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( २२ ) उपजे । तब आनन्दने कहा कि आपके प्रभावसे मुझे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । उसकी मर्यादा उस प्रकार है किः-पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशामें समुद्रके भीतर पांचसो योजनपर्यंत देखता हुँ । और उत्तरदिशिमें हिमवंत पर्वत पर्यंत देखता हुं। तथा ऊंचे सौधर्मदेवलोक तक व नीचे पहले नरक पृथ्वीके लोलुआ नरकवासा तक देखता हुं। यह श्रवण कर श्रीगौतमस्वामीने कहा कि, गृहस्थको इतना अवधिज्ञान न होवे, अतः तुम मिच्छामि दुक्कड लो। आनंदने कहा कि-सत्य कहनेका मिच्छामि दुक्कड कैसा ? गौतमस्वामीने कहा कि-इतना अवधिज्ञान गृहस्थको न उपजे । तब आनंदने कहा कि-आप खुद मिच्छामिदुक्कड लेवें । यह वाक्य श्रवण कर गौतमस्वामी शंकित हो कर महावीरस्वामीके पास पधारे और भातपाणी की आलोचना कर पूछने लगे कि-हे भगवन् ! आनंद श्रावक मिच्छामि दुक्कड ले कि मैं लूँ ? भगवानने फरमाया कि-हे गौतम ! तू ही मिच्छामि दुक्कड ले। क्योंकि आनन्दके कथनानुसारही उनको अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । तब गौतमस्वामीने आनन्द श्रावकके पास जा कर मिच्छामि दुकडं दिया और आनन्द श्रावकसे क्षमा मांग ली। इस तरह आनंद श्रावकने वीश वर्ष पर्यंत श्रावकधर्म पाल कर पहले सौधर्मदेवलोकके अरुणाभ विमानमें चार पल्योपमके आयुष्य सह देवता हुए । वहांसे चव कर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न हो कर मनुष्यपणेमें चारित्र ( प्रवा ) पाल कर मोक्षमें जायेंगे। यह दूसरे प्रश्रके उत्तरमें आनंद श्रावककी कथा कही ।
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