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(१२२) दत्त पुत्र अंगहीन है, वह किसी प्रकार अच्छा नहीं होता है, उसका कारण क्या ? तथा द्रव्यरोग व भावरोग किसे कहते हैं? तब गुरु बोले कि-राग द्वेष करके अशुभ कर्म उपार्जन करे उसे भावरोग कहते हैं, और उन कर्मोंका उदय होता है तब जो फल विपाक भोगना पडता है उसे द्रव्यरोग कहते हैं । भावरोगके नष्ट होनेसे द्रव्यरोग भी नष्ट होता है । तप, संयम, दया कायोत्सर्गादिक क्रियाके करनेसे भावरोग मिटता है, भावरोगके जानेसे द्रव्यरोग भी जाता है।
तेरे इस पुत्रने पूर्वभवमें व्यापार करते हुए लोगोंको वंचित किये थे, कृडे तोल व कूडे माप रख कर लोगोंको धोखा दिया था, सरस नीरस वस्तुओंका भेल संमेल करके बेचा था। इस प्रकार अगणित पाप किये थे; परन्तु एक दफा साधुको दान दिया था, उस पुण्यके योगसे तेरे वहां पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ है। उसने जान बूझ कर फूड कपट छलभेद करके मुग्ध लोगोंको वंचित किया था, जिसके योगले हाथ रहित हुआ है । ऐसी बात गुरुके मुखसे श्रवण कर सेठ और दत्त-दोनोंने मिल कर श्रावकधर्म अंगीकार किया। दत्तने नियम ले कर कपटको छोड दिया । नवकार मंत्र का स्मरण किया। मृत्यु पा कर देवलोक में गया, अतएव हे भव्यो ! किसीको भी मत ठगो
अब अडतीसवीं और गुनचालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं :
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