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फिर माताकी आज्ञा ले कर सुवर्णके थालका टुकड़ा साथ में रक्खा और देशान्तर में चला। मार्गमें चलते हुए महाकष्टसे कायर हो कर एक पर्वत के ऊपर चढ़ कर वहांसे पापात करके मरनेको तय्यार हुआ । उसे झंपापात करते हुए एक साधुने देखा । उसने ज्ञानबलसे उसका नाम जान कर उसे बुलाया कि हे सुधनशाह ! तुम साहस मत करो, क्योंकि पर्वत परसे गिरकर अकाल मरणसे तेरी व्यंतरकी गति होगी । यह सुन कर सुधन भी उस ज्ञानी ऋषिके पास आया, ऋषिको वन्दना की, ऋषिने कहा कि-कर्म किसीको छोडता नहीं है ।
कर्म से सुदर्शन सेठ,
हरिचंद कीनी मातंग वेठ । मेतारज ऋषि काढी दृष्ट, कर्मे कीना सहु पग हेठ ॥ १ ॥
अतः हे सेठ ! जिस लक्ष्मी के दुःख से तुम मरनेके लिये तय्यार हुए हो वह लक्ष्मी असार है, चपल है, मलिन है, अनर्थका मूल है, विद्युत् के चमकारकी भांति हाथमेंसे चली जावे ऐसी लक्ष्मीके कारण मर कर हीरा जैसे मनुष्यभवको कौन निष्फल करे । इत्यादि उपदेशको सुन कर सेठने प्रतिबोध पाया । मुनिके पास दीक्षा ले कर सूत्र पढ कर गीतार्थ हुआ, अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । ऐसा सुधन ऋषि विहार करता हुआ उत्तरमथुरा में समुद्रदत्त सेटके वहां गौचरीके निमित्त गया ।
वहां अपने सुवर्णपाट, कुंडी, लोटा, कटोरे, थाल, प्रमुख सर्व देखे व पिछान लिये । सुवर्णके खंडित था
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