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(७२) 'धनदत्त सेठ दाघज्वरसे पीडित हो कर देवशरण हुआ। उस समय उसके रिश्तेदारोंने उसके पुत्र सुधनको उसकी पाट पर बैठाया । सुधन घरके कुटुम्बका भार निर्वहने लगा ।
एकदा सुधन सुवर्णके पाट पर स्नान करनेको बैठा। आगे सुवर्णकी कुंडी पानीसे भर कर सेवकोंने रखी । स्नान कर रहा कि फौरन वह कुंडी आकाशमार्गसे चली गई । स्नान करके पाठसे नीचे पैर दिया कि सोनेका पाट भी आकाशमार्गसे चला गया । फिर देवपूजा करनेको देवमन्दिरमें गया, वहां पूजा कर ली कि-फौरन देवमंदिर तथा बिम्ब कलश आदि सर्व अदृश्य हो गये। धोतीका समुदाय आकाशमें चला गया। फिर घरमें आया, तब जहाज समुद्र में डूब जानेका समाचार मिला। फिर भोजन करनेको बैठा । आगे सुवर्णके थालमें भोजन रक्खा । तथा सुवर्णमय बत्तीस कटोरे दाल, कढ़ी, शाक प्रमुखके भर कर रखे । तथा बत्तीस कटोरी चांदी की रखी । वे सब चीजें भी आकाशमें चली गइ । और जब थाल आकाशमें जानेके लिये कम्पित हुआ, तब सुधनने उसे पकड़ लिया; मगर उसका केवल एकही टुकडा उसके 'हाथमें रह गया, और थाल चल गया। इस प्रकार देखते देखते सभी ऋद्धि चली गई। कर्म के आगे किसीका जोर नहीं चल सकता। उस असमें एक लेजदारने आकर कहा कि-मेरा एक लाख द्रव्य तुम्हारे पाल लेना है वह दे दी। तब निधान खोल कर देखा तो सर्व द्रव्य राखके सदृश बना हुआ दृष्टिगोचर हुआ । लिलसे वह बड़ाही दुःखी हुआ ।
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