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(११८ ) तब अट्टणमल्लने फलिहमल्लको अभ्यंगस्नान कराके इसका शरीर ताजा कर दिया ।
यश विस्तराड कर मार गया, और फलियुद्ध
अब राजाने माछीमल्लको पूछा कि-तेरे अंगमें कहां दर्द होता है ? मगर मारे शरमके माछीने यथार्थ बात न कहते हुए अंगमें दर्द होनेकी बात को छुपाया । फिर दूसरे दिन सभामें सब लोगोंके समक्ष दोनों मल्लयुद्ध करने लगे। वहां माछीमल्ल थक गया, और फलिहमलने उसकी ग्रीवा मरोड कर मार डाला। जिससे फलिहमल्लका यश विस्तृत हुआ, और पारितोषिक भी मिला। इस प्रकार अट्टणमल्लके आगे वह यथास्थित स्वरूप कह कर सुखी हुआ, और माछीमल्लने यथास्थित स्वरूप न कहा, जिससे दुःखी हुआ। इस दृष्टांतको श्रवण कर जो कोइ गुरुके पास सत्य कह कर आलोयणा लेता है, वह अट्टणमल्ल फलिहमल्लकी तरह सुखी नीरोगी होता है और जो कोइ गुरुके पास आलोयण लेते हुए सत्य बात नहीं कहता वह माछीमल्लकी तरह रोगी हो कर दुःखी होता है। कहा है:
पाप आलोवे आपणुं गुरु आगल निःशंक । नीरोगी सुखीया हुवे निर्मल जेहवो शंख ॥ १ ॥
अब सेंतीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते है
लहु हत्थयाइ धुत्तो कूडतुलाकूडमाणभंडेहिं । ववहरइ नियडि बहुलो सोहीणंगो भवे पुरिसो ॥५२॥
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