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( ४१ )
दो दिन बादही यह समाचार सागरपोतके कर्णगोचर हुआ । समाचार सुनतेही उसके हृदयमें आघात पहुँचा । वह बडा दुःखी होता हुआ अपने घरकी ओर आते हुए रास्ते में विचार करने लगा - 'अहो ! मैं जो जो करता हुँ, सो तो विधि अन्यथा ही करता है । खैर, यह मेरा गृहजमाई हुआ है । तथापि इसको मारे विना तो मैं नहीं रहूँगा ।' ऐसा विचार कर वह अपने गाँव गया और सीधा ही पिंगलचाण्डालके वहाँ जाकर कहने लगा:-' अरे चांडाल ! तूने क्यों उस लड़केको नहीं कहा:- -' सेठ |
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चाण्डालने
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मारा ? सच कह दे । उसके प्रति मुझको दया आई, इसलिये मैंने मारा नहीं । खैर, अगर उसको मारनाही है, तो आप वह लड़का मुझको दिखलाइये; अब मैं उसे मार डालूंगा ।' सेठने कहा:-' पिंगल, आज शामको मैं दामनकको मेरी गोत्र देवता के मंदिरमें भेजूंगा, तूने वहाँ उसको अवश्य मार देना । संध्या समय सेठने घर आकर दामनक और उसकी स्त्री - विषाको कहा: - ' अरे, अभीतक तुमने क्या कुलदेवीका पूजन नहीं किया ? जिसके प्रभावसे तुम दोनोंका संगम हुआ है ।' ऐसा कह कर उसने उन दोनोंको पुष्पादि पूजासामग्री के साथ पूजाके लिये गोत्रदेवीके मंदिरमें भेजे । जब वे दोनों बजारमें होकर गोत्रदेवीके मंदिरप्रति जाने लगे, तब सेठकी दुकानपर बैठे हुए सेठके पुत्र समुद्रदत्तने उठकर उन दोनोंसे कहाः - ' यह पूजाका समय नहीं है । ' ऐसा कहकर उन दोनोंको किसी एक स्थानपर बैठाये, और स्वयं वे पुष्पादि चीजें लेकर गोत्रदेवी के मंदिरमें गया।
मंदिरमें तो संकेतानु
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