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दे कर नगरशेठका पद प्रदान किया। वस्त्र, मुद्रिका आदि पहनाये, और बडे बाजे गाजेके साथ सपरिवार पुण्यसारको घर पहुंचाया। फिर पुण्यसारका महत्व दिनप्रतिदिन वृद्धिंगत हुआ। अपनी लक्ष्मीसे पुण्यकार्य साधता रहता था, परन्तु गांठमें नहीं बांधता था।
एकदा उस नगरके उद्यानमें सुनंद नामक केवली भगवान् समोसरे। उनको राजा सपरिवार तथा पुण्यसार सेठ भी अपने माता, पिता, स्त्री और अन्य मनुष्योंके साथ वंदन करनेको गये। वंदना नमस्कार कर बैठे। केवलीने धर्मोपदेश दिया। फिर धनमित्र सेठने पूछा कि-हे भगवन् ! मेरे पुत्रने पूर्व भवमें कैसे पुण्य किये हैं कि-जिनके प्रभावसे यह लक्ष्मी, राज्यमान, सौभाग्य व महत्त्वको प्राप्त हुआ ? तब गुरुने कहा कि-पूर्व कालमें इसी नगरमें धनकुमर सेठ था, उसने गुरुके समीप जा कर बाइस अभक्ष्य और बत्तीस अनंतकायके नियम लिये, सुपात्रोंको दान दिया, देव, गुरु और वडिलोंकी भक्ति एवं विनय किये, श्रावक धर्म पालन किया, वृद्धावस्था में दीक्षा ली, सिद्धान्तोंका पठन किया, तपश्चर्या की, क्षमा उपशमादिक अनेक गुणोंको धारण किये, और प्रांते अनशन ले कर आयुष्य पूर्ण करके तीसरे देवलोकमें इंद्र सामानिक देवता हुआ। वहां देव सम्बन्धी भोग भोग कर. वहांसे चव कर पुण्यके प्रभावसे तेरा पुत्र हुआ है। पूर्व पुण्यके योगसे वह लक्ष्मी महत्त्वादिकको पाया है। यह बात सुनकर पुण्यसारको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वके भव देखे.। फिर कुटुंब सहित
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