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मुनि सागरपोत नामक गृहस्थके घर में गोचरीके लिये गये । गोचरी बहेरकर ज्योंही वे दो मुनि बाहर निकले, त्योंही उस दामनकने उसी घर में प्रवेश किया । इस बालकको देखकर एक मुनिने दूसरे मुनिसे कहा:सचमुच ही यह बालक इस घरका मालिक होगा । मुनिका यह कथन ऊपर गोख में बैठे हुए घरके स्वामीने सुन लिया । सुनते ही उसके हृदय में आघात पहुंचा । वह सोचने लगाः 'अहा ! बडे बडे कष्टोंका सामना करके मैंने यह लक्ष्मी उपार्जन की है । क्या इसका मालिक यह रंक जो भिक्षावृत्तिसे जीता है, वह होगा ? । और गुरुका वचन भी अन्यथा नहीं हो सकता । अब तो किसी उपायसे इस लड़केको यमद्वारमें पहुँचाना ही श्रेयस्कर है । ' इस प्रकार विचार करके सागरपोतने उस बालकको मोदकादिकी लालच देकर पिंगल नामक चांडालके घर रक्खा । उस चांडालको सेठने गुप्तरीत्या कह दिया कि - ' मैं तेरेको पांच मुद्राएं दूँगा । तूने इस बालकको पूरा कर देना और मुझको दिखलाना । ' इस बालक के सुरूप को देखकर चांडाल के अंतःकरण में करुणभाव उत्पन्न हुआ । वह विचारने लगा :- क्या द्रव्य के लोभसे ऐसे निर्दोष बालकको मार हूँ ।' चांडालने कतरनीसे उस बालककी कनिष्ट अंगुली काटली, और उससे कहा:- भाई ! तू यहाँ से बहुतही शीघ्र चला जा । नहीं तो इस कतरनीसे मैं तेरेको मार दूंगा । बालक गभराहट में हो वहाँसे चल दिया, और जिस गाम में सागरपोतका गोकुल था, वहाँ पहुँचा । गोकुलके स्वामी नंदने, जिसको पुत्र नहीं था, पुत्र रूपसे इसको
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