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( ९२) एकदफे श्रीवासुपूज्यस्वामीके सुवर्णकुंभ और रूपकुंभ नामक दो शिष्य-साधु चार ज्ञानके धारक, छह, अट्ठम तप करते हुए वहां आये । राजा-राणी-पुत्र प्रमुख सर्व परिवार वंदन करनेको गये । गुरुने धर्मलाभ देकर धर्मदेशना दी। फिर राजाने पूछा, हे भगवन् ! मेरी रोहिणी राणीने क्या तप किया है, कि जिसके योगसे वह दुःखकी बात भी नहीं जानती है ?। फिर मेरा भी उसके ऊपर अत्यंत स्नेह है उसका कारण क्या है ? इसके अलावा इसके पुत्र भी बहुत गुणवंत हुए हैं उसका हेतु भी क्या है ? सो कहिये ।
गुरु कहने लगे कि-हे राजन् ! इसी नगर में धनमित्र सेठकी धनमित्रा स्त्री थी, उसको कुरूपिणी दुर्भागिणी ऐसी दुर्गधा नामक पुत्री हुई । वह जब यौवनावस्थाको प्राप्त हुई तब पिताने उसका विवाह करने के लिये एक कोटिद्रव्य देनेका निश्चय किया, तथापि किसी रंक जैसे मनुष्यने भी उसके साथ शादी करनेका मन नहीं किया। उस असें में एक श्रीषेण नामक चोरको मारने के लिये राजकर्मचारी लोग वधस्थल प्रति ले जाते थे, उसे छुडाया और अपने घर में रखकर उसके साथ अपनी पुत्रीकी शादी कर दी। वह चोर भी दुर्गधाके शरीरकी दुर्गंध सहन न होनेसे रात्रिके समय गुपचूप भाग गया । तब सेठ खेद करता हुआ कहने लगा कि-कर्मके आगे किसीका जोर नहीं चलता है। पुत्रीको कहा-तू घरमें रह और दान पुण्य कर । वह पुत्री दान करनेकी इच्छा करती परंतु उसके हाथका दान भी कोइ लेता नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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