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(१२६ ) आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलदयातटोर्मी । तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र! न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।। ___अर्थात्-श्रीकृष्ण कहते हैं कि-हे पांडुराजाके पुत्र अर्जुन! संयम और पुण्यरूप जलयुक्त और सत्यरूप जिसका प्रवाह है, तथा शील और दयारूप जिसके तट हैं ऐसी आत्मारूप नदी है, उसके भीतर तू अभिषेक कर। अर्थात् उसमें स्नान कर; परंतु जलके द्वारा अंतरात्मा कदापि शुद्ध नहीं हो सकता।
पुनः तूने कहा कि-तुम निर्गुण हो, यह भी तेरा कथन अयुक्त है। क्योंकि क्षमा, दया और क्रिया प्रमुख अनेक गुण भी हमारेमें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, तो फिर हम निर्गुणी कैसे ? कहा है
चित्तं शमादिभिः शुद्धं वदनं सत्यभाषणैः । ब्रह्मचर्यादिभिः काया शुद्धा गंगांभसा विना ॥१॥
भावार्थ:-क्षमादिकके द्वारा चित्त शुद्ध होता है. ब्रह्मचर्यादिकके द्वरा काया शुद्ध होती है। इस प्रकार गंगाके जल विनाही पूर्वोक्त सर्व शुद्ध होता है, परन्तु उनमेंसे कोई भी पदार्थ गंगा जलके द्वारा शुद्ध नहीं हो सकते।
पुनः तू कहता है-तुम लोगोंके पास पूजा कराते हो, यह तेरा कथन भी असत्य है; क्योंकि कहा है कि
पूजां ह्येते जनाः स्वस्य कारयंति न जातुचित । स्वयमेव जनः किंतु गुणरक्तः करोति तत् ।।
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