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( १२१) यह बचन श्रवण कर बहूको महा बुद्धिवाली जान कर सेठ हर्षित हुआ और कहने लगा कि-मेरी यह वधू सर्व पुत्रवधुओंमें छोटी है, परंतु बुद्धिकी अपेक्षासे सर्वमें अग्रसर है, अतः उसको मैं मेरे कुटुंबमें बडी करके स्थापता हुं। अतएव आयंदा मेरे सर्व कुटुम्बी जनोंको चाहिये कि-उसको पूछ करके कामकाज करें, ऐसी मैं आज्ञा करता हुं। इसके अतिरिक्त सेठको उसी दिनसे दान देनेकी बुद्धि भी हुई।
कुछ समय व्यतीत होनेके पश्चात् सेठको पांचवा पुत्र हुआ । उसका दत्त ऐसा नाम रक्खा, परन्तु उसको हाथ पैर नहीं थे, हीनांग था । उसको जब यौवन वय प्राप्त हुआ तब लोक उसकी हांसी करने लगे । वैद्योंने तेल मर्दनादि अनेक उपचार किये, परन्तु जिस प्रकार दुर्जन पर किया हुआ उपकार व्यर्थ जाता है उसी प्रकार सेठने अनेक उपचार किये, बहुत द्रव्य खर्च किया, परंतु पुत्रका कुछ भी आराम नहीं हुआ।
एकदा दो मुनीश्वर भिक्षाके लिये आये, उनको वंदना कर सेठने पूछा कि-महाराज! मेरा पुत्र अच्छा होवे ऐसा कोइ औषध बतलाइये । गुरुने कहा-जीवको रोग दो प्रकारके होते हैं, एक द्रव्यरोग व दूसरा भावरोग । उनमें पहले द्रव्यरोगका प्रतीकार तो वैद्य जानता है, और दूसरे भावरोगका प्रतीकार हमारे गुरु जानते हैं। वे इस समय इसी गांवके बाहर वनमें पधारे हुए हैं, उनको पूछो । यह बात सुन कर सेठ भी वनमें गया ।
वहां गुरुको वंदना कर पूछने लगे कि-महाराज ! मेरा ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com