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(४४) समाधिपूर्वक अल्प आयुष्य पूरा कर देव हुआ । वहाँसे चव कर मनुष्यभवमें दीक्षा लेकर क्रमसे मोक्षमें जायगा।"
अब दशवें और ग्यारहवे प्रश्नके उत्तर दो गाथाओंके द्वारा देते है:
देइ न नियमं सम्म दिन पि निवारए दित्तं । एएहिं कम्मेहिं भोगेहिं विवज्जिओ होइ ॥ २६ ॥ सयणासणवत्थं वा भत्तं पत्तं च पाणयं वावि । हीयेण देइ तुट्ठो गोयम भोगी नरो होइ ॥ २७ ॥
अपने पास वस्तु होने पर भी जो किसीको न दे, और यदि देभी, तो पीछेसे संताप करे, एवं अन्य कोई देता हो, तो उसकोभी रोके । ऐसे कर्मोंके करनेसे जीव मोगसे विवर्जित यानि भोगरहित होता है। जिस प्रकार धनसार सेठ छासठ कोडी द्रव्यका मालिकहोने पर भी अत्यंत कृपण होनेसे भोगरहित हुआ ( २६ )
तथा, जो पुरुष शयन, पाट, संथारा, आसन, पाटा, पायपूंछणुं, कम्बल, वस्त्र, भात, पानी आदि महात्माको देने योग्य वस्तु उत्कृष्ट भावसे सन्तुष्ट हो कर देता है, वह पुरुष हे गौतम ! भोगवाला-सुखी होता है (२७) जैसे कि धनसार सेठने सुपात्र दान दे कर भोग सम्बन्धी सुख प्राप्त किया [ कहा है:
बिनतडी स्वामी सुनो, तप जप क्रिया न कीध ।
राग-द्वेष पातक किये, गवं दानज दीध ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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