com