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(११०) " हस्तिनापुर नगरमें अरिमर्दन नामक राजा राज्य करता था । उस गांवमें सुबंधु नामक सेठ रहता था। उसकी बंधुमती नामक भार्या था, उसे बहुत मनोरथके पश्चात् एक पुत्र हुआ, अतएव उसका मनोरथ ऐसा नाम रक्खा । वह जब बडा हुआ तब उसका पिता उसे देवगुरूको नमस्कार करनेको कहते, परन्तु वह स्तब्ध हो खडा रहता, प्रणाम नहीं करता । उसको शालामें पठनार्थ भेजा, वहां भी एक हरफ नहीं सीखा । पिताने बडोंका विनय करनेकी शिक्षा दी तो भी किसीका विनय नहीं करता । अतः जिसका जो स्वभाव होता है वह किसी प्रकार मिटता नहीं।
एकदिन उसका पिता उसे गुरुके पास ले गया । गुरुको कहा कि-इसको प्रतिबोध दीजिये । गुरुने मनोरथको कहा कि-हे वत्स! व्रत-पञ्चक्खाण-नियम करनेसे बहुत फल होता है । अतः तेरी इच्छाके अनुसार कुछ नियम ले । मनोरथने कहा कि-मेरेसे नियम पलते नहीं। गुरुने कहा कि-ऐसा है तो फिर तू दान देनेका व्यसन रख, मनोरथने कहा, मैं दान भी नहीं कर सकता। तत्पश्चात् इसका पिता मर गया। मनोरथ बडा ही कृपण था जिससे उसके घरमें कोइ भिखारी भी याचना करनेको नहीं आता।
एकदिन वह एकाकी ग्रामान्तरको जा रहा था, उसे मार्गमें चोर लोगोंने मार डाला, पासमें जो कुछ धन था, वह सब चोर ले गये । मर कर दरिद्रीके कुलमें जा कर पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ। वहां निष्पुण्यक ऐसा नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com