Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमदमुनि एदिसागरजी कुत. भजन पद संग्रह मायामशानमा दल For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KoslikeshakelkolhapakesHEELMERDHREMES भीमदबुद्धिसागरजी ग्रन्थमाळा. प्रन्यांक ३ योगनिष्ठ मुनिराज श्री बुद्धिसागरजी कृत भजनपदसंग्रह भाग ३ जो. KHELCEMGoddSHEELMGESMOSWEE प्रांतीजवाळा शेठ. मगनलाल करमचंद. तथा कच्छनलीयावाळा शेठ. लद्धाभाइ चांपसीभाइनी मददथी. SAdsesGsAGEABAR छपावी प्रसिद्ध करनार. अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ. __( मुंबाइ, चंपागली.) धीर संवत २४३५० सने १९०९. अमदावाद. श्री सत्यविजय प्रीन्टींग प्रेसमां शा. गीरधरलाल हकमचंदे छाप्युं. - জিমষ ও আলা. For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना. श्री भजनस्तवन पद संग्रह तृतीय भाग प्रस्तावना जगत्मा श्रेष्ठ आत्मधर्म छे. ज्ञानदर्शन चारित्रनी आराधना करवी तेज इष्ट परमार्थ कृत्य छे. हृदयमां परमात्मविचारणाना उठेला उभराओ वाणीद्वारा प्रकाशे छे, तेथी वाणी परजीवोने आ त्मधर्ममां पुष्टालंबन थाय छे. जिनाज्ञा प्रमाणे आत्मतत्त्वनुं ज्ञान क. रवं; आराधन करवू; गान करवू, ते सर्वथी उच्चभावनी वृद्धि थाय छे. उच्चभावथी आत्मा परमात्मारुप थाय छे, हृदयमा उच्चभावनी स्फुरणाओ उत्पन्न थाय छे, तेनुं गान करवू ते भजन कहेवाय छे. आवी स्फुरणाओ द्रव्य, क्षेत्र, काल भावना योगे उत्पन्न 'थाय छे. श्री माणसा नगरमां संवत् १९६४ नी सालनुं चातुर्मास कयु, ते प्रसंगे माणसावाळा सुश्रावक वीरचंदभाइ कृष्णाजी विगेरेनी विनंतिथी चोवीस तीर्थकरनी चोवीशी अने वीशविहरमान जिननी वीशीनी रचना थइ छे. तेमज पृष्ठ. २८ थी ते पृष्ठ ६३ सुधीमां स्वाध्यायो विगेरे छे, तेनी रचना पण माणसा चातुर्मासमां थइ छ; तेमा वर्तमानकालनो सुधारो छे तेनु रहस्य पुनः पुनः विचारीने हृदयमा उतारवा योग्य छे. वर्तमान कालनी मुख्यता लेइ सापेक्ष बुद्धिथी भूत भविष्यनी गौणता राखीने स्वरुप दर्शाव्युं छे पृष्ट. ६३ थी ६७ सुधीनां मस्तानगानो श्री रीदरोल गाममां रचायां छे. रीदरोल गामना विवेकी श्रावक शेठ. रीखवदास कालीदास विगेरेनी विनंतिथी त्यां मास कल्प कर्यो हतो. त्यांथी विहार करी. गाम, आजोल बीलोद्रा, डाभला थइ मेहसाणे जQ थयुं हतुं. त्यां पृष्ठ. ६७ थी ते पृष्ठ १०० सुधीनां पदोनी रचना स्फुरणा आवतां तप्रसंगे थइ हती. पृष्ठ १०० थी ते ११० पृष्ट सुधीनां पदोनी रचना विहारमां. लींच, गाम जोटाणा विगेरेमा थइ हती. पृष्ठ. ११० थी ते पृष्ठ १२६ सुधीना पदोनी स्फुरणा श्री भोयणी गाममा श्री मल्लिनाथजीना ध्यानथी प्रसंगे उद्भवी हती. पृष्ठ १२६ थी ते पृष्ठ १३६ सुधीना पदोनी स्फुरणा-भायणीथी विहार करी For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2 अमदावाद आवतां - कड़ी-सांतज विगेरेमां थइ हती. पृष्ठ १३७ थी १३८ मा ना स्तवनोनी रचना सरखेज गाममां थइ हती. पृष्ठ १३९ यो पृष्ठ १४२ सुधीना पदोनी स्फुरणा साणंद तथा गोधाबीमां बिहार प्रसंगे थइ हती. पृष्ठ. १४३ थी पृष्ठ १६० सुधीनी गुंहळोजीनी रचना अमदावादमां संवत. १९६५ ना पोश मासमां आंबलीपोळ झवेरीवाडाना उपाश्रयमां थइ हती पृष्ठ. १६१ थी पृष्ट. १८१ सुधी आत्मस्वरूप ग्रन्थ छे, तेनी रचना माणसा नगरमां संवत. १९६१नी सालमा थइ हती; तेमां बहिरात्मा, अंतरात्मा, अने परमात्मानुं वर्णन कर्यु छे, प्रत्येक आत्मानां लक्षण भिन्न भिन्न बताव्यां छे. पृष्ठ. १८२ मा थी चेतनशक्ति ग्रंथनी रचना शरु थएली छे, ते ग्रंथमा आत्मशक्तियोनो गंभीर वचनाथी महिमा दर्शाव्यो छे जेम जेम तेनो अर्थ विचारे, तेम तेम विशेष नीकळतो जाय छे, अने आत्मशक्तियोने प्राप्त करवा उत्साह वधे छे. आत्मोद्यम करवाथी अनंत कर्मनो नाश थाय छे, ते स्पष्ट आ ग्रन्थथी अनुभवमा आवशे. माणसाथी संवत १९६४ नी सालमां तारंगाजीए श्री अजितनाथनां दर्शन करवा विहार कर्यो. चैत्रवदी अमावास्याना रोज त्यां दर्शन करी एक दीवसमां आ ग्रंथ बनाव्यो छे तेमज श्री अजितनाथनुं स्तवन पण अमावास्याए बनाव्युं छे. चेतन स्तुति श्री खेरालु गाममां बनावी छे. तेमज केलवणीनुं स्वरुप श्री खेराकुमां वैशाख मासमां बनान्युं छे. जैनधर्ममां अध्यात्मज्ञान अनंत छे आत्मज्ञाननुं परिपूर्ण स्त्ररुप तीर्थकरो दर्शान्युं छे तेमना वचननो किंचित् रहस्य हृदयमां उतरवाथी द्रव्य क्षेत्र काल भाव योगे जेजे विषयोनी स्फुरणाओ उठी ते ते लखी लीधी छे छमस्थावस्थामा लखवामां रचवामां तथा विचारमां सिद्धांत सूत्रोना आशयथी विपरीत जे कंह होय ते पंडित पुरुषो सुधारशो, सज्जनो सद्गुण दृष्टिथी गुण ग्रहण करे छे, ( वीतराग आज्ञा विरुद्ध जे कंड़ होय ते संबंधी मिच्छामि दुकई दउछु भजनोपदो वक्ताना हृदयनुं प्रतिबिंब छे ( फोटोग्राफ For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे) जेवुं हृदय होय ते प्रकाशे छे. गंभीरपदोमां समजण न पडे तो सद्गुरु पासे निर्णय करवो. भक्तनुं हृदय जेवा स्वरुपमां वर्ततुं होय छे, तेवं ते वाणीथी देखाय छे, ज्ञानक्रियायी मोक्ष छे परमबोध प्राप्तिनुं कारण भजन छे, आत्मारुप मधुनी जेटली स्तुति करीए तेटली ओछी छे, सहज योगे मानादिकना अभावे आत्मार्थे आ भजन संग्रहनी रचना थइ छे. ज्ञान, वैराग्य, नीति, शिक्षा, भक्ति आटला विषयो आ पुस्तकमां मुख्यता ए छे. वांचीने आत्महित साधवं - शब्दब्रह्मथी पर ब्रह्मनी प्राप्ति करवी जोइए; सारांशके शब्दधी आत्मस्वरूपनी प्राप्ति करवी जोइए. आयुष्यनी खबर नथी, अल्पसमयमां आत्महित साधवानुं छे. प्रवृत्तिमार्गमांथी नोकळी निर्वृत्ति पद प्राप्त कर वानुं छे, त्रणकालमां शुद्धात्म सेवनथी मुक्ति छे, निमित्त अने उपादान कारणथी परमात्मस्वरूप प्राप्त करवुं जोइए ते माटे जिन वाणीनुं रहस्य गमे ते शब्द रूपमां वाक्यमां होय तोपण आराधन करी सिद्ध स्थानमां जवं जोइए, चिदानंद ल्हेरोनी खुमारी जेणे अनुभवी छे, तेने आ रचनानुं यथार्थ स्वरुप समजाशे, बाह्य खटपट छोडीने जे भव्य जीवो आत्माने उपादेय गणी धर्म साधना करे छे, ते परमभाव मंगलने प्राप्त करे छे, सर्वने तेम थाओ ॐ शांन्तिः सुश्रावक प्रांतिजवाळा शा. मगनलाल करमचंद तथा श्री कच्छगाम नळीयाचाळा शा. लद्धाभाई चांपशीए आ पुस्तक छपावामां जे. सहाय करी छे, धननो व्यय शुभ ज्ञान हेतुमा कर्यो छे, माटे तेमने धर्म लाभाशी पूर्वक धन्यवाद घंटे छे, दोशी. मणिभाइ नथुभाइ वी, ए तथा शा. गरिधरलाल हकमचंदे प्रुफ सुधारवामां सहाय करी ते माटे धर्म लाभाशीः देवामां आवे छे. विहार मुकाम - बोरसद - कावीठा. लि. मुनि - बुद्धिसागर. ॐ शांन्तिः शांन्तिः शांन्तिः माघ शुक्लपक्ष पूर्णिमा० संवत १९६५, For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ भजनस्तवन पद संग्रह भाग त्रिजानी अनुक्रमणिका. विषय. पत्र. पद्मप्रभु स्तवनम् ४४ वर्तमान चोविशी.. १-१७ | मोहस्वाध्याय विहरमान विशी. १८-२८ खटपट त्याग स्वाध्याय १५ सीमंधर स्तवन. २८ असार संसार स्वाध्याय ४६ सीमंधर स्तवन. वर्तमानकाल सुधारो ४६ सिदाचलस्तवन. २९ | आत्मप्रेमानन्द स्थुलिभद्रनी सज्जाय. ३१ | मंगल हृदयस्फुरणा स्वाध्याय. ३४ आत्मज्ञान. अन्तर प्रदेशमा उतरेली | गुरुश्रद्धा. वृत्तिना उद्गार स्वा- . स्याद्वादमार्ग ध्याय. चिदानन्द रहेर घटमा १६ कपटनी स्वाध्याय. ३५ | विनयखरूप शिक्षा सज्जाय... ३६ | परमार्थवाणी जगत् मुसाफरखानु. धर्मसूत्रमा स्वार्थत्याग विषय विकारजय स्वा. आत्मज्ञानिना उद्गार . ध्याय. ३७ आत्मदेशमा अनन्तमुख ७० सिद्धसमानभावनानी देहनगर सज्जाय. ३८ रीस अनुभव सज्जाय. ३८ चिन्ता . स्वचेतनशक्ति सज्जाय. ३९ धर्मरहस्य बोधक आत्मरमणता स्वाध्याय. ३९ प्रासंगिक बोष. उपयोग स्वाध्याय. ४० मायाखरूप मभुनी प्राप्ति स्वाध्याय. ४१ अनुभव. कलियुगना शेठीयाओ ११ द्रव्यभाव विहार श्री सिद्धाचन स्तवन ४३ | सत्यबोध 389658 , For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ . बोध पत्र. २०७ १०८ सिद्धान्तामृत ७८ | करवा लायक शिष्य. ९९ शुदस्वरूप ७८ । आत्मखुमारी. १०० योगविषय रागद्वेष त्याग १०० वैराग्यामृत उच्च बोध. अलखफ़कीरी अधिकार. १०२ आत्मज्ञान प्रकाश | सिद्धान्तवाणी. तर्क वितर्क | योग विषय. १०४ चितिशक्ति. मनः शक्ति. ब्रह्मचर्य. एक जिज्ञासुपर लखेलो लक्ष्मीसत्तानी उपाधि.. ८४ आत्मज्ञान महत्ता. हितवाणी. मन चंचलता. तत्त्वज्ञान. कई वस्तुमा रा. आत्मबोध. सद्गुरु बोध. आत्मपुरुषार्थ साध्य. १०९ मन मळवाथी अन्तर वार्ता हेतु बोध. थाय. ८८ समाधि धर्म चेतन शक्ति खीलवणी. ८९ ललना मोह शाश्वत सुख अभ्यास. ९० व्यवहार धर्म. अल्पज्ञान हानि.. मल्लिनाथ स्तवन योग्यता. मल्लिनाथ स्तवन. उपाधि.. गुरु भक्ति. ११४ उपाधि पीडाना उदगार.९३ ईया. तत्त्वमसि. खटपट. ज्ञानदशा जीवन जिनवरवाणी. ११७ आत्मध्यान. पुद्गल ममता त्याग. ११७ देह तंबुरो. चेतन ध्यान. कर्तव्य कृत्य. सापेक्ष बोध. सारांश बोध. ९८ परमबोध १२० ११५ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्पाद व्यय ध्रुवता बोध. भेदज्ञान. चिदानन्द. माध्यस्थभाव. परमब्रह्मस्वरूप. परमब्रह्म जागृति स्वा ध्याय. संखेश्वर पार्श्वनाथ - वन. धन्य दीवस. सन्त महिमा. उच्चभावना स्वाध्याय. धर्मशिक्षा. व्यवहार धर्म शिक्षा. नीति शिक्षा. श्रद्धा महत्ता. दुःख समयमा धैर्य रा. खं. परम मित्रता. www.kobatirth.org वनम्. अबळी दृष्टि. सवळी दृष्टि. पूर्णानन्द. १२१ राचवानुं स्थान कयुं. - १२२ |अनुभव वातो. १२३ मुनिवर गुंहळी १२४ मुनिवरनो श्रावकने उ १२४ पदेश. १२५ १२६ १२७ १२७ १२८ १३० १३१ ११२ १३३ १३४ १३५ आत्मज्ञान महत्ता. १३६ १३६ जगत्नी खटपट. श्री महावीर स्तवनम्. १३७ संखेश्वर पार्श्वनाथ स्त १३८ १३९ १४० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .१४५ १४६ जिनधर्म गुंहळी अपूर्व अवसर गुंडळी. १४७ संयमधर्म गुंडळी. १४९ गुरुवन्दन गुंडळी. जैनधर्म गुंडळी. मुनिनो उपदेश गुंडळी. १५० मुनिवर गुंडळी. १५१ मुनिवय मुंहळी. गुरु गुंहळी. 2/5 १४१ १४१ मुनि सुव्रत स्तवन. केळवणी. १४२ १.४३ धर्मोपदेश गुंडळी. अमूल्य सत्यबोध. गुरु स्तवन मुंहळी. जिनवाणी गुंडळी. आत्म स्वरूप ग्रन्थ चेतन शक्ति ग्रन्थ. चेतन स्तुति स्वाध्याय. २०० ૨ मीति वर्णन. अजित जिनस्तुति. ॐ शान्तिः ३ For Private And Personal Use Only १५२ १५३ १५४ १५५ १६६ १५७ १५८ १६० १६१ २०३ २०४ २०५ २०५ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीभजन स्तवन पदसंग्रह भाग त्रीजानुं शुद्धि अशुद्धि पत्रम्. लीटी. अशुद्धि- शुदि.. मोहादि. मोहाहि. बालकना. बालकनो. ૨૨. धावते. थावशे. ૨૩ बाह्य. बाह्य. करी. फरी. कालन. कालीन. आकिचन. अकिचन. निद्वेषी. निर्दृषी. १०४ ब्रह्मरन्ध्रमां. नमरन्ध्रमां. परधात. परघात. ११६ १८ षड. १५६ वनी. ૧૧ર कोन. १६४ मान. ११८ कता. २०२ एकमक. . एकमेक. १०५ सहु. 22.0mm..., माने. कर्ताः बीजा. बीजे. For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ श्री योगनिष्ठ मुनिश्री बुद्धिसागरजी कृत. भजन स्तवन पद संग्रह. भाग ३ जो. चतुर्विंशति जिन स्तवनानि ( चोवीशी ) ॥१ रुषभदेव स्तवनम् ॥ राग देशाख. परम प्रभुता तुं क्यों, स्वामी रुषभ जिणंद ध्याने गुणगणे चढी, टाळ्या कर्मना फंद. पर० ॥ १ ॥ अंतरंग परिणामथी, निज रूद्धि प्रकाशी; क्षायिकभावे मुक्तिमां, सत्यानंद विलासी. पर० ॥२॥ कर्ता कर्म करण वळी, संप्रदान स्वभावे; अपादान अधिकरणता, शुद्ध क्षायिक भावे. पर० ॥ ३ ॥ नित्यानित्य स्वभावने, सदसत् तेम धारो; वक्तव्यावक्तव्यने, एकानेक विचारो. पर० ॥ ४ ॥ आठ पक्ष प्रभुव्यक्तिमां, पंड् गुण सामान्य सात नयोथी विचारता, प्रभु व्यक्ति सुमान्य. पर० ॥ ५ ॥ स्मरण मनन एक तानमा, शुद्ध व्यक्तिमां हेतु; तुज सर मुज रुष छे, भवसागर सेतु. पर० ॥ ६ ॥ सालंबनमा तुं वडो, निरालंबन पोते; . बुद्धिसागर ध्यानथी, निजने निज गोते, पर० ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ अथ अजित जिनेश्वर स्तवन. श्रीरे सिद्धाचळ भेटवा-ए राग. अजित जिनेश्वर देवनी, सेवा सुखकारी; निश्चयने व्यवहारथी, सेवा जयकारी. अजि० ॥ १ ॥ निमित्त ने उपादानथी, सेवन उपकारी द्वेष खेद ने भय तजी, सेवो हितकारी. अजि० ॥२॥ दुर्लभ सेवन इशनु, धातोधातें मळवू; पर परिणामने त्यागीने, शुद्ध भावमां भळ. अजि० ॥३॥ षदकारक जीव द्रव्यमां, परिणमतां ज्यारे; त्यारे सेवन सत्य छ, भवपार उतारे. अजि० ॥ ४॥ निर्विकल्प उपयोगथी, नित्य सेवो देवा; निज निज जातिनी सेवना, मीठा शीव मेवा. अजि० ॥५॥ परम प्रभु निज आगळे, सेवनथी होवे; बुद्धिसागर सेवतां, निजरुपने जोवे. ३ अथ श्री संभवजिन स्तवन. राग उपरनो. संभव जिनवर जागतो, देव जगमां दीठो; अनुभव ज्ञाने जाणतां, मन लागे मीठो.. सं०॥१॥ प्रगटे क्षायिक लब्धियो, संभव जिन ध्याने; संभव चरणनी सेवना, करतां सुख माणे. सं० ॥२॥ संभव ध्याने चेतना, शुद्ध रूद्धि प्रगटे; वीर्योल्लासनी वृद्धिथी, मोह माया विघटे. सं० ॥ ३ ॥ संभव दृष्टि जागतां, संभव जिन सरिखो; For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलंजन संभव प्रभु, औक्यताए परखो. सं० ॥ ४ ॥ संभव संयम साधना, साची एक भक्ति; बुद्धिसागर ध्यानमां, ज्ञान दर्शन व्यक्ति. सं०॥५॥ ४ अथ श्री अभिनंदन जिन स्तवन. राग उपरनो. अभिनंदन अरिहंतनु, शरणुं एक साधु लोकोत्तर चिन्तामाणि, पामी दिल राचुं. अ०॥ १ ॥ लोकोत्तर आनंदना, परमेश्वर भोगी; शाता अशाता वेदनी, टळतां सुख योगी. अ० ॥२॥ 'उज्वल ध्याननी एकता, खेंची प्रभु आणे; पुद्गळने दूरे करी, शुद्धरुप प्रमाणे. अ० ॥३॥ पिंडस्थादिक ध्यानथी, प्रभु दर्शन आपे; बुद्धिसागर भक्तिथी, सत्य आनंद व्यापे. अ०॥४॥ ५ अथ श्री सुमतिजिन स्तवन. राग उपरनो. सुमति चरणमा लीनता, सातनयथी खरी छे समकित पामी ध्यानथी, योगियोए वरी छे. सुम० ॥१॥ नैगम संग्रह जाणजो, व्यवहार विचारो; रुजुसूत्र वर्तमानना, परिणामने धारो० सुम० ॥२॥ अनुक्रम चरण विचारने, नयो सप्त जणावे; शब्द अर्थ नय चरणने, अनेकांत ग्रहावे. सुम० ॥शा द्रव्य अने भाव भेदथी, चउ निक्षेप भेदे; For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुम० ॥४॥ तुज चारित्रने धारतो, आठ कर्मने छेदे. अजर अमर अरिहंत तुं, भेद भावने टाळे बुद्धिसागर चरणथी, शिवमंदिर म्हाले. सुम० ॥५॥ ६अथ श्री पद्मप्रभ जिन स्तवन, राग उपरनो. पद्मप्रभु जिनराज तुं, शुद्ध चैतन्य योगी; क्षायिक चेतन रुद्धिनो, प्रभु तुं वड भोगी. पम० ॥१॥ हरिहर ब्रह्मा तुं खरो, जड भावथी न्यारो अष्ट रुद्धि भोक्ता सदा, भव पार उतारो. पम० ॥ २ ॥ नाम रुपथी भिन्न तुं, गुण पर्याय पात्र; शुद्धरुप ओळखाववा, गुरु तुं हुं छात्र.. पद्म० ॥ ३ ॥ सत्ताथी सरखो प्रभु, शुद्ध करशो व्यक्ति; बुद्धिसागर भावथी, प्रभुरूपनी भक्ति. पद्म० ॥ ४॥ ७ अथ श्रीसुपार्श्वजिन स्तवन राग केदारो. श्री सुपार्श्व जिनेश्वर प्यारो, भवजलधिथी तारोरे; स्थिर उपयोगे दिलमा धार्यो, मोह महामल्ल हार्योरे. श्री० ॥ १ ॥ मन मंदिरमा दीपक सरखो, रूप जोइ जोइ हरखोरे, षद् कारकनो दिव्य तुं चरखो, परम प्रभुरूप परखोरे. श्री० ॥२॥ क्षायिक गुणधारी जयकारी, शाश्वत शिव सुखकारीरे; बुद्धिसागर चिघन संगी, जग जय जिन उपकारीरे श्री० ॥ ३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ अथ श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवन. राग केदारो. चंद्रमभु जिनवर जयकारी, हुं जाउं. बलिहारी रे केवळज्ञानने केवल दर्शन, क्षायिक समकित धारी रे. चं०॥१॥ अष्ट गुणो आठ कर्मने टाळी, ध्याने प्रभु शिव वरीया रे; भाव कर्म रागद्वेषने टाळी, भवसागर झट तयिा रे.चं०।२।। शुभाशुभ परिणाम हठावी, शुद्ध परिणाम धार्यो रे; ध्यान वडे गुणठाणे चढतां, मोहमल्ल खूब हार्यो रे. चं०॥३॥ चंद्रनी ज्योति पेठे निर्मळ, चेतन ज्योति दीपेरे। मुद्धिसागर चेतन ज्योति, सर्व ज्योतिने जीपे रे. चं०॥४॥ ९ अथ श्री मुविधिनाथ जिन स्तवन. राग केदारो. मुविधि जिनेश्वर सुविधिधारी, वरीया मुक्ति नारी रे. पर परिणामे बंध निवारी, शुद्ध दशा घट धारी रे. मु०॥१॥ यम नियम आसन जयकारी, प्राणायाम अभ्यासे रे; प्रत्याहार ने धारणा धारे, चेतन शक्ति प्रकाशे रे. सु० ॥२॥ ध्यान समाधि ए योगनां अंगो, पार लह्या जिन देवा रे बुद्धिसागर मुविधि जिनेश्वर, सेवा मीठा मेवा रे. सु०॥३॥ १० अथ श्री शितलजिन स्तवनम्. राग केदारो. शीतल जिनपति यति तति वंदित, शीतलता करनारा रे अज अविनाशी शुद्ध शिवंकर,माणथकी तुं प्यारा रे.शीत ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपादान शीतलता समरे, निमित्त सेवे साधुं रे; समताथी क्षणमां छे मुक्ति, शीतल रुपमां राचुं रे. शी० ॥२॥ उपशम क्षयोपशम ने क्षायिक, भावे समता सार रे; ज्ञानानंदी समता साधी, उतरशे भवपारं रे. शी० ॥३॥ सहजानंदी शीतल चेतन, अंतर्यामि देव रे; बुद्धिसागर शुद्ध रमणता, शीतल जिनपति सेव रे. शी० ||४|| ११ अथ श्री श्रेयांसजिन स्तवनम्. राग केदारो. श्री श्रेयांस जिन साहिब सेवा, शाश्वत शिवसुख मेवा रे; द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय, शुद्ध निरंजन देवा रे. श्री० ॥ १ ॥ योगी भोगी गत भय शोकी, कर्माष्टकथी भिन्न रे; शुद्धोपयोगी स्वपरप्रकाशक, क्षायिक निजगुण लीन रे श्री० ॥२॥ अनंत गुणपर्यायनी अस्ति, समये समये अनंति रे; पर द्रव्यादिकनी नास्तिता, समये अनंति वहंती रे. श्री० ॥३॥ अस्ति नास्तिमय शुद्ध स्वरुपी, संग्रहनयथी अनादि रे; व्यक्तपणु शब्दादिक नयथी, सर्व जीवोमां आदि रे. श्री० ||४|| अग्निथी जेम अनि प्रगटे, शुद्ध चेतनथी शुद्ध रे; बुद्धिसागर पुष्टालंबन, उपादान गुण बुद्ध रे. श्री० ॥ ५ ॥ १२ अथ श्री वासुपूज्यस्वामी स्तवन. राग केदारो वासुपूज्यनी पूजा कर्ता, पोते पूज्य ते काय रे, जिनवर पूजा ते निज पूजा, शुद्ध विचारे सदाय रे. बा० ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्विकल्प उपयोगे पूजा, भाव निक्षेपे सारी रे; योग असंख्ये पूजा भाखी,तरतम योग विचारी रे. वा०॥२॥ सालंबन पूजाथी मोटी, निरालंबन भाखी रे; रुपातीत पूजाथी मुक्ति, छे बहुसूत्र त्यां सारखी रे. वा||३|| अष्ट प्रकारी आदि पूजा, द्रव्यपूजा सुखकारी रे; एकांतवादी पूजन मिथ्या, समजो सूत्र विचारी रे. वा० ॥४॥ नय निक्षेपे पूजा भेदो, करशे ते सुख पामे रे; बुद्धिसागर पूज्यपणुं लही, ठरशे ध्रुवपद ठामे रे. वा० ॥५॥ १३ अथ श्री विमळ जिन स्तवनम्. श्री श्रेयांसजिन अंतर्यामी-ए राग. विमळ जिनेश्वर चेतन भावो, गावो बहु मन ध्यावो रे; संग्रह नयथी निर्मळ चेतन, शब्दादिकथी बनावो रे. वि० ॥१॥ प्रति प्रदेशे ज्ञान अनंतु, छति सामर्थ्य पर्याय रे; क्षयोपशमी क्षायिकभावे, लोकालोक जणाय रे. वि० ॥२॥ असंख्यप्रदेशी चिद्घन राया, अनंत शक्ति विलासीरे; आविर्भावे चेतन मुक्ति, नासे सकळ उदासीरे. वि० ॥ ३ ॥ अनंत गुणनी शुद्ध क्रियानो, समये समये भोगीरे; बुद्धिसागर शुद्ध क्रियाथी, सिद्ध सनातन योगीरे. वि० ॥ ४ ॥ १४ अथ श्री अनंतनाथ जिन स्तवनम्. राग उपरनो. अनंत गुण पर्यायनुं भाजन, अनंत प्रभु मन ध्यावरे; परपरिणमता दूर हठावी, शुद्ध रमणता पावरे. अ० ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानस्वरुपी ज्ञेयस्वरुपी, परज्ञेयादिक भिन्नरे; ज्ञेय अनंता ज्ञान अनंतु, ज्ञाता ज्ञानाभिन्नरे. अ० ॥२॥ गुण अनंता समये समये, व्ययोत्पत्तिता पावरे द्रव्यरुप त्रण कालमां ध्रुव छे, केवल ज्ञानी गावरे. अ० ॥ ३ ॥ अनंत गुणमां अस्ति नास्तिता, समये समये जाणोरे, अस्ति नास्तिथी सप्त भंगीनी, उत्पत्ति चित्त आणोरे अ०॥ ४॥ एक समयमा सर्व भावने, केवळ ज्ञानी जाणेरे; सप्त भंगीथी धर्म प्रबोधे, उपदेशक गुणठाणेरे. अ० ॥ ५ ॥ विशेष स्वभावे गुण अनंता, भेद परस्पर पावरे; बुद्धिसागर जाणे तेना, मनमां अनंत प्रभु आवेरे. अ० ॥ ६ ।। १५ अथ श्री धर्मनाथ जिन स्तवन. राग उपरनो. धर्म जिनेश्वर परमकृपालु, वंदी भव भय टाळुरे; धर्म जिनेश्वर ध्यान कर्याथी, अन्तरमा अजवाळु रे. ध० ॥ १ ॥ वस्तु स्वभाव ते धर्म प्रकाशे, केवळ ज्ञाने साचोरे; नय निक्षेपे धर्मने समजी, शुद्ध स्वरुपमा राचोरे. ध० ॥२॥ धर्मादिक षड् द्रव्यने जाणे, अनन्तगुण पर्यायरे; ज्ञेयोपादेय हेयना ज्ञाने, वस्तुधर्म परखायरे. ध० ॥ ३ ॥ चेतनता पुद्गल परिणामी, पुद्गल कर्म करेछे रे चेतनता निजरुप परिणामी, कर्म कलंक हरेछे रे. ध० ॥ ४ ॥ जड पुद्गळथी न्यारो चेतन, ज्ञानादिक गुण धारीरे; बुद्धिसागर चेतन धर्मे, पामे सुख नरनारीरे. ध० ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ अथ श्री शान्ति जिन स्तवन. राग केदारो. शान्ति जिनेश्वर अलख अरुपी, अनन्त शान्ति स्वामीरे; निराकार साकार दो चेतना, धारकछो निर्नामीरे. शां० ॥ १ ॥ परम ब्रह्मस्वरुपी व्यापक, ज्ञानथकी जिनरायारे; व्यक्तिथी व्यापक नहि जिनजी, प्रेमे प्रणमुं पायारे. शां० ॥२॥ आनंदघन निर्मळ प्रभु व्यक्ति, चेतन शक्ति अमंतिरे; स्थिरोपयोगे शुद्ध रमणता, शान्ति जिनवर भक्तिरे. शां० ॥ ३ ॥ कर्म खर्याथी साची शान्ति, चेतन द्रव्यनी प्रगटेरे; शान्ति सेवे पुद्गळथी झट, चेतन रुद्धि वछूटेरे. शान्ति० ॥ ४॥ चउ निक्षेपे शान्ति समजी, भाव शान्ति घट धारोरे; बुद्धिसागर शान्ति लहीने, जल्दी चेतन तारोरे. शान्ति० ॥५॥ १७ अथ श्री कुंथुजिन स्तवन. राग केदारो. कुंथु जिनेश्वर करुणानागर, भावदया भंडाररे; चिदानंदमय चेतन मूर्ति, रुपातीत जयकाररे. कुंथु० ॥ १ ॥ प्रण भुवननो कर्त्ता ईश्वर, कर्ता वादी पक्षरे; सृष्टि कर्ता नही छे इश्वर, समजावे जिन दक्षरे. कुं० ॥२॥ निमित्तथी का इश्वरमां, दोषो आवे अनेकरे; विना प्रयोजन जगनो कर्ता, होय न इश्वर छेकरे. कुं० ॥३॥ सृष्टि कार्य तो हेतु उपादान, कोण कहो मुविचारोरे; उपादान इश्वरने माने, दोष अनेक छे भारीरे. कुं० ॥ ४॥ सृष्टिरुप इश्वर ठरला तो, जड़ रूप थयो इशरे; For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगम युक्ति विचारे सायुं, समनो विश्वावीसरे.. कुं० ॥ ५ ॥ पर पुद्गळ करता नहि इश्वर, सिद्ध बुद्ध निर्धाररे; स्वाभाविक निजगुणना कर्ता, इश्वर जग जयकाररे. कुं० ॥६॥ चेतन इश्वर थावे सहेजे, ध्यान करी एक रुपरे, बुद्धिसागर इश्वर पूजो; चिदानंद गुण भूपरे. कुं० ॥ ७ ॥ १८ अथ श्री अरनाथ जिन स्तवन. ___ श्रीरे सिद्धाचण भेटवा-ए राग. श्री अरनाथजी वंदीए, शुद्ध ज्ञान प्रकाशी; जड चेतन भेद ज्ञानथी, टळे सकळ उदासी. श्री अ० ॥१॥ संग्रहनय एकान्तथी, एक सत्ता माने; सर्व जीवनो आतमा, एक दील पिछाणे. श्री अ० ॥ २ ॥ व्यवहारनय विशेषथी, व्यक्ति बहु देखे; व्यक्ति विना सत्ता कदी,कोइ नजरे न पेखे. श्री अ० ॥ ३ ॥ सामान्यने विशेषनी, एक द्रव्ये स्थिति व्यक्ति अनंता आतमा, अनेकान्तनी रीती. श्री अ० ॥ ४ ॥ माया पुद्गळ भावथी, छती शास्त्रे भाखी; चैतन्य भावे जाणजो, माया अछती दाखी. श्री अ०॥५॥ एकान्ते मिथ्या सदा, नित्यादिक भावा; बुद्धिसागर धर्म छे, स्याद्वाद स्वभावा. श्री अ०॥६॥ १९ अथ श्री मल्लिजिन स्तवनम्. हे सुखकारी आ संसार थकी जो मुजने उद्धरे-ए राग. उपयोग धरी मल्लि जिनेश्वर प्रणमी शीव सुख धारीए; तजी बाह्य दशा शुद्ध रमणता योगे कर्म निवारीए. (टेक ) For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभु मुज सत्ता छे तुज समी, निर्मळ व्यक्ति मुज चित्त रमी; ते अशुद्ध परिणति तुर्त दमी. उपयोग० ॥ १ ॥ निज भाव रमणता रंगाशें, अंतर्यामी प्रभुने गारों; प्रभु व्यक्ति समा अन्तर थाशुं. उपयोग० ॥२॥ चेतनता निजमां रंगाशेः प्रभु तुज मुज अंतर झट जाशे; सहजानंदी चेतन थाशे. उगयोग० ॥ ३॥ प्रभु वस्तुधर्म तन्मय थावं, मुज सत्ताधर्म प्रगट पाएँ गुणठाणे गुण सहु निपजावं. उपयोग० ॥ ४ ॥ प्रभुध्याने शुद्धदशा जागे, वेगे जयडको जग वागे; बुद्धिसागर जिनवर रागे. उपयोग० ॥ ५ ॥ २० अथ श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवनम्. श्री संभवजिन राजजीरे, ताहरूं अकळ स्वरुप जिनवर पूजो-ए राग. मुनिसुव्रतजिन ताहरुरे, अलख अगोचर रूप. मनमां ध्या; असंख्यप्रदेशी आतमारे, परमेश्वर जग भूप, मनमा० ॥१॥ ध्यावु ध्यावूरे अनुभवयोगे, शुद्धध्याने ध्येयस्वस्वरूप मन० द्रव्य क्षेत्र काल भावीरे, चेतन व्यक्ति शुद्ध. मनमां० परद्रव्यादिक नास्तितारे, क्षायिक केवळ बुद्ध. मन० ॥२॥ सादि अनंति भंगीथीरे, पाम्या परमानन्द.. मन. प्रदेश प्रदेश प्रतिज्ञानमारे, भासे ज्ञेय अनंत. मन० ॥ ३ ॥ परद्रव्य पर्यायानंतनुरे, एक प्रदेश करे तोल मन० एक समयमा ज्ञानथीरे, चेतन द्रव्य अमोल. मन० ॥ ४ ॥ पर पुद्गळ दूरे करीरे, थया प्रभु कृतकृत्य. मनमा० चेतन व्यक्ति समारवारे, तुज आलंबन सत्य. मन० ॥ ५ ॥ त्रियोगे प्रभु आदर्योरे, अनंतशक्ति नाथ, मन० For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकमेक तुज ध्यानथीरे, थइ झालं तुज हाथ. मनः ॥६॥ अरूपी अरूपीने मळेरे, साची जीवसगाइ. मन० बुद्धिसागर जागीयोरे, आवी मुक्ति वधाइ. मनः ॥७॥ २१ अथ श्री नमिनाथ जिन स्तवनम्. थांपर वारी मारा साहिबा काबील मत जाजो-ए राग. नमि जिनवर नमुं भावथी, मारे मोघा मोले; धर्मादि द्रव्य शक्तियो, एक गुणना न तोले. शुद्ध ध्यानमा आवीने, रगोरगमां वसीयो; धातोधात मळी खरी, लेश मात्र न खसीयो. ॥२॥ स्व स्व जाति मळी खरी, जड भाव विदूरे; ध्याता ध्येयना तानमां, सत्य सुखडा स्फुरे. अनुभव ताळी लागतां, आनंद खुमारी; परम प्रभु आदर्शमा, जोइ जाति में मारी. ॥४॥ शुद्ध द्रव्य जेवू ताहरूं, तेवू मारुं दीखें सत्ताए सरखा प्रभु, मन लाग्युं मीटुं. तारुं ध्यान ते माहरु, दोष मुजथी नाशे; शुद्ध दशाना ध्यानमां, एकमेकता भासे. एकमेकता योगमा, मनमंदिर आण्या; ताण्या जाओ नहि व्यक्तिथी, पण ज्ञाने ताण्या. ॥७॥ शुद्ध ज्ञेयाकारी ज्ञानथी, एकरुपे भळीया; तुज सेवाकारव्यक्तिथी, वेगे दोषो टळीया. ॥८॥ निर्विकल्प उपयोगथी, शुद्ध रूपमा मळशं; बुद्धिसागर शिवमां, ज्योत ज्योतमां मलगुं. For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ २२ अथ श्री नेमिनाथ जिनस्तवन, राग उपरनो. राजुल कहे छे शामळा, केम पाछा बळीयाः मुजने मूकी नाथजी, कोनाथी हळीया. पशुदयों मनमां वशी, केम म्हारी न आणो; स्त्रीने दुःखी करी प्रभु, हठ फोगट ताणो. लग्न न करवां जो हतां, केम आंही आव्या; पोतानी मरजी विना, केम बीजा लाव्या. रुषभादिक तीर्थंकरा, गृहवासे वसीया; तेनाथी शुं तमे ज्ञानी के, आवी दूरे खसीया. शुकुम जोतां न आवडया, कहेवाता त्रिज्ञानी; बनवानुं एम जो हतुं, वात पहेलां न जाणी. जादवकुळनी रीतडी, बोल बोली न पाळे; आरंभी पडतुं मुंके, ते शुं ? अजुवाळे. काळा कामणगारडा, भीरु थइ शुं ? वळीया; हुकमधी पशुओं दया, आण मानत बळीया. विरागी जो मन हतुं, केम तोरण आव्या; आठ भवोंनी मीतडी, लेश मनमां न लाव्या. मारी दया करी नहि जरा, केम अन्यनी कर शो; निर्दय थइने वाल्हमा, केम ठामे ठरशो. विरहव्यथानी अग्निमां, बळती मुने मूकी; काळाथी करी मीतडी, अरे पोते हुं चूकी. जगमां कोइ न कोइनुं, एम राजुल धारे; रागीणी थइ बैरागीणी, मन एम विचारे. संकेत करवा प्यारीने, माणपति अहिं आव्या For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ || 3 || ॥ ३ ॥ ॥ ४॥ ॥ ५॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ || 2 || ॥९॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिणदयाथी बहु दया, प्रभु मुज पर लाव्या. ॥१२॥ भवनां लग्न निवारवा, जान मुक्तिनी आणी आंखे आंख मिलावीने, मने मुक्तिमा ताणी. ॥१३॥ हुँ भोळी समजी नही, साची जगमां अबळा; नाथे नेह निभावीयो, धन्य स्वामी सबळा. ॥१४॥ भोगावळीना जोरथी, गृह वासमां फसीया; रुषमादिक तीर्थकरा, ललना संग रसीया. ॥१५॥ भोगावळीना अभावथी, मारो संग न कीघो; ब्रह्मचारी मारा स्वामिजी, जश जगमां लीधो. ॥१६ ।। स्त्रीने चेतावा आवीया, स्वामी उपकारी; आठ भवोनी पीतडी, पूरी पाळी सारी. हाथोहाथ न मेळव्यो, स्वामी गुणरागी; स्वामीना ए. कृत्यथी, हुं थइ वैरागी. ॥१८॥ त्रिज्ञानीना कार्यमां, कांइ आवे न खामी; राजुल वैरागण बनी, शुद्ध चेतना पामी. ॥ १९ ॥ जूठा सगपण मोहथी, मोहनी ए माया; भ्रांतिथी जगजीवडा, नाहक ललचाया. ॥२०॥ नर के नारी हुँ नही, पुद्गळथी हुं न्यारी पुद्गळ काया खेलमां, शुद्ध बुद्ध हुं हारी. ॥२१॥ नामरुपथी भिन्न हुं, एक चेतन जाति; क्षत्रियाणी व्यवहारथी, कोइ मारी न ज्ञाति. ॥२२॥ अनंतकाळथी आथडी, संसारमा दुःखी; विषयविकारो सेवतां, कोइ थाय न सुखी. ॥ २३ ॥ जड संगे परतंत्रता, मोह वैरीए ताणी; उपकारी साचा प्रभु, सत्य पंथमा आणी. ॥२४॥ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५. बनी वैरागण नेमिनी, पासे झट आवी; उपकारी स्वामी कर्या, संयम लय लावी. शोभा सतीनी मोटकी, जग राजुल पामी; रहनेमिने बोधथी, थइ गुण विश्रामी. एक टेकी थइ राजुले, भाव स्वामी कीधा; अद्भुत चारित्र धारीने, जगमां जश लीधा. साची भक्ति स्वामिनी, अंतरमां उतारी; नवरस रंगे झीलती, लहे सुख खुमारी. चेतन चेतना भावथी, एक संगे मळीयां; क्षपकश्रेणी निस्सरणीथी, शिवमंदिर भळीयां. कर्म कटक संहारीने नेम राजुल नारी; शिवपुरमा सुखीयां थयां, बंदु वार हजारी. शुद्ध चेतन संगमां, शुद्ध चेतना रहेशे; बुद्धिसागर भक्तिथी, शाश्वत सुख लद्देशे. २३ अथ श्री पार्श्वजिन स्तवन. राग उपरनो. पार्श्व प्रभु प्रभुतामयी मारे मोडं शरण; मेरु अवलंबी कहो, कोण झाले तरणु. भाव चिंतामणी तुं प्रभु, शाश्वत सुख आपे; as निक्षेपे ध्यावतां, भवनां दुःख कापे. तारुं मारुं अंतरुं, एकलीनता टाळे; सादि अनंति संगथी, दुःख कोइ न काळे. शुद्ध दशा परिणामथी, निशदिन तुज भेटु; शुद्ध दृष्टिथी देखतां लेश लागे न छेडं. For Private And Personal Use Only ॥ २५ ॥ 11-28 11 ॥। २७ ॥ 11 24 11 ॥ २९ ॥ 11.30 11 ॥ ३१ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुज मुज अंतर भागशे, संयम गुण युक्ति क्षेत्र भेदने टाळीने, मुख लहिशुं मुक्ति, मुक्तिमा मळगुं प्रभु, एम निश्चय धार्यो; ध्याने रंग वधामणां, मोह भाव विसार्यो. तुज संगी थइ चेतना, शुद्ध वीर्य उल्लासी ? बुद्धिसागर जागीयो. चेतन विश्वासी. ॥६॥ ॥७॥ २४ अथ श्री महावीर जिनस्तवनम् राग उपरनो. त्रिशलानंदन वीरजी, मनमंदिर आवो, भाव वीरता माहरी, प्रभु प्रेमे जगावो. ॥१॥ भाव वीर संचारथी, प्रभु मोह न आवे; द्रव्यवीर संचारमा, मोहनुं जोर फावे. ॥२॥ च्यार निक्षेपे ध्याइए, भाव वीर्यना धारी; समकित गुण ठाणा थकी, प्रभो तुं संचारी. भाव वीर्य प्रगटाववा, आलंबन साचुं; क्षयोपशम क्षायिकमां, मन मारु राच्यु. क्षयोपशमे ते हेतु छे, क्षायिक गुण काज; क्षायिक वीर्यता आपीने, राखो मुज लाज. असंख्य प्रदेशे क्षायिक, भाव वीर्य अनंत; योग ध्रुवता धारीने, लहे वीर्यने संत. मति संगी पुद्गळ विषे, जे वीर्य कहातुं; योगतणी ध्रुवता थकी, ध्याने लेश न जातुं. ॥७॥ भाव वीर प्रभु आतमा, अंतर् गुणभोगी; लघुता एकता लीनता, साधनथी योगी. For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९॥ भाव वीर्य निजमां भळ्युं, वाग्युं जितनगारुं; फरक्यो विजयनो वावटो, क्षायिक सुख सारं. आनंदमंगळ जीवमा, ज्ञान दिनमणि प्रगव्यो; दर्शनचंद्र प्रकाशीयो, तव मोहज विघटयो. अनंतगुण पर्यायनो, जीव भोगी सवायो बुद्धिसागर मंदिरे, चेतन झट आयो. ॥ १० ॥ ॥११॥ "कलश" ओछव रंग वधामणां, प्रभु पासने नामे-ए राग. चोवीश जिनवर भक्तिी , गाया गुण रागे; गाशे ध्याशे जे प्रभु, ते अन्तर जागे. अन्तरना उद्योतथी, होय मंगळ माळा; मनमंदिर प्रभु आवतां, टळे मोहना चाळा. जिनभक्ति निज रुप छे, चेतन उपयोगी; अनंतगुणपर्यायनो, समये होय भोगी. झळहळ ज्ञाननी ज्योतिमां, जड चेतन भासे; चेतन परमेष्ठी सदा, एम ज्ञानी प्रकाशे. ॥४॥ चेतननी शुद्ध भक्तिथी, शुद्ध चेतन पर अनेकान्तनय दृष्टिथी, प्रभु गाइने हरखं. ॥५॥ संवत ओगणीस चोसठे, पुनम दिन सारो; अषाड शुक्ल पक्षमां, गाम माणसा धारो. सोमवार चढता दिने, चोवीस जिन गाया; अन्तरना उपयोगथी, सत्य आनंद पाया. ॥७॥ सुखसागर गुरु प्रेमथी, बुद्धिसागर गावे; गाशे ध्यावशे जे भवी, ते शिवमुख पावे. 1॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ विंशति विहरमान जिनस्तवन प्रारंभ. ___॥ १ ॥ श्री सीमंधर जिन स्तवन-राग उपरनो. सीमंधर जिन रूपमा, हुं तो रहियो राची; भाव कर्मने टाळवा, शुद्ध परिणति साची. भाव कर्मना नाशथी, द्रव्य कर्म टळे छ नायक मरवाथी यथा, सैन्य पार्छ वळे छे. ॥२॥ राग द्वेष भाव कर्म छ, द्रव्य कर्म ग्रहावे; राग द्वेष टळवा थकी, द्रव्य कर्म न आवे. निश्चय शुद्ध चरित्रथी, राग द्वेष टळे छ । राग द्वेष टळवा थकी, निज लक्ष्मी मळे छे. ॥४॥ चेतन शुद्ध स्वभावमां, लीनता क्षण थावे; त्यारे सहजानंदनो, अनुभव मन आवे. ॥५॥ क्षयोपशम ज्ञाने करी, प्रभु श्रेणि चढियो; शुक्ल ध्यान महा शस्त्रथी, मोह साथै लाढियो. जय लक्ष्मी अंगी करी, नव रुद्धि पायो बुद्धिसागर ध्यानथी, प्रभु अंतर आयो. ।।७॥ अथ २ युगमंधर जिन स्तवन. थांपरवारी वाल्हमा काबील मतजाजो-ए राग. युगमंधर जिन सेवना, मुज मनमां मीठी; स्याद्वाद दृष्टि थकी, जिन सेवा में दीठी. ॥१॥ जेवू तारु रूप छे, सेवा पण तेवी; योगातीतनी सेवना, योगथी केम कहेवी. ॥२॥ लेश्वातीतनी सेवना, लेश्याथी न थाशे; For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९ क्रियातीतनी सेवना, केम करीने कराशे. शुद्ध भक्तिथी सहु थशे, भक्तिथी प्रभु पासे; बुद्धिसागर सेवना, शुद्ध भक्तिथी याशे. अथ ३ बाहुजिन स्तवनम् राग उपरनो. बाहु जिनेश्वर बापजी, एक शरणं तमारु; भाव शरण प्रभुनुं कर्यु, मन मान्युं मारुं. शुद्ध स्वभाव जे ताहरो, नित्य ते अनुसरवो; परभाव दूरे त्यागीने, स्वामी दिल धरवो. मोहनी शिख निवारतां, शुद्ध शरणं थाशे; व्यक्ति भाव शुद्धात्मनो, त्यारे शिघ्र कराशे. उपशम आदिभावथी, शरणं तुज साचुं; बुद्धिसागर भावथी, प्रभु शरणथी राचं. अथ ४ सुबाहु जिन स्तवनम्. राग उपरनो For Private And Personal Use Only ॥ ३ ॥ || 8 || ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ स्वामी ॥१॥ स्वामी सुबाहु शोभता, क्षायिक गुणधारी; पारिणामिक भावथी. जीवन जयकारी. औदायिक भाव निवारीयो, शुद्ध व्यक्ति समारी; अकळ कळा जिनदेवनी, अंतरमां उतारी. स्वामी ० ॥२॥ ध्याने प्रभु दिल आवीने, मारुं वान वधारो; बुद्धिसागरने प्रभु, तुं प्राणथी प्यारो. स्वामी ०||३|| Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . अथ ५ सुजातप्रभु स्तवनमः राग उपरनो. स्वामी सुजात सोहामणा, अंतरमा उतार्या क्रोधादि चार वैरियो, प्रभु देखी हार्या. स्वामी०॥१॥ ज्यां प्रभु ध्याननी जांगुली, मोहादि न प्रचार; प्रभुस्मरण शुद्ध भावना, टाळे विषयविकार स्वामी०॥२॥ उपशमादिक भावना, शाने सम्यग् भासे; बुद्धिसागर भक्तिथी, शाश्वत मुखथाशे. स्वामी०॥ ३ ॥ ॥१॥ अथ ६ स्वयंप्रभु स्तवनम्. राग उपरनो. स्वयं प्रभु जिन ज्ञानथी, लोकालोक प्रकाशी; क्षायिक नव रुद्धि लही, टाळी सकल उदासी. शक्ति अनंति आत्मनी, निर्मळ घट प्रगटी; मोहदशा जे अनादिनी, क्षणमाह विघटी. समवसरणमा बेसीने, शुद्ध तस्य प्रकाश्युं; श्रद्धा समकित योगथी, भविजन मन वास्युं. तुज वाणी अवलंबने, भवजलधि तरशं; बुद्धिसागर टेकथी, निर्मल मुख वरशं. ॥२॥ 1-४॥ अथ ७ रुपभानन स्तवनम्, भदी यमुनांके तीर जडे दोय पंखीयां-ए राग. रूषभानन जिनराज कृपालु जगधणी, भावतिीमर हरवा प्रभु अगमां दिनमणि For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नत्रयिना नाथ सेवक हाथ झालजो, जाणी बाल तमारो ज प्रेमे पाळजो. लोकोत्तर तुं देव खरेखर जाणीयो, वीतराग भगवंत हृदयमा आणीयो; तव आज्ञामां धर्म खरेखर में लह्यो, वस्तु धर्म स्याद्वाद खरो दिल सदह्यो. ॥२॥ भाव धर्म चिन्तामणि पुण्ये में लघु, काल अनादि मिथ्याविष झट दूर थयुं; भाव धर्म शुद्ध चरण कृपा करि आपजो, शाश्वत मुखमय क्षायिक पदमा थापजो. ॥३॥ गुणस्थानक निस्सरणीए प्रभुजी चढावजो, परम प्रभुनां दर्शन सत्य करावजो; तारक नाम धरावी शामाटे न तारता, साचा स्वामी सेवक दोष निवारता.. ॥४॥ केवल ज्ञानथी छानुं न बहु हुं शुं कहुं, शुद्ध स्वरूप तमारं हृदयमां हुं वहुं; बुद्धिसागर अकळ कळा धणी तारशो, जाणी बाळ तमारो जगत्थी उद्धारशो. अथ ८ अनंतवीर्य स्तवनम्. __वंदो धीर जिनेश्वरराया-ए राग. अनंतवीर्य जगमां जयकारी, भाव दया उपकारी रे; तार्यो जगमां नर ने नारी, वाणीनी बलिहारी रे. अ० ॥ १ ॥ गृहावास छंडी अनगारी, केवळ ज्ञानना धारी रे; जगहितकारी कर्म निवारी, शुद्ध रमणता सारी रे. अ०॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चत रूपधारी सुखनी क्यारी, तव मूर्ति गुणकारी रे कनककमळी पृथ्वी विहारी, अकळकळा प्रभु तारी रे. अ० ॥३॥ क्षयोपशम बळ योगे ध्याने, क्षायिक वीर्य वधारी रे; . बुद्धिसागर शिव संचारी, सिद्ध बुद्ध अवतारी रे. अ० ॥ ४॥ अथ ९ सूरप्रभ स्तवनम्. राग केदारी. दोष अढार रहित सुरमभ, अर्हन् जग जयकारीरे; हास्य अरति रति अज्ञान ने भय, शोक दुगंछा निवारीरे. दो. ? राग द्वेष अविरति काम टाळी, मिथ्या निद्रापहारीरे; दानादिक अंतराय निवारी, देव थया सुखकारीरे. दो. २ देवनां लक्षण साचां तुजमां, वीतराग पद धारीरे; बुद्धिसागर देव लह्यो में, वंदन वार हजारीरे. दो. ३ अथ १० विशाळ जिन स्तवनम्. राग केदारो. वंदु भावे विशाळ प्रभुजी, जेनी मीठी वाणीरे साफर हारी तृणमा प्रवेशी, पीले मानव घाणीरे, वं० ॥ १॥ कारण पंचयी कार्यनी सिद्धि, कर्मोघम भावीभावरे काल स्वभाव ए पंचथी जाणो, बनतो कार्य बनावरे. वं० ।।२।। एकान्तपक्षे मिथ्यावादी, त्रणसो त्रेसठ वादीरे; पंच कारणे कार्यनी सिद्धि, माने स्याद्वाद वादीरे. वं० ॥ ३ ॥ तुज शासन अमृतरस पी), मिथ्या विष दूर की रे; बुद्धिसागर सम्यग् ज्ञाने, परमानंद पद लीधुरे. वं० ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ ११ वज्रधर स्तवनम. साहिब सांभळोरे-ए राग. वज्रधर प्रभुरे, वेगे मुज घर आवो दर्शन योगथी रे, करशु भक्ति वधावो. ॥१॥ स्वामी तुं मळे रे, भवोभव भावठ भागी; प्रभु गुण ओळखी रे, थइयो तुज पद रागी. ॥२॥ गुणथी जे हळ्यो रे, ते तो कहो केम छोडे; सत्ता तव समी रे, व्यक्तिथी प्रभु जोडे. तन्मयता लही रे, प्रभुनी संगे रहीरों; बुद्धयब्धि एम भणे रे, प्रभुगुण व्यक्तिथी लहिशु. ॥४॥ - ॥१॥ अथ १२ चंद्राननप्रभु स्तवन. राग उपरनो. चंद्रानन प्रभु रे, केवल ज्ञानना दरीया; अनंतगुण पर्यायथी रे, संमये समये भरीया. उत्पत्ति व्यय ध्रुवता रे, समये समये साची; आत्मद्रव्यमा तें कही रे, तेमां रहीयो हुं राचीः धन्य धन्य वीतरागता रे, शुद्धामृतरस भोगी; मारा मन वसी रे, साधु निजगुण योगी. शरणुं ताहरुं रे, कीधुं ज्ञानथी साचं बुद्धि दिल वस्युं रे, अहनिश तुज गुण राचुं. ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ - For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ १३ चंद्रबाहु स्तवनम. तुमे बहु मंत्रिरे साहिवां-ए राग. चंद्रबाहु जिन सांभळो, मारो करशो उद्धार; शरणागतनेरे तारतां, थाशे बहु उपकार. चंद्र० ॥१॥ प्रभु तुज भक्त अनेक छे, मारे तो मन एक पुष्टालंबन तुं वडो, मनमां तारीरे टेक. चंद्र० ॥ २ ॥ उपकारी अरिहंतजी, तारो त्रिभुवन राज; करुणा करीने रे तारतां, रहेशे सेवक लाज. चंद्र० ॥ ३ ॥ शुद्ध रूप तारं खरं, स्मरतां टाळे रे क्लेश; बुद्धिसागर ध्यानथी, आनंद होय हमेश. चंद्र०॥ ४ ॥ अथ १४ भुजंगदेव स्तवनम्. राग उपरनो. भुजंगदेव भावे भजो, भय सघळ। हरनार; पुरुषोत्तम भगवान छो, भाव दयाना भंडार. भु०॥ १ ॥ चोत्रीश अतिशय शोभता, वाणी गुण छे पांत्रीश; शासनपति त्रिभुवन धणी, परमब्रह्म जगदीश. भु० ॥२॥ स्मरण मनन तारुं कर्यु, उपयोगे धर्यो देव; बुद्धिसागर पारखी, तारी साची छे सेव. भु०॥३॥ अथ १५ ईश्वर जिन स्तवनम्. प्रथम जिनेश्वर प्रणमीये-ए राग. अरिहंत ईश्वर मन वश्यो, स्वामी शिवपुर साथ; तारक त्रिभुवन पति तमे प्रेमे झालजो, For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाळकनो झट हाथ. अ० ।। १ ।। जय जय जग चिंतामणि, जग गुरु ज्ञानावतार; तुज सरखा स्वामी मुज मस्तक गाजता, शो छे कर्मनो भार. अ० ॥२॥ चार निक्षेपे तुं वडो, शरणागत रखवाल; समवसरणमा चार मुखे द्यो देशना, करता मंगळ माळ. अ० ॥ ३ ॥ उत्पत्ति व्यय ध्रुवता, शुद्ध निरंजन देव; बुद्धिसागर तन्मयता प्रभु साथमां, शुद्ध स्वभावे छे सेव. अ० ॥ ४॥ अथ १६ नमि जिनस्तवनम्. राग उपरनो. नमि जिनवर प्रभु चरणमा, निर्मल चेतन लीन; नीचा नमता ऊंचा चढता सिद्धिमां, क्षायिक भावे पीन. न० ॥१॥ ज्ञानदर्शन चारित्रनो, तुजमां आविर्भाव; रत्नायिनी ऐक्यता चरणसेवन थकी, बनशे शुद्ध बनाव. न० ॥२॥ चरणसेवन ते ध्यान छे, दर्शन ज्ञान स्वरूप; बुदिसागर चरणशरण एकलीनता, आनंदघन चिद्रूप. न० ॥३॥ अथ १७ श्री वीरसेन जिनस्तवनम्. राग उपरनो. वीरसेन जिन विनवू, वीनतडी दिल धार; भवदुःख वारीने तारक शिव सुख दीजीए, कर मोटो उपकार. वी०१ अनंत गुण भोगी तुं प्रभु, करुणावंत महंत; For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रति प्रदेशे क्षायिक सुख अनंतथी, भरियो हुँ भगवंत.पी० ॥ २ ॥ अनंत गुणधीरे धुक्ता, परपुद्गळ नहि संग; कारण कार्यपणे समये गुण परिणमे, निर्मळ प्रभु गुणचन.पी०॥३॥ उपयोगी सहु द्रव्यनो, लोकालोक प्रत्यक्ष बुद्धिसागर अंतर अनुभव, चिदानंद गुण दक्ष. वी० ॥ ४ ॥ अथ १८ महाभद्र जिनस्तवनम. ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरीरे-द रांग. महाभद्र जिनवर प्रभु उपदिशेरे, द्रव्य विशेष स्वभाव; परिणामिकता कर्तृता तथा रे, ज्ञायकता सुख दाव. महा॥१॥ ग्राहकता भोक्तृता जीवमां रे, रक्षणता जयकार; व्याप्याव्याप्यकता सापेक्षथी रे, अनेकान्त मत पार. म०॥२॥ आधाराधेयता तेम जाणजो रे, जन्य जनकता बोध अगुरु लघुता विभुता हेतुता रे, कारकता घट शोध. म०॥॥ प्रभुता भावुकताऽभावुकता रे, स्वकार्यपणु सुखकार; स प्रदेशपणुं तेम जाणजो रे, गति स्वभाष विचार. म०॥४॥ स्थिति स्वभाव ने अवगाहकपणुं रे, अखंडता निर्धार; अचल असंगपणु अक्रियतारे, सक्रियता जयकार. मं ॥५॥ ध्यामे पारो दिलमां भावने रे, निर्मळ रूप पमाय; बुद्धिसागर वस्तु स्वभावमां रे, शाश्वत धर्म सदाय. म०॥६॥ अथ १९ देवयशा जिनस्तवनम्. ___अभिनंदन जिन दर्शण-ए राग. देवयशा जिन दर्शन मीठडं, नय गम भंग विचार तत्त्व स्वरूपेरे वस्तु विचारता, दर्शन जग जयकार.दे ॥॥ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिपूर्णाशेरे वस्तु देखता, न रहे किंचित् भेद अल्पांशेजन देखे वस्तुने, तेना मनमां रे खेद. दे० ॥२॥ षड् दर्शन पण जिन दर्शन विषे, सापेक्षेरे समाय; अनेकांत जिन दर्शन सेवतां, चेतन धर्म पमाय. दे० ॥शा स्याद्वादवादीरे धर्मने पारखे, पामे दर्शन धर्म; बुद्धिसागर निर्मल दर्शने, अनंत शाश्वत शर्म. दे० ॥४॥ अथ २० अजीतवीर्य स्तवनम्. गिरुआरे गुण तुमतणा-ए राग. अजीतवीर्य जिनवर नमुं, जग बंधव जग त्रातारे; दीनदयालु दिनमणि, निष्कामी सुखदातारे. अजी. ॥१॥ व्यक्तिभाव अनंतता, गुण पर्याय विलासीरे; अगुरु लघु अवगाहना, लोकांते नित्य वासीरे. अ० ॥२॥ द्रव्य भाव बे कर्मने, ध्यान थकी ते बाळ्युरे; सादि अनंति भंगथी, अंतर्धनने वाळ्युरे. अ०॥ ३ ॥ असंख्य प्रदेशे निर्मली, ज्योति अनंत प्रकाशीरे; केवल ज्ञान प्रयाणथी, बनियो हुँ विश्वासीरे. अ० ॥४॥ रंगायो तुज दर्शने, उपयोगे घट जागुंरे। समकित श्रद्धा योगी, जित नगारं वाग्युरे. अ० ॥ ५ ॥ अनुभव वाजां वागीयां, ध्यान मेघ खुब गाज्योरे; दानादिक अंतराय तो, मनमा अतिशय लाज्योरे. अ० ॥६॥ निर्मळ सुख वधामणुं, चेतन गृहमा आव्युरे; बुद्धिसागर ध्यानथी, शाश्वत शर्म पमायुरे. अ० ॥ ७॥ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलश. गाया गायारे विश जिनवरना गुण गाया; विहरमान जिनवर गुण गातां, अनुभवानंद पायारे. वि० ॥१॥ अंतरना उद्गारथकी में, जिनवर भक्ति कीधी; नवधाभक्ति जिनवरनी छे, भक्ति शक्ति प्रसिद्धिरे. वि० ॥२॥ मन वाणी कायाना दोषो, भक्ति करतां नासे; रत्नत्रयीनी लक्ष्मी प्रगटे, परम प्रभुता प्रकाशेरे. वि०॥३॥ संवत ओगणीस चोसठ साले, आषाढ पंचमी सारी; कृश्न पक्ष शनिवारे रचना, स्थिरता जय करनारीरे. वि० ॥४॥ विहरमाननी विंशी गाशे, ध्यावशे ते सुख लेशे; जिन भक्ति प्रगटावे शक्ति, परम प्रभु उपदेशेरे. वि० ||५|| चैतन्य शक्ति भक्ति योगे, प्रगटे छे जयकारी; शुद्ध स्वरुप रमणता योगे, आनंद मंगलकारीरे.. वि०॥६॥ माणसानगरे चातुर्मासमां, विहरमान जिन गाया; मुखसागर गुरुयोगे शान्ति, बुद्धिसागर पायारे. वि० ॥७॥ . श्री सीमंधर स्तवनम. श्रीरे सिद्धाचल भेटवा-ए राग. श्री सीमंधर वंदना, भवना दुःख हर्ता; महाविदेह वासी प्रभु, शाश्वत सुख कर्ता. श्रीसीमंधर०॥१॥ लघुता एकता लीनता, तुज ध्याने थावे; अनुभव मंदिर दिनमाण, प्रभुतुं प्रकटावे, श्रीसीमंधर० ॥२॥ निश्चय ने व्यवहारथी, शरणुं एक तारुं; हुँ तुं भेद मटाववा, प्रभु ध्यान छे सारु. श्रीसीमधर०॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षेत्र भेदना विरहने, तव उपयोग टाळे तुज भक्तिमा मुक्ति छे, मोहन जोर गाळे. श्रीसीमंधर०॥ १॥ आडा जलधि गिरि भेदीने, तुज दर्शन करशुः बुद्धिसागर प्रभु मळे, एक ठामे ठरशं. श्रीमिंधर०॥५॥ समिंधर स्तवनम, राग उपरनो. श्रीसीमंधर स्वामीनु, शरणुं एक साचुं; प्रेमीमा प्रेमी प्रभु, तव वण सहु काचुं. श्रीसीमंधर० ॥१॥ स्मरण मनन एकतानता, करतां एक तारी; भक्तिथी भागे आंतरो, शुद्ध चारित्र धारी. श्रीसीमंधर०॥२॥ मारा मनमा तुं एक छे, पूर्णानंदविलासी; बुद्धिसागर वंदना, करतां सुखवासी. श्रीसीमंधर० ॥ ३ ॥ श्रीसिद्धाचल स्तवनम्. थांपरवारी साहिबा कार्बाल मतजाजो-ए राग. आदीवर अरिहंतजी, सुखना छो दारया; विमलाचलवासी प्रभु, रत्नत्रयी भरिया. आदीश्वरना ध्यानथी, घट आनंद आव्यो प्रमुगुणमा लीनता यता; एकरूप सुहायो. अनुभव अमृत पानमां, चेतन सुख भोगी; निर्मल शुद्ध स्वभावनो, योग साधे योगी. भक्ति क्रिया ने ज्ञानयी, विमलाचल यात्र; करशे ते जन धावशे, परमानंद पात्र. ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुण स्थानक पगथालीये, चढी जिनवर भेडं; शुक्ल ध्याननी दृष्टिथी, देखतां नहि छेटुं. ॥५॥ निज दृष्टि निजमां भळी, विमलाचल फरशी; शत्रु सहु पाछा फर्या, देखी ज्ञाननी बरशी. ॥६॥ असंख्यप्रदेशी चेतन, थयो शक्ति विलासी; उत्कट वीर्य प्रध्यानथी, विमलाचल वासी. एकमेक प्रभु भेटतां, एकरूप सुहाया; सादि अनंति स्थितिथी, क्षायिक गुण पाया. ॥८॥ शुद्ध परिणति भक्तिथी, थया सिद्ध अनंता; विमलाचल महिमा घणो, पापी प्राणी तरंता. ॥९॥ सिद्धाचल शिखरे चडो, चेतन गुण प्यारा; आदीश्वर भेटी भला, अन्तरथी न न्यारा. ॥१०॥ शरणुं सिद्धाचल कर्यु, तेनो विश्वासी; बुद्धिसागर भेटतां, ज्योति ज्योत प्रकाशी. ॥११॥ अथ स्थुलिभद्रनी सजाय. थांपरवारी साहिबा काबील मत जाजो-ए राग. कोशा कहे स्थूलिभद्रने, विनति अलबेला; नवरस रंगे रीजीए, आ भोगनी वेळा. ॥१॥ योगिनो वेष केम धर्यो, भोगी नवरस भमरा; वैरागी अहीं केम आविया, थइ डाह्या डमरा. ॥२॥ आव्या तो आश पूरजो, विरहानि समावो; प्याला प्रेमना पीजीए, लीजीए सुखल्हावो. ॥ ३ ॥ छंडो वेषने भोगीडा, केम क्लेश वहोछो; For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ळला. संयम तपनी अग्निथी, केम देह दहोछो. ॥ १ ॥ बोलो बोलो प्रेमीडा, मारु हैयहूं कंपे; वैरागी स्थूलिभद्रजी, हवे वचनने जपे. ॥५॥ शाणी थइ केम भूलती, वात तत्त्वनी सारी; नवरसमां शुं सुख छे, बोल वोल विचारी. ॥६॥ भोगमा रोगना ओघ छे. भोगथी नहि शान्ति क्षणिक विषयानंदमां, कोण धारशे भ्रान्ति. ॥७॥ काया आधीन भोग छे, काया विष्ठा भरेली; वृद्धपणामां देहमां, करचलीयो वळेली. गंदीकाया चुंथवी, भोग ए छे खोटो टुक्कर विष्टामां रमे, न रमेजन मोटो. ॥९ ॥ अस्थि चुसी कूतरु, मनमा खुश थातुं लोही पोतानुं चूसीने, मनमां मकलातुं. ॥१०॥ भोगनी तेवी छे दशा, योगी केम मुझे माटे धारे वेषने, योगी ब्रह्मने बुजे. ॥ ११ ॥ बोध देवाने आवियो, योगी वैरागी; राग थकी नहि आवियो, ब्रह्म ज्ञानथी जागी. ॥१२॥ डाह्यो डमरो थइ हवे, धर्म आशने पुरु; .. गुरु कृपाथी कार्यने, मूकुं नहि हुँ अधुरु. ॥ १३ ॥ प्रेमना प्याला मोहथी, पीनारा दुःखी; क्षणिक विषयानन्दमां, कोइ थाय न सुखी. ॥१४ ॥ प्रेमना प्याला फोडीने, अमे संजम लीधुं; अनुभव अमृत चाखीने, मनहुँ स्थिर कीg. ॥१५॥ मोह मायानी प्रीतडी, झांझवा जल जेवी, बाजीगर जेवी बाजी छे मोह प्रीतड़ी तेवी. ॥ १६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संध्यानुं जेवू वादळु, जेवो काचनो प्यालो, क्षणिक भोगना प्रेमने, केम करीए ठालो. ॥ १७ ॥ छंडो वेषने बोलती, तुं मोह भरेली; जोबनीयाना जोरमां, मोहथी बनी घेली. ॥ १८ ॥ कायानो शो गारबो, मुझे मूढ अज्ञानी; वचन वदतां भोळी तें, वात सत्य न जाणी. ॥ १९ ॥ तजे न साधु वेषने, जे चेतन ज्ञानी वगर विचार्यु बोलती, तारी बुद्धि छे पानी. ॥ २० ॥ साधु वेष धर्या थकी, दुनियाथी न्यारा; उपाधि अळगी करी, थइया अणगारा. ॥ २१ ॥ साधु वेषने धारीने, धरीए गुरु शिक्षा; साधु पंथने आदर्यो, करी तत्त्व परीक्षा. ॥ २२ ॥ निरुपाधि पद योगथी, ज्ञान आनन्द भोगी; रत्नत्रयीने साधता, शुद्ध अन्तर योगी. ॥२३ ॥ काया कलेवर कारमुं, चुंथतां थाय पीडा; काया अशुचि कोथळी, पडता रखूब कीडा. ॥२४॥ साधुनो वेष मोटको, दुनियाथी न्यारो; मुक्तिनां सुख पामवा, व्यवहार अमारो. ॥ २५ ॥ भोळी तुं भरमाय छे, विषयानन्द माची; जडमां आनन्द नहि कदी, तारी बुद्धि छे काची. ॥२६॥ भोगी नहि जड वस्तुनो, हुं चेतन योगी; क्लेश न किंचित् योगमां, समजे शुं भोगी. ॥२७ ।। साकर स्वाद न जाणता, कडवा रस भोगी; शुं तुं जाणे तेम मूर्खणी, अन्तर सुख भोगी. ॥ २८ ॥ क्लेश न संयम मार्गमां, नित्य होय समाधिः . For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३ राग द्वेषने टाळतां, थाय लेश न आधि. ॥२९ ॥ व्यापारी व्यापारमां, तनु कष्ट न जाणे; मुनिवर संयम साधता, दील क्लेश न आणे. ॥ ३०॥ अमृतरसना भोगीडा, अमृतना रागी; जोगदशामा जोगीडा, अन्तर वैरागी. ॥३१॥ अन्तरना उपयोगथी, आनंद खुमारी; क्लेश दशा विसरी सहु, जड प्रेम निवारी. ॥ ३२ ॥ संयम तपनी अग्निथी, कर्म काष्ट बळे छ; अन्तरात्मना प्रेमथी, भव भ्रमणा टळे छे. ॥३३ ।। काया न बळती साधुनी, चित्त अन्तर वाळे मुनिवर संयम धारीने, कुळ निज अजुवाळे. ॥३४॥ बोलो बोलो प्रेमीडा, ए मोहनी वाणी, ज्ञान विना अज्ञानथी, खूब मोह भराणी. ॥३५ ।। चेतीने हवे चित्तमां, जडमां केम झूले; जड तृष्णानी भ्रान्तिमां, केम फोगट फूले. ॥३३॥ बालपणे अज्ञानथी, तव संगति कीधी, सद्गुरुना उपदेशथी, वाट मोक्षनी लीधी.. || ३७ ॥ वेश्या कहे मुनिरायजी, तुज वाणी सारी; साकर अमृत सारिखी, मन लागे प्यारी. ॥३८ ॥ धन्य धन्य साचा गुरु, मने सत्य बताव्यु; धर्मगुरु प्रणमुं मुदा, मने सत्यज भाव्यु. जड पुद्गलनी संगते, मारु रूप न दीटुं . सत्य वस्तुना ज्ञानथी, हवे ब्रह्मज मीटुं. ॥ ४० ॥ अवघट घाट ओळंगवा, गुरु मळीयो साचो; ब्रह्मचर्य धरी मोहने, झट मार्यो तमाचो. ॥४१॥ For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोशा श्रावीका थइ, बळी शिवपुर वाटे। समकित रत्न आपियुं, वसतिनाज साटे.. ॥४२॥ ब्रह्मचारी स्थूलिभद्रजी, जगमां जय पाया, चोराशी चोविशी सुधी, नाम जगमां रहाया. ॥ ४३ ॥ सद्गुरु संगत योगथी, वेश्या सुख पामी; रत्नत्रयीने साधता, थइ सुख विश्रामी.. ॥४४॥ सुखसागर गुरु प्रेमथी, स्थुलिभद्रने गाया। बुद्धिसागर धन्य धन्य ब्रह्मचारी सवाया. . ॥ ४५ ॥ हृदय स्फुरणा स्वाध्याय. गझल. भजीले देवनादेवा, करीले सद्गुरु सेवा; कदी नहीं बाह्यमां शांति, खरेखर बाह्यमा भ्रान्ति. ॥ १ ॥ जगत्नी कारमी प्रीति, जगत्नी कारमी रीति; जगत्नी कारमी भीति, जगत्नी कूट छे नीति. ॥२॥ जगत्ना रंग बे रंगी, जगत्ना प्रेम बहु रंगी; । जगत् आ नाटयभूमि छे, जीवननी आश घूमी छे. ॥ ३ ॥ जगत्मां अज्ञना दरिया, जीवो नहि मोहथी तरिया; जगत्मा स्वार्थनी खाइ, जगत्मा स्वार्थ दुःखदायी. ॥ ४ ॥ जगत्मां क्लेशनां कुंडां, विचारो कृत्य छे भूडां जगत्मा संत छ सुखी, जगत्मां मूर्ख छ दुःखी. ॥५॥ जगत्नी रीतियो अवळी, कदी नहि थाय ते सवळी अंतरमा प्रेमनी कुंची, प्रभुमां लीनता उंची. अमारे तत्त्वमा रमवू, अमारे वाह्य नहि भमकुं; बुद्धयन्धि ध्यान धर सारं, तजीने बाह्यमां मारु. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तर प्रदेशमा उतरेली वृत्तिना उद्गार स्वाध्याय. गझल. धरु नहि बाह्यमां प्रीति, तजु नहि आत्मनी रीति; भर्यो हुं आत्मना मुखे, पडु नहि मोहना दुःखे. ॥१॥ भूटु नहि भान पोतानु, रघु नहि तत्व तो छार्नु; थयुं मन स्थिर चिरशांति, टळी गइ दुःखनी भ्रान्ति. ॥२॥ अरूपी ब्रह्म में ध्यायु, अनुभव मुख दील आयु; जगत्ने केप कहेवाशे, अरूपी वाणी शुं पाशे. ॥३॥ समाइ हुँ रह्यो घटमां, पडु केम बाह्य खटपटमां; करु हुं बाह्यथी कृत्यो, करे छे कृत्य जेम भृत्यो. ॥४॥ विपाकी कर्म जे आवे, खरे छे तेह निजभावे; तटस्थ दृष्टिथी देखें, तटस्थ धर्मथी पे. विपाको भोगवी छूटु, मोहारि ध्यानथी कूटु निजानंदी खरो भोगी, प्रभुना ध्यानथी योगी. स्वतंत्र भावथी रहे, कोइने कांइ नहि कहेवू बदधन्धि मुख विश्रामी, प्रभुनी सत्यता पामी. ॥७॥ अथ कपटनी सझ्झाय. श्री रे सिद्धाचळ भेटवा-ए राग. कपट कळा करनार,, कदी थाय न सार; कपट ते पापर्नु मूळ छे, महा दुःख थनारं. कपट० ॥ १ ॥ हाजीहा मुख बोलतो, राखे दिलमां काती कपट त्यां धर्म न संपजे, वज्र जेवी छे छाती. कपट० ॥२॥ कपटी जन मीडं बोलतो, वळी हळवे बोले; For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ कंपेट० ॥ १ ॥ कपदीनी रीत कारमी, बात सत्य न खोले. पक्षीमां जेम कागडो, पशुमां शृगालः कपट कळा राज तंत्रमां, क्यांथी धर्ममां ख्याल. कपट० ॥ ४ ॥ बहु बोले कपटी नहि, अति विनयमां काळुं अत्याचार अनाचारमां, तेम कपटज भाळु. कपटे खोदे ते पडे, जाय दुर्गति वेहेलो; कपटी निंदा बहु करे, पाप कार्यमां पेहेलो. आचार्यने धूर्तमां, वेश्या विद्वज्जनमां; चळी विशेषे वणिकमां, भर्यु कपट ते मनमां. एकां वात ए नहि, प्रायः वचन ए जाणो; अल्प अधिक सहु जीवमां, पाप कपट पिछाणो. कफ्ट० ॥ ८ ॥ कपटे कोइ न सुखीया, दुःखीया जन भारी; कपटी भी मां नीच छे, थाय तेनी खुवारी. दुःषम पंचम काळमां, खूब कपटी पूजाता; बुद्धिसागर सरळता, सज्जन सुख पाता. कपट० ॥ ५ ॥ कपट० ।। ६ ।। || शिक्षा सझाय ॥ श्रीरे सिद्धाच भेटवा-ए राग. For Private And Personal Use Only कपट० ॥ ७ ॥ कपट० ।। ९ ।। कपट० || १० ॥ वचन विचारी बोलीए, नहि धरीए माया; समकित वण जीव अंध छे, पाम्या तत्व से डाला. ए. टेक.) हित शिक्षा दिल धारीए (१) दुर्जनथी दूरे रहो, धरो सज्जन मीति, राखो नीति धर्मनी, टाळो पाप अनीति. aste नहि कोइ साथमां, तजो विषय विकारो: हितः ॥ २ ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७ माया ममता त्यागीने, झट चेतन तारो. हित० ॥ ३ ॥ लाख चोराशी योनिमां, चेतन भटकायो। दश ष्टांते दोहिलो, मानव भव पायो. हितः ॥ ४॥ करवी प्रभुथी भीतडी, निःसंगता धारी; बुद्धिसागर धर्मथी, शाश्वत सुख क्यारी. हित० ॥५॥ जगत् मुसाफर खान. सझ्झाय-राग उपरनो. जगत् मुसाफर खानुं छे, मुसाफर जीव जाणो; स्थिरता वास न लेश छे, फोक ममता ताणो. जगत् ॥१॥ हाजीहा सहु स्वार्थथी, खेल मोहना खोटा; भ्रांतिमां भटकाय छे, रंक नृपति मोटा. जगत् ।।२।। क्षण क्षण आयुष्य छीजतुं, चेतन झट चेतो; भमे तेतरपर बाज जेम, काळ फाळज देतो. जमत्० ॥३॥ धर्म क्रिया एक सार छे, दया धर्म खरो छे बुद्धिसागर धर्मथी, सत्यानंद वर्यो छे. जगत् ॥४॥ विषय विकारजय, स्वाध्याय. राग उपरनो. विषय विकारो जीतवा, शूरा जननी रहेणी; कायर जन कंपे अरे, जेवी चारण कहेणी. विषय ||१|| आत्मज्ञान श्रद्धा थकी, विषयो विष जेवा अनुभवामृत चाखतां, अन्तर गुण सेवा. विषय० ॥२ सर्व वीरमां ते वडो, विषयोनो न दास; For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाष वीर जग वीरला, तोडे भव पास. विषय० ॥२॥ विषय त्याग वैराग्यथी, ज्ञानभानु प्रकाशे; शुद्ध रमणता जांगुली, विषयाहि प्रणाशे. विषयं ॥४॥ आत्म प्रतीति भक्तिथी, चेतन सिद्ध थावे; बुद्धिसागर ध्यानथी, देश निर्भय पावे. विषय० ॥५॥ सिद्धसमान भावनानी सझ्झाय. ___राग उपरनो. निर्मल सिद्ध समान तुं, जीव जोतुं विचारी; उच्चभावना भावतां, शिवपुर तैयारी. निर्मल० ॥१॥ श्रुत ज्ञानालंबी पणे, ध्यान धर साचं साकार उपयोग तन्मये, निजपदमां राचुं. निर्मल० ॥२॥ चेतन सत्ता ध्यावतां, प्रगटे शुद्ध व्यक्ति बाह्य दशा विघटे सहु, साची चेतन भक्ति निर्मल० ॥३॥ असंख्य प्रदेशो निर्मला, ध्यान तरतम भेदे; शुक्ल ध्यान उपयोगथी, घाती कर्म उछेदे. निर्मल० ॥ ४ ॥ केवल कमला पामीने, ठरे निर्भय ठगमे; बुद्धिसागर ज्योतमां, ज्योति निश्चय झामे. निर्मल० ॥ ५ ॥ अनुभव सइझाय. राग उपरनो. अनुभवज्ञान प्रकाशमा, सिद्धसम सुख भारी; अनुभवज्ञान प्रकाशतां, विघटे दुःख भारी. अनुभव ॥१॥ अनुभव अमृत चाखता, विषयानंद नासे; For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९ अनुभव० ॥ ३ ॥ अनुभव भानु ज्योतथी, शेष चेतन भासे. अनुभवामृत भोजने, भूख भवनी भागे; अनुभवामृत पानथी, योगी घट जागे. अनुभवनी खुमारीथी, प्रगटे सुख शांति. ब्रह्मानंदी अनुभवी, तेने नहि मोह भ्रान्ति अनुभव० ॥ ४ ॥ चेतनना शुद्ध ध्यानथी, शुद्धज्ञान प्रकाशे; बुद्धिसागर अनुभवे, शिवमंदिर पासे. अनुभव० ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only अनुभव० ॥ ५ ॥ स्वचेतन शक्ति सझाय. राग उपरनो. निजशक्ति निजमां भळे, शुद्ध चेतन होवे; अनुभवज्ञान प्रतापथी, निजने निज जावे. निज० ॥ १ ॥ निश्चयनय दृष्टि थकी, शुद्ध चेतन पोते; गुणठाणे गुण संपजे, क्यां तुं बीजे गोते. निज० ॥ २ ॥ स्थिरता चेतनरूपमा, करतां सुख प्रगटे; त्रणभुवनना नाथने, देखे दुःख विघटे. निज० ॥ ३ ॥ ध्यानक्रिया निज आत्मनी, शुद्ध छे व्यवहारे; पोते पोताने ध्यावतो, पोते पोताने तारे. निज० ॥ ४ ॥ परमशुद्ध भगवान् नुं, अनुभव सुख झरणं; बुद्धिसागर ध्याननुं, होजो क्षणक्षण शरणुं निज० ॥ ५ ॥ आत्म रमणता स्वाध्याय. राग उपरनो. आत्म रमणता धारीए, परभाव निवारी; भ्रांतिथी भूली बाह्यमां, केम भटको भारी, आत्म० ॥ १ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म रमणता चरण छ, निश्चयथी सुहावे; आत्मोपयोगी विरला, कोइ योगिओ पावे. आत्म० ॥२॥ भटकी बाह्य प्रदेशमां, सुख शांति हारो; अंतरमांहि उतरो, पामो भव पारो. आत्म० ॥ ३ ॥ मननी चंचळता थकी, चार गतिमा फरकुं; मन चंचळता वारीने, एक ठामे ठरवू. आत्म० ॥ ४॥ बाह्य विषयथी खेंचीने, मन अन्तर वाळो; बुद्धिसागर ध्यानथी, उच्च जीवन गाळो. आत्म ॥ ५ ॥ उपयोग स्वाध्याय. पैसा पैसा-ए राग.. नय एकांत न धारीए, वारीए वळी माया; परमार्थना काममां, वापरीए काया नय० ॥ १ ॥ वैर न दीलमा राखीए, भाखीए सत्यवाणी; दया धर्म फेलावीए, शिवसुखनी खाणी. नय० ॥२॥ धर्म नियमने आदरी, द्रढ श्रद्धा धरीए; संकट पडतां धर्मथी, कोई काळे न फरीए. नय० ॥ ३ ॥ निश्चयने व्यवहारनी, सापेक्षा समजो साध्य साधनता आदरी, निजभावमा रमजो. नय० ॥ ४॥ गुरुगमथी ज्ञान पामीने, चित्त समता धरशो; बुद्धिसागर ध्यानथी, सुख शाश्वत वरशो. : नय० ॥५॥ प्रभुनी प्राप्ति स्वाध्याय. पैसा पैसा-ए राग. परम प्रभुनी प्राप्ति करवा, नीति रीति राखोरे; परम प्रभुनी भक्तिथी झट, अनुभवामृत चाखोरे. प० ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहेणी सरखी रहेणी राखो, साची वाणी भाखोरे; नीच भावना दुःख वल्लिनां, मूळो काढी नाखोरे. ५० ॥२॥ शत्रु मित्रमा समान बुद्धि, करशो मननी शुद्धिरे; शुद्धसदागमना उपयोगी, पामो शाश्वत ऋद्धिरे. प० ॥३॥ निंदक वंदक ने सम जाणो, उच्च भाव दिल आणोरे; आनंदामृत जीवन प्रगटे, मुक्तिपुरी सुख माणोरे. ५० ॥४॥ साची शिक्षाथी लइ दीक्षा, परम प्रभुने स्मरशोरे, बुद्धिसागर शिवपुर पामी, निर्भय थइने ठरशोरे. प० ।।५।। कलियुगना शेठीयाओ. छप्पयछंद. अधुना पंचमकाळतणो छ महिमा मोटो, लोभी धूर्तजनोए धर्म वाळ्यो गोटो नही धर्मनुं भान मानना जे पूजारी, नही गुरुमां प्यार नारी तो गुरुथी प्यारी; ज्यां त्यां जगमां देखजो बहु लाखोपति जे शेठीया, पूजक नही छे देवना ते नारीना छे. वेठीया. ॥१॥ पैशोतो परमेश्वर करतां मनमा प्यारो पुत्रादिकने साधु मानीने धर्मज हार्यो, सोगन खावे सत्य देवना पैशा माटे; दया दया पोकारे घाणज वाळे हाटे, अभिमानना तोरमां हीन फुलीने ज्यां त्यां फरे; शेठीया छे वेठीया ते भटुं जगतनुं शुं करे. ॥२॥ वर्ते मूछो मर्द नाम पण तेनुं काचुं, For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लजवी जननी कूख बोल तो जे नहि साचं ताळी दइने हसी पडे छे साची वाते, राग धरे छे परनारी वेश्यानी लाते; भारभूत छे भूमिमां ते मगरुरीमा म्हालता, सी, आइ, इना पुच्छ माटे लक्ष्मी व्ययमां व्हालता. ॥३॥ बणी ठणीने घमघम गाडी जे दोडावे, नात जातने कुलजनोनुं भंडं गावे; . राग धरीने आंखो फाडी नाटक जोवे, लक्ष्मी गयाथी अश्रु ढाळी क्षणमां रोवे. नविन सुधारा शोखमांहि दील जेनुज बेश छे, धर्म मर्मने जाणता नहि, उपर उपरनो वेष छे. ॥ ४ ॥ सद्गुरु मुनिने वंदन करतां लज्जा पामे, जलनी पेठे जावे निशदिन नीचा ठामे; मगरुरीमा म्हाले बोली बणगां फुके, सत्य धर्मनुं कृत्य तेहने मनथी चके. कलिकाळमां शेठीया केइ वेठिया थइने फरे, धन्य धन्य श्रद्धालु जे जन शेठिया जगमा खरे. ॥ ५॥ गाडी वाडी लाडी ताडीना जे प्रेमी, सूत्र श्रवण नहीं प्रेम नहि जे व्रतना नेमी; पाप कृत्यमां कीर्ति माटे खर्चे लाखो, परमाधामी सरखानी थइ गइ छे राखो. धन्य धन्य ते शेठीया जग परोपकारी सत्य छ, बुद्धिसागर धन्य ते नर श्रेष्ठी साचुं कृत्य छे. ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री सिद्धाचल स्तवनम्. श्री सिद्धाचल भेटीए, भवभय दुःख हरवा; आधि व्याधि उपाधिनां, दुःख सघळां हरवा. श्री० ॥ १॥ सकल तीर्थ शिरोमणि, विमलाचल धारो शत्रुजयने भेटतां, आवे भवदुःख आरो. श्री० ॥ २ ॥ असंख्ययोगे सेवीए, ज्ञान ध्यानमा राची; सम्यग् दृष्टि जीवडा, रहे तीर्थमा माची. श्री० ॥ ३ ॥ शत्रुजयगिरि दर्शने, सत्य आनंद घटमां; चिंतामणि हस्ते चढयो, पडो शु खटपटमां श्री० ॥ ४॥ त्रण पन्थथी चढाय छे, वीजा केइक पन्थ; आदीश्वर प्रभु भेटीए, लोकोत्तर निर्ग्रन्थ. श्री० ॥ ५ ॥ गिरिपर चढीए प्रेमथी, इर्यासमिति संभारी; हळवे हळवे चालीए, मौनव्रतने धारी. श्री० ॥ ६ ॥ आडं अवडं न जोइए, चालो शक्त्य नुसारे; थाकंतां विश्राम लेइ, आगे चहीए विचारे. श्री० ॥ ७॥ अप्रमत्त पन्थ संचरी, पेसो जिनवर द्वारे; दर्शन करीए देवनु, भवपार उतारे. श्री० ॥ ८॥ भक्ति क्रिया ज्ञान पंथथी, विमलाचल चढीए; अनुभव साथीना स्हायथी, मोह भिल्लथी लढीए श्री० ॥९॥ दर्शन दीठे देवर्नु, ज्योति ज्योतमां मळीए; बुद्धिसागर तीर्थना, दर्शनमा हीए. श्री० ॥ १० ॥ For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री पद्मप्रभुस्तवन. पद्मप्रभु जिन अंतरजामी, जगजीवन जगराज; पुरुषोत्तम परमातम स्वामी, निरख्या नयणे आज, हइडे हुं हरख्यु रे गिरुआना गुणे करी । करदोय जोडीरे वंदु हुं हर्ष धरी. (ए टेक ) ॥ १ ॥ स्वर्ग थकी चवी मात कुखे जब, आवे श्री जिनराय; तब चोसठ सुरपति हरखीने, प्रणमे प्रभुजी पाय; हरखे मातारे अतिशय भक्ति करी. करदोयजो० ॥२॥ जिनपति जन्मोच्छवने काळे, प्रभुने सुरगिरी लेइ, एकक्रोड शाठलाख कळश भरी, न्हवण करे सुर केइ; कर्ममेल टाळेरे, दुःख जेम नावे करी. करदोयजो० ॥ ३ ॥ जिनवर जननी पासे मूकी, नंदीश्वर मुर जाय, जन्म कल्याणक अतिशय योगे, अजवाळु नरके थाय; देव एवा देखुरे, होय भाग्य दशा खरी. करदोयजो० ॥ ४ ॥ लाड लडावे माता प्रेमे, मोटा जिनवर थाय; भोग रोग त्यजी निज आतम, जळ पंकजने न्याय, दीक्षाकाळे आवरे, लोकांतिक हर्षधरी. करदोयजो० ॥५॥ दीक्षा ग्रही निःसंगी जग धणी, महीयळमां विचरंत. कर्म खपावी केवळ पाम्या, समवसरण विरचंत; देव कोडाकोडीरे, साथ लइ आवे हरि. करदोयजो० ॥६॥ चार मुखे बार पर्षदा आगे, रुडी देशना देई कर्म हठावी शिवपुर पहोंच्या, परमातम पद लेइ, गाम आजोलेरे निरखंतां नैनां ठरी; बुद्धिसागर वंदेरे, शाश्वत सिद्धि वरी. करदोयजो० ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहस्वाध्याय. श्रीरेसिद्धाचल भेटघा-ए राग. मोह न करीए पाणिया, मोहथी दुःख थावे; चारगतिमां भटकता, जीवडा भय पावे. मोह० ॥ १ ॥ मोहे आजीजी घणी, क्लेश जगमा भारी; वैर झेर इर्ष्या घणी, रखूब थाय खुवारी. मोह० ॥२॥ मोह टळे सहु दुःख टळ्युं, मोह वातो भूडी; मोह महामल्ल जीततां, थाय रीति रुडी. मोह० ॥ ३ ।। मोहे भान न आत्मनुं, मोहे पंडित भूल्या; अशुद्ध परिणति छाकथी, झंझाळे झूल्या. मोह० ॥ ४ ॥ ज्ञाने मोह निवारीए, धारीने जिनवाणी; बुद्धिसागर ध्यानथी, वरो मुक्ति राणी. मोह० ॥ ५ ॥ खटपट साग-स्वाध्याय. राग उपरनो. खटपटमां नहि खुंचीए, त्यागीए मोहमाया; विषयो विष सम जाणीए, नहि जीवनी काया. खटपट० ॥१॥ तन धन मंदिर माळीयां, कोइ साथ न आवे; चेत चेत अरे आतमा, केम ममता धरावे. खटपटः ॥ २॥ पुद्गलना खेल कारमा, क्षणमां रूप पलटे; राचीए केम एहमां, जेह उपजे विघटे. खटपट० ॥३॥ कायानो शो गारवो, चेत चेतन ज्ञाने; चेत्या ते शिव महेलना, चढीया सोपाने. खटपट० ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हीरो हाथ चन्यो खरो, था तुं निज गुण रागी; बुद्धिसागर धर्मथी, जीव बनशे सौभागी. खटपट० ॥५॥ असार संसार स्वाध्याय. आ संसार असार छे, जन्म मृत्युथी भरियो; रोग शोकथी व्याप्त छे, महादुःखनो दरियो. आ० ॥१।। भवमां लेश न मुख छे, आशा तृष्णानी खाडी; क्रोधाग्नि सळगे सदा, जुओ आंख उघाडी. आ० ।। २ ॥ विषय विषनां वृक्ष छे, ज्यां त्यां क्लेशना कांटा; वळगे द्वेषतुं भूतडं, मारी विविध आंटा. आ० ।। ३ ।। काम फणीधर वेगथी, मूढ जीवने करडे; मिथ्या राक्षस मोटको, झाली जीवन मरडे. आ० ॥ ४ ॥ चिंता चितासम बळे, रति अरति शियाल; अज्ञान घुवड बोलतो, मोटो मोह वैताल. आ० ।। ५ ।। अभिमानना पर्वतो, मोह सिंह धडूके; परभाव रासभ मातीलो, ज्यां निशदीन भूके. आ० ॥६॥ काळ झपाटो वागतो, सहु प्राणी दुःखी; परिहरतां संसारने, थाय मुनिवर सुखी. आ० ॥ ७ ॥ वैराग्ये मन वाळीने, तजीए भवफेरी; बुद्धिसागर धर्मथी, वाजे मंगल भेरी. आ०॥८॥ वर्तमानकाल सुधारो. वर्तमान जो काल सुधारो, तो पामो भवपारोरे; वर्तमानमा उच्च भावथी, चेतनने झट तारोरे. वर्त० ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ भूतकाळमां बगडेला पण, वर्तमानमा सुधरेरे, चंद्रशेखर चिलाती सुधर्या, ज्ञानी वाणी उच्चरेरे. वर्त० ॥२॥ गयो वखत नहीं पाछो आवे, भविष्यमा शुं थाशेरे; वर्तमानमा जे नहि सुधर्या, ते दुर्गति दुःख पाशेरे. वर्त० ॥३॥ भूतकाळमां बांध्यां कर्मो, वर्तमानमा टळतारे; वर्तेते वर्तमान काळमां, प्राणी शिवपुर वळतारे. वर्त० ॥४॥ वर्तमानमां वीर प्रभुए, ध्यान करी शिव लीधुरे; आषाढाभूति आचार्य, वर्तमान हित कीधुरे. वर्तः ॥५॥ भूतकाळमां अनेक जन्मो, थइया कर्मे खोटारे वर्तमानमां तेना ध्याने, कदी न थइए मोटारे. वर्त० ॥६॥ अशुद्ध पर्यायो चेतनना, संभारे शं सारुरे वर्तमानमा ते मान्याथी, कदी न शर्म थनारुरे. वर्त० ॥७॥ अशुद्ध पर्यायो जे पूर्वे, थइया ते अवनांहिरे; वर्तमानमा उच्च भावना, चेतनता अवगाहीरे. वर्त० ॥८॥ भूतकाळमां बांध्यां कर्मों, वर्तमानमां आवरे उदयागत विविध कर्मोथी, ध्याने भिन्न सुहावरे. वर्त० ॥९॥ शुद्ध निश्चयनयनी दृष्टि, अंतरमांहि धरीएरे; उदयागत कर्मों भोगवतां, वर्तमान शिव वरीएरे. वर्त०॥१०॥ भूतकाळमां कोइक शत्रु, वर्तमानमा प्यारोरे; भूतकाळ स्थिति संभारे, आवे नहि भव आरोरे.वर्त०॥११॥ भूतकाळ ललनानो रागी, वर्तमान वैरार्गारे; । भूतकाळने संभार्याथी, पूर्व भोगनो रागीरे. वर्त० ॥१२॥ पूर्व भोगनी याद न करवी, मुनिने शिक्षा सारीरे शुद्ध निश्चय दृष्टि वर्गों, वर्तमान सुखकारीरे. वर्त० ॥१३॥ अप्पासो परमप्पा भावो, वर्तमानमा प्रेमेरे; For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्तमानमां केवलज्ञानी, उच्चध्यानना नेमेरे. - वर्त० ॥१४॥ भूतकालन अनंतकों, वर्तमानमा जावेर; वर्तमानना श्वासोश्वासे, चेतन सिद्ध कहावरे. वर्त० ॥१५॥ वर्तमान बाजी छे हाथे, भाख्यु त्रिभुवन नाथेरे; वर्तमानमा जे जे करशो, ते ते आवे साथेरे. वर्त० ॥१६।। वर्तमानमा जेजे वावो, तेते फळशे आगेरे; वर्तमानने जेह बगाडे, ते जन भिक्षा मागेरे. वर्त० ॥१७॥ भूतकाळमां जे जन भोगी, वर्तमानमा योगीरे; भूतकाळमां जे जन रोगी, वर्तमान निरोगीरे. वर्त० ॥१८॥ गयो वखत संभारे चिंता, वर्तमानमा प्रगटेरे; भूतकाळने संभार्याथी, वर्तमान सुख विघटेरे. वर्त० ॥१९॥ भूतकाळनो पार न आवे, कदी न जेनी आदिरे; अंत न आवे भविष्यनो तेम,वर्तमान तो आदिरे.वर्त० ॥२०॥ वर्तमान भोगववा रूपे, करशो धर्म विचारीरे; पाप तजीने धर्मज करशो, समजो नरने नारीरे. वर्त० ॥२१॥ प्रसन्नचंद्र राजर्षि मोटा, वर्तमान निज ध्यानेरे; कर्म खपावी सहजानंदे, चढीया शिव सोपानेरे.वर्त० ॥२२॥ वर्तमानमा ध्यान लगावी, सिद्धया जीव अनंतारे; वर्तमानने सफल करो जन, जिनवर एम वदंतारे. वर्त०॥२३॥ वर्तमान सुधारी पूर्वे, केइक सिद्धया प्राणीरे; वर्तमानमा उच्च भाव वण, आवे घटमां हानिरे. वर्त० ॥२४॥ घोर कर्मना करनारा पण, वर्तमान शिव जावेरे; वर्तमानमा उच्च थवाथी, भविष्य पण शुभ थावरे. वर्त०॥२५॥ वर्तमानमां पाप कर्याथी, भविष्यकाळे दुःखीरे; वर्तमानमांध्यान विना तो, कदी न थाशो सुखीरे. वर्त०॥२६॥ For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करी कमामी भूतकाळनी, वर्तमान जीव पावरे वर्तमानथी भविष्य सुधरे, समजु मनमा आवेरे. वर्त० ॥ २७॥ वर्तमानमा जे जन काळो, भविष्यमां पण तेवोरे शुद्ध रमणता वर्तमानमां, भविष्यमा सुख मेवोरे. वर्त० ॥ २८ ॥ अतीत भाविनी चिंता टाळी, वर्तमान शुभ करीएरे; संग्रहनय सत्ताथी चेतन, ध्याने शिव सुख वरीएरे. वर्त० ॥२९॥ प्रारब्ध भोगवतां केईक, वर्तमान भीखारीरे; क्रियमाण संचितने त्यागी, जीवन मुक्तता धारीरे. वर्त० ॥३०॥ वर्तमानमां ज्ञानी बनवू, वर्तमानमां ध्यानीरे; वर्तमानमां योगी बनवू, वात न काइक छानीरे. वर्त० ॥ ३१ ।। वर्तमानमां घातक कर्मो, ध्याने जीव खपावरे; वर्तमानमां धार्यु थावे, कोइक मनमा आवेरे. वर्त० ॥ ३२ ॥ वर्तमान स्थिति सुधर्याथी, नीच जनो पण उंचारे वर्तमानतुं ध्यान मजानु, काढे कर्मना हुचारे. वर्त० ॥ ३३ ॥ वर्तमानने सुधार्या वण, नृपति पण भीखारीरे; जुओ दशानन दुर्गति पाम्यो, मनुष्य भवनेहारीरे. वर्त० ॥३४॥ यम नियमने आसन साधी, प्राणायाम अभ्यासीरे; प्रत्याहार धारणा ध्याने, शुद्ध समाधि वासीरे. वर्त० ॥३५|| वर्तमानमा शुद्ध विचारे, होवे शुद्धाचारीरे; अंतरना उपयोगे रहेतां, सिद्ध बुद्धता धारीरे. वर्त० ॥३६॥ वर्तमानतुं टाणुं मोटुं, पहोंचे कदी न नाणुरे; वर्तमानमा धर्माचारे, होवे शिवपुर आए॒रे. वर्त० ॥३७॥ ठाठमाठमां जे जनराचे, अभिमानथी फूलेरे; वर्तमानमां नीच भावथी, भव अरहट्टमा झूलेरे. वर्त० ॥३८।। शुद्ध भाव चेतननो जे छे, उच्च भाव ते जाणारे; For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीच भाव छे जड रमणता, समजु मनमां आणोरे. वर्त० ||३९|| मायामां सपडातां नीचा, उंचा आत्म स्वभावेरे; नीच उच्चनो अंतर समजी, उच्च भाव. जन लावेरे. वर्त० ||४०|| उच्च भावना उच्च थवामां, साची छे जयकारीरे; वर्त० ||४२|| नीच भावना नीच बनावे, समजो तत्त्व विचारीरे. वर्त० ॥ ४१ ॥ दुःख भोगवतां वर्तमानमां, उच्च भावना भावोरे; उच्च भावना कर्म विदारे, युक्ति मनमां लावोरे. शाताशाता वेदनी आवे, शुद्ध दृष्टि नहीं चूकोरे; कर्मोदयथी दुःखो पडतां, उच्च भाव नव मूकोरे, वर्त० ॥ ४३ ॥ दुःखनां वादळ शीर चढे पण, उच्चभाव नव त्यागोरे; दुनिया लोको भूंडा कहेवे, तोपण अंतर जागोरे. वर्त० ||४४ || व्यभिचारीनुं आळ चढावे, कोइक द्वेषी प्राणीरे: वर्त० ||४७|| वर्त० ||४८|| तोपण दीलमां उच्चभावना, राखो समजी वाणीरे. वर्त० || ४५ ॥ एक मुनिवर ध्याने रहीया, लोको निंदा करतारे; वर्तमानमां उज्ज्वल भावे, केवळ कमळा वरतारे. वर्त० ||४६ ॥ मास उपर जन कोइक पापी, वर्तमानमां दीक्षारे; वर्तमानमां शुद्ध स्वभावे, पामे अनुभव शिक्षारे. कोइक चोरे पाप कर्याबाद, दीक्षा लीधी भावेरे; वर्तमानमां उच्चभावथी, शाश्वत सुखडां पावेरे. गइ तिथी ब्राह्मण नव वांचे, न्याय विचारी चालोरे; वर्तमान शुद्ध विचारे, शाश्वत सुखमां म्हालोरे. वर्त० ||४९|| कर्यो कर्म जे भूतकाळमां, वर्तमानमां नासेरे; वर्तमानमां विशुद्धभावे, केवल कमळा पासेरे. विषय विकारो नीच भावना, त्यागो हिंसा ठेवोरे; श्रद्धा भक्ति विनय भावथी, गुरुपद पंकज सेवोरे. वर्त० ||२१|| वर्त० ॥५०॥ For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परनिन्दा करवानी बूरी, त्यागो देव नठारीरे; संग्रहनयथी सिद्ध समाना, देखोने संसारीरे. वर्त० ॥५२॥ पापी जीवोने देखी मन, क्रोध जरा नव करवोरे; धर्मिसज्जन जीवो देखी, मनमा आनंद घरवोरे. वर्त० ॥५२॥ परनुं बुरु कदी न चिंतो, लेश्या उज्ज्वल थाशेरे; उच्चभावथी मनहुँ निर्मल, शुद्ध गुणो प्रगटाशेरे. वर्त० ॥५४॥ वैरझेरना अशुभ विचारो, कदी न मनमां करीएरे; पर मुंडं चिंतववु हिंसा, रौद्रध्यान परिहरीएरे. वर्त० ॥५१॥ जेजे सद्गुणने चिंतवशो, तेनी वृद्धि थाशेरे; उच्चभावना कदीन मूको, तेथी उच्च थवाशेरे. वर्त० ॥५६॥ खातां पीतां हरतां फरतां, उच्चभावना राखोरे अशुभ विचारो पापी जाणी, जल्दी मारी नाखोरे. वर्त० ॥५७॥ गपसप अशुभ विचारो मनमां, आवंताने वारोरे; अन्तरना उपयोगी व्हाला, शिक्षा मनमां धारोरे. वर्त० ॥८॥ धर्मोद्यम करवाथी सर्वे, परम प्रभुता पामेरे; वर्तमानमा उच्चभावथी, त्रणभुवन जश जामेरे. वर्त० ॥५९|| आश्रवना विचारो नीचा, संवर उच्च विचारोरे; भव मुक्ति पोताना हाथे, जाणी चेतन तारोरे. वर्तः ॥६॥ नित्यनियमथी सदाय करीए, उच्च विचारो भावेरे; नित्यनियमी उच्चभावना, करतां शिवसुख थावरे. वर्त० ॥६॥ लटपट खटपट झटपट त्यागी, धीर वीरता धारीरे; उच्चभावना क्षणक्षण करीए,अनुभव अमृत क्यारीरे. वर्त० ॥६२॥ कोइ नहि जग मारु द्वेषी, द्वेषी कोइ न मारारे; जीवो सर्वे सिद्ध समा छे, उच्चभाव जयकारारे. वर्त० ॥६॥ अनंतशक्ति स्वामी हुँ छु, उच्च भावना सारीरे; For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृक्षोद्भव जेम बीज थकी तेम, उच्चाशय बलिहारीरे. वर्त० ॥६॥ सोहं सोहं उच्च भावना, तत्वमसि पण प्यारीरे; अर्थ विचारी समजी सेवो, शुद्ध धारणा धारीरे. वर्त० ॥६६॥ जेवा जेवा मन विचारो, तेवा छे उच्चारोरे; विचार सरखा छे आचारो, समजी तत्त्वने धारोरे. वर्त० ॥६६॥ उच्च भावना उत्तम करशे, दोषो सर्व प्रणाशेरे उच्च भावना उत्तम भक्ति, प्रभु समो जीव थाशेरे. वर्त० ॥६॥ सिद्ध समो हुं त्रण कालमां, पर पुद्गलथी न्यारोरे वर्तमानमां शुद्ध भावना, टाळे कर्म विकारोरे. वर्त० ॥१८॥ मन वचन कायाथी न्यारो, शुद्धरुप जयकारीरे; वर्तमानमा उच्च भावना, आपे शिव सुख भारीरे. वर्त० ॥६९॥ रत्नत्रयीनो स्वामी भोक्ता, निर्मल निजगुण कतारे; परम शुद्ध निरंजन योगी, परपरिणतिनो हीरे. वर्त० ॥७॥ औदयिक भावो मुजथी न्यारा, अनंत सुखनो भोगीरे; निजगुण योगी कर्म वियोगी, नहीं शोकी नहि रोगीरे. वर्त०॥७॥ चिदानंदनो भोक्ता हुँ छ, शुद्ध भावना उंचीरे; परम प्रभुने प्राप्त थवामा, ए छे साची कुंचीरे. वते ॥७२॥ पुरुषोत्तम चेतननी व्यक्ति, करतां साची भक्तिरे; अहावीश लब्धि घट प्रगटे, वर्तमानमा युक्तिरे. वर्त० ॥७३।। वर्तमानमा उद्योगी जन, प्रगट करे बहु शक्तिरे; वर्तमानमां अंतर वर्तों, उच्च थवानी युक्तिरे. वर्त० ॥ ७४ ॥ दया क्षमाने तप संयममा, उच्च भावना सारीरे; पुद्गलवस्तु इच्छा टाळी, थाशो परोपकारीरे. वर्त० ॥ ७५ ॥ परना सारामां निज सारु, उत्तम बुद्धि राखोरे वर्तमानमा शुद्ध परिणतिथी, अनुभव अमृत चाखोरे. वर्त० ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३ आर्तध्यानने रौद्रध्यानने, त्यागी धर्मने धरीएरे; शुक्लध्यानथी केवल पामी, शिवमंदिर संचरीएरे. वर्त० ॥७७॥ दुनियानो भय त्यागी धर्मे, भाव थकी धसमसीएरे; दुनिया शुं कहेशे भय राखे, मोह थकी नहि खसीएरे. वर्त० ॥ ७८ ॥ सगुणवीर्य प्रशे, साहसथी शिव मळशेरे; साहसगुणथी धर्म पन्थमां, वळतां दुःखो टळशेरे. वर्त० ॥ ७९ ॥ आत्ममेमथी चेतन मळशे, अभिमान झट गळशेरे; सर्व जगत्ने कुंटुंब सरखं, माने सुखडां मळशेरे. वर्त० ||८०|| परना दोषो कदी न देखो, दोष दृष्टिथी दोषीरे; सद्गुण दृष्टिथी गुण लेतां, बनशो निजगुण पोषीरे. वर्त० ॥८१॥ अपकारि दुर्जनने देखी, करुणा दिलमां लावोरे; उच्चभावधी सज्जन मोटा, चेतन प्रेम जगावो रे. वर्त० ।। ८२ ॥ औदयिक दृष्टिथी देखोतो, जगत् लागशे भूईरे; सद्गुण दृष्टिथी देखोतो, जगत् लागशे रुडुरे, वर्त० ॥ ८३ ॥ टीपे टीपे सर : भरातुं, उच्च भावना एवी रे, हळंव हळवे उच्च कोटीमां, वृत्ति क्षण क्षण देवीरे. वर्त० ।। ८४ ।। आत्मभावधी उच्च सदा हूं, घरमां के जंगलमां रे; वर्त० ||८६|| एवी रटना अंतर रटशो, भाव प्रभु मंगलमां रे. वर्त० ||८५ || शुद्ध स्वभावे सहुथी मळवु, भजन प्रभुनुं करवुं रे; अंतरना उपयोगे रहें, गुरु चरण अनुसरखं रे. अनेक जननी सोवत थातां, मोह पाश नव पडवं रे; क्रोधावेशाने झट त्यागी, वचन वदो नहि कडवं रे. वर्त०॥ ८७ ॥ दुःख समयमां अंतरथी झट, सुख भावना भावो रे; टळशे दुःखो मळशो सुखो, वर्तमान ल्यो ल्हावो. रे वर्त० ||८८|| उच्च भावथी. क्लेशज टळशे, ज्यां त्यां शांति प्रसरशे रे; For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ उच्च भावथी क्षणमा सुधरी, चेतन धार्यु करशे रे. वर्त० ॥८॥ अडग वृत्तिने उच्चाशयथी, क्षण क्षण शुद्ध थवाशे रे। चेतन श्रद्धा साची थाशे, कर्म कलंक कटाशे रे. वर्त० ॥९॥ शांति स्थळ चेतनने जाणी, समता सत्य पमाशे रे; जीवनकळा बहु उच्च थवाथी, चेतन रुद्धि कमाशे रे. वर्त०॥९१।। वर्तमान परिणति जो निर्मल, निर्मल चेतन कहीए रे; मलीनता मायानी त्यागी, सरल भावथी रहीए रे. वर्त० ।।९२|| मनने सत्तामा राखीने, अशुभ विचारो हरीए रे. हृदय स्थानमां ध्यान लगावी, अन्तर्मुख संचरीएरे वर्त० ॥९३॥ जडतो जडभावे परिणमशे, चेतन चेतन भावे रे .. भेद ज्ञानथी निजमां वर्ती, भव्यो शिव सुख पावे रे. वर्त० ॥९॥ उत्पत्ति स्थिति ध्रुवताने, वर्तमानमां वरवी रे; षड्गुण हानि वृद्धि धारी, अंतर्मुखता करवी रे. वर्त० ॥९॥ पररमणता ज्ञाने त्यागी, थइए निजगुण रागीरे; निजगुण रागी जन सौभागी, वर्तमान वडभागीरे. वर्त० ॥९॥ अंतर्मुखता राखी ध्याने, परमब्रह्मने ध्यावोरे; निज शक्ति निजमा परिणमता,सायिक लब्धि पावोरे.वर्त०॥९७॥ संयमथी शक्ति बहु प्रगटे, जो जो चित्त विचारीरे; जीव अनंता पाम्या मुक्ति, स्वरुप साचुं धारीरे. वर्त० ॥९८|| विपयकषाये शक्ति घटती, अनुभवथी ए भाख्युं. रे; पर पुद्गल परिणामी चेतन, पर स्वभावे दाख्युं रे. वर्त० ॥९.९।। ज्ञान ध्यानथी मोहावरणो, क्षणमां भव्य निवारोरे; धैर्य धरीने प्रवृत्तथाओ, मळ्यो समय केम हारोरे. वर्त०॥१००॥ जेवू धारो तेवू करशो, सुधर निज हाथेरे; परम प्रभु सत्ताने ध्यावो, कह्यु त्रिभुवन नाथेरे. वर्त०॥१०१॥ For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारा खोटा यावं हाथे, नही नाखो पर माथेरे; मनमांमकलाओ शुं प्राणी, शुभकृत्य निज हाथेरे, वर्त० ॥१०२|| पोते प्रभुछो सदुधमथी, करशो तेवू पाशोरे, रत्न द्वीप मनुभवने पामी, खरी कमाणी कमाशोरे. वर्त०॥१०॥ पूर्व भवनी करी कमाणी, वर्तमान भोगवतारे; खरी कमाणी वर्तमाननी, भावदया मार्दवतारे. वर्त० ॥१०४॥ समतानां फल मीठां जाणी, शुद्ध विचारो सेवोरे; सदाचारथी उत्तम थाशो, पामो शिवमुख मेवोरे. वर्त० ॥१०५॥ उत्तम नीति उत्तम रीति, निर्मल मनहुं करीएरे; संकट पडतां धैर्य धरीने, जय लक्ष्मी झट वरीएरे. वर्त० ॥१०॥ जडथी तृप्ति नहि चेतनने, उच्चभावथी शांतिरे चेतनभावे चेतन शांति, जाशे दुःखनी भ्रांतिरे. वर्त० ॥१०॥ कोइक निंदे कोइ बगाडे, उच्चभाव नहि त्यांगोरे; उच्चभावथी वर्तन उच्चु, समजी साचु जागोरे. वर्त० ॥१०॥ मूर्खपणाथी कोइक भांडे, तोपण क्रोध न करशोरे; तेनुं पण सारु चिंतव, तारोने वळी तरशोरे. वर्त० ॥ १०९ ॥ कपट करीने कोइ फसावे, तोपण दीन न थारे; उच्चभाव आतमनो ध्यावो, दुःखमां सुख कमावूरे. वर्त० ॥१०॥ कोइक क्रोधी कपटी कहेशे, समता लेश न छंडोरे; क्रोध कफ्टथी न्यारो चेतन, उच्चभाव नहि खंडोरे. वर्त० ॥१११॥ कोइक पाखंडी कहेवे पण, जरा न दुःखी थइएरे; दंभपणाथी चेतन म्यारो, उच्चभाव मन वहीएरे. वर्त० ॥ ११२॥ रोग थतां पण धैर्य धरीने, भावो हुँ निरोगीरे; सत्ताथी हुं सदा निरोगी, अनंत सुख गुण भोगीरे. वर्त० ॥११३॥ बाह्यलक्ष्मीनो व्यपगम थातां, शोक जरा नहीं करीएरे; For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शानादिक लक्ष्मीनो भोगी, उचभावना वरीएरे, वर्तः ॥११४|| मित्रो पण जो शत्रु थावे, तोपणे समता धरशोरे; मित्रभावना खरा हृदयथी, भावी मंगल वरशोरे. वर्त० ॥१५॥ अशुभ विचारोना प्रतिपक्षी, शुभ विचारो करवारे कोइक देव डगावे तोपण, पग पाछा नहीं धरवारे. वर्त० ॥११॥ अदेखाइथी कोइक भंडं, दुर्जन करवा धारेरे; एवानी पण दयां चिंतववी, प्रेमभावथी भारेरे. वर्त० ॥ ११७ ।। सर्व जगत्मां भाव शांतिथी, भव्यो शिव सुख वरशोरे; आत्मभाषथी भव्यो सर्वे, शिव सन्मुख संचरशोरे. वर्त०॥ ११८॥ जीव करु सहु शासन रसिया, उच्च भावना सारी रे, तरतम योगे उच्च भावने, भावो नरने नारीरे. वर्त० ॥११९॥ पडता जनने सा करीने, उच्च भावमा स्थापो रे परम करुणा दृष्टि धारी, संकट वल्लिकापोरे. वर्त० ॥१२०॥ आ मारो आ मुजथी जुदो, भेद भावना त्यागीरे; पोताना सम सर्वे जीवो, भावो थइ गुण रागीरे. वर्त० ॥१२॥ सत्ताथी सहु परम ब्रह्म सम, जीवो सहु संसारीरे; ब्रह्म दृष्टिथी जोतां क्षण क्षण, बनो शुद्ध ब्रह्मचारीरे.वर्त॥१२२॥ शुद्ध ज्ञानने ध्यान प्रतापे, कर्मनो पडदो चीरोरे; उच्च भावथी नजरे निरखो, साचो चेतन हीरोरे. वर्त० ॥१२॥ उच्च भावथी अन्तर शुद्धि, प्रगटे उत्तम बुद्धिर, अशुभ लेश्यास्कंधो नासे, प्रगटे शाश्वत ऋद्धिरे. वर्त० ॥१२४।। असंख्य प्रदेशी चेतन व्यक्ति, साची छे निज भक्तिरे षट्कारक निजमा परिणमता, सकळ कर्मथीं मुक्तिरे.वर्त०॥१२५।। आत्मोन्नतिमा उद्यम करवो..परनी इयां वारीरे; परोन्नतिमां शुभ पोतानु, वर्तो शिक्षा धारीरे, वर्त० १२६|| For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९५७ धान दुनियामां रहे, मर्म वचन नाहि कहें, रे; खरो बखत आवे मनमोहि, उच्च भावथी रहेवुं रे, बर्त० ॥१२७॥ उच्च भावताना अभ्यासे, चिदानंद जयकारीरे; पग हेटळ रुद्धि छे परगट, जाशो नहीं जन हारीरे बर्त० ॥ १२८ ॥ चोरी झारी चुगली त्यागी, सद्गुण माला वरीएरे; ado || १३१ || कदी न हलको परने पाडो, दुःखि जन उद्धरीएरे. वर्त० ॥ १२९ ॥ उच्चभावथी सुधरे छे जन, सहु जनने सुधरखंरे; क्षायिक भावे निजगुण पामी, परम ब्रह्मपद बरबुंरे. वर्त० || १२० || आश्रवते संवरतुं कारण, उच्चभावथी थावे रे; ज्ञानिजनने संवर शुद्धि, साची मनमां भावेरे. अमुक दोषी अमुक पापी, एवं दील न धारोरे; सत्ताथी निर्मल छे सर्वे, मनमां नित्य विचारोरे. वर्त० || १३२ ॥ ज्ञानदानने अभयदानथी, उत्तम जीवन करीएरे; परोपकारे मननी शुद्धि, निर्भय स्थाने ठरीएरे. परमदया कारक योगीनी, पासे सिंह जो जाबेरे; क्रूरभावने दूर करीने, दया हृदयमां लावेरे. जाति बैर तजीने पशुओ, योगी पासे बेसेरे; उच्चभावनो अदभूत महिमा, समजु चित्त प्रवेशेरे. वर्त० ॥ १३५ ॥ उच्चभावथी मुनिवर ज्ञानी, शांति जग फेलावेरे; वर्त० || १३३ ॥ वर्त०॥१३४॥ अनार्यने पण आर्य करीने, मुक्ति पुरी लेइ जावेरे. वर्त० | १३६ ॥ योगीजनना शरीर वायुथी, सर्पादिक विष नाशेरे; उच्चभावनो अद्भुत महिमा, समजुने समजाशेरे. वर्त०॥१३७॥ तप जप दानादिक आचरणो, उच्चभावथी प्रगटेरे; विषयवासना द्वेषादिक दोष, उच्चभावथी विघटेरे. वर्त० | १३८ ॥ उच्चभावथी मुनिवर था, उच्च भावयी ज्ञानीरे; For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ उच्च भावधी अवधूत योगी, शुद्ध भाव मस्तानीरे वर्त० ॥ १३९ ॥ उच्च भावयी जन छे राणा, उच्च भावधी शाणारे; अनुभवामृत पीतुं प्रेमे, योगी जन मस्तानारे. वर्त० ।। १४० ।। उच्च भावथी अजरामर पद, सुख अनंतु बरबुंरे; सादि अनंति स्थिति पामी, कदी न मरतुं खरखुंरे. वर्त० || १४१ || वर्तमानमां धर्माभ्यासे, जीवन सर्वे गाळोरे; केवल ज्ञान अने दर्शनथी, मुक्तिपुरीमां म्हालोरे. वर्त० ॥ १४२ ॥ उच्च भावना भेद घणा छे, अनुक्रमे सहु लही एरे; अनुभव मंगल माला पामी, परम महोदय वही रे. वर्त० | १४३ || क्षायिक शुद्ध स्वरुप मजानुं, पोतानुं झट वरीएरे; उच्च भावना निशदिन ध्यावो, केम परने करगरीएरे. वर्त० ॥ २४४ ॥ वर्तमानमां शुभ कृत्यो थाशो, उच्च भावने माटेरे; उच्च भावनी युक्ति मोटी, युक्ति सदगुरु हाटेरे उच्च भावनी वृद्धि थाशे, गुरु प्रतापे घटमां रे; मन मर्कट भटके नहि दोडी, घटमां केवळी पटमां रे. वर्त० ॥ १४६ ॥ मनथी भवने मनथी मुक्ति, नीच उच्च आशयधीरे; खराभावथी वर्तो ज्यां त्यां, भव्यो उच्च हृदयधीरे वर्त० ।। १४७।। कित्ताथी जे कक्को घुटे, तेपण बी. ए. थावेरे; उच्च भाव तेम निशदिन वधशे, ज्ञानी मनमां आवेरे वर्त० ॥ १४८ ॥ बार भावनाना अभ्यासे, संयम शिखरे चढीएरे; अशुभ विचारो जे जे आवे, तेनी साथे लढीएरे. वर्त० ॥ १४९ ॥ बाभावी कदी न उंचा, अन्तरमांहि समजोरे; अन्तरंग परिणामे उंचा, निशदिन तेमां रमजोरे बर्त० ॥ १५० ॥ आत्मभावमां क्षण क्षण रहेवुं, कोइने कांइ न कहेवं रे; सद्गुरु चरण कमलमा रहेनुं, गुरु वचनामृत पीबुंरे. वर्त० ।। १५१ ।। For Private And Personal Use Only वर्त० ॥ १४५॥ ।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहेणी सम रहेणीने राखी, सदाचारथी रहीएरे; अन्तरना उपयोगे जागी, परम प्रभुने लहीएरे. वर्त० ॥ १५२॥ सद्वर्तनथी उच्चकोटीमां, वर्तमान परिणमीएरे; उच्चभावथी उच्चशक्ति छ,मोह वने नहि भमीएरे. वर्त० ॥ १५३ ॥ एक समयरूप वर्तमाननु, वर्णन अत्र न कीg रे; व्यवहारे लौकीक रुढीथी, वर्तमान फल लीधुरे. वर्त० ।। १५४ ॥ अनुमोदन जे धर्म कृत्य, भूतकाळy ग्रहीएरे; भूत पापना पश्चात्तापे, वर्तमान गहगहीएरे. वर्त० ॥ १५५ ॥ सदाचार जे धर्म पन्थना, निशदिन तेने पाळोरे; पापकर्मनी वृत्ति टाळी, धर्मपंथ अजुवालो रे. वर्त० ॥ १५६ ॥ जे जे हेतु धर्मपंथना, व्यवहारे शुभ दाख्यारे तेनुं खंडन कदी न करीए, वीरजिने सहु भाख्यारे. वर्त० ॥१५७॥ उच्चभावना जे हेतुथी, थावे तेने ग्रहीएरे; खंडन मंडनमा नहि पडीए, सुगुरु शरणमा रहीएरे. वर्त० ॥१५॥ सद्गुरु मुनिवर आज्ञा धारी, धर्म कृत्य सहु करीएरे; गुरुविना नहि ज्ञान कदापि, भवपाथोधि तरीएरे. वर्त० ॥१५९॥ स्तरछंदतानी टेवो त्यागी, गुरुशरण चित्त धरीएरे; सद्गुरु मुनि कृपाथी सहेजे, मुक्ति पंथ अनुसरीएरे. वर्तः||१६०॥ संवत् ओगणीश चोसठ साले, श्रावणवद सुखकारीरे; पंचमीने दीन रविवार शुभ, रचना कीधी सारीरे. वर्त०॥१६१।। प्रमथ प्रहरमा रचना पुरी, करतां मंगल मालारे; नगर माणसा चोमासामां,अनुभव सुख विशालारे. वर्त०॥१६२॥ सुखसागरजी सद्गुरु मोटा, धर्म पंथमा धोरीरे; समता संगे निशदिन मुखी, अनुभव हाथे दोरीरे. वर्त० ॥१६॥ गुरु कृपायी मनमा आवी, स्फुरणा अत्र प्रकाशीरे; For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुद्धिसागर अनुभव ज्ञाने, शाश्वत सुख विलासीरे. वर्त० ॥१६॥ मळ्या वखतनी सार्थकता छ, धर्म पंथमा गाळेरे सम्यग् भावे भणशे गणशे. ते शिदमंदिर म्हालेरे. वर्त॥१६५|| प्रेमभावथी जे जन वांचे, धर्म ग्रंथ जयकारीरे; तेना घरमां अनुभव प्रगटे, भणशो तत्व विचारीरे. वर्त० ॥१६६॥ अनुभवामृत सागर झीली, पामो शिव मुख ऋद्धिरे; पुष्यार्क योगनी पेठे जगमां, थाशो ग्रंथ प्रसिद्धिरे. वर्त०॥१६७।। आत्मप्रेमानन्द. आत्मप्रेम आनंद विनानु, जीवन लुखु छ जगमां; आत्मध्यानथी अनुभवीने, आनंद व्याप्यो रगरगमाः ॥ १ ॥ सर्व माणीने पोताना सम, देखो ध्यानी जग जोगी; अनुभवामृत फळने स्वादी, कदी न थावे ते रोगी. ॥२॥ उच्च भावथी ज्यां त्यां वर्गों, विषय विनानो प्रेम धरो; आत्म प्रेमनो स्वाद लह्या वण, फोगट ज्यां त्यां केम फरो.||३| आत्म प्रेमथी जीवन मीटुं, अनुभवथी नजरे दीडं आत्म प्रेम वण मोह दशाथी, जगत् छे दारु पीढुं. ॥४॥ आत्म मेमथी मुक्ति जावू, आत्म प्रेमथी रंगावू आत्म प्रेमथी समता आवे, आत्म प्रेम गंगा न्हावं. ॥५॥ आत्म प्रेमनुं वर्णन करवू, हस्तथकी जलधि तरb; आत्म प्रेमथी सुखी जग जन, आत्ममेममा मन धर. ॥६॥ श्रद्धा भक्ति योगे प्रगटे, आत्म प्रेम जगमा भारी आत्म प्रेमनी अकळ कळामां, लक्ष्य लगावो नरनारीः ।।७।। भात्म प्रेमनी सत्य खुमारी, विषयामंदी नहि जाणे For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म प्रेम सरवरमा झीली, अनुभव सुख योगी माणे. ॥८॥ ॥ ९ ॥ आत्म रमणता आत्म प्रेम छे, आत्म प्रेमनी बलिहारी; आत्म प्रेमथी वर्ते शांति, आत्म प्रेम छे जयकारी. आत्म प्रेमी सुखनी ल्हेरो, आत्म प्रेमथी क्रोध गळे; आत्म प्रेमथी उज्ज्वल लेश्या, मुक्ति दशामां जीव भळे ॥१०॥ आत्म प्रेममां जे रंगाशे, अनुभव तेने झट थाशेः आत्म प्रेमनी वातो मोटी, पाम्या ते मन हरखाशे ॥ ११ ॥ आत्म प्रेम छे सुखनो दरियो, द्वेषादिक दोषो खाळे; आत्म प्रेमनी खामथी बहु, दुनिया क्लेशी कलिकाळे. ॥ १२ ॥ वैरझेर निंदानी टेवो, आत्म प्रेमथी शिघ्र टळे; शत्रुओ मित्रो झट थावे, अकळ कळाने कोण कळे. ॥ १३ ॥ सुखवृत्तिथी दुनिया सघळी, सुखवाळी भासे छे अहो; आत्म प्रेमनो अद्भुत महिमा, आत्म प्रेममां लीन रहो. ॥। १४ ॥ सुखनी लीला भरपूर भासे, आत्म प्रेमधी सत्य लहो; आत्म प्रेमी लीनता मळशे. समजी भव्यो लीन रहो. ।। १५ ।। आत्म प्रेमी सज्जन जीवो, धर्म पंथमां दोराशे जाति वैर पण आत्म प्रेमथी, जोशो झट निर्मूळ थाशे ॥ १६ ॥ आत्म प्रेमी कुंटुंब दुनिया, आत्म प्रेमनी टेव खरी; वीर प्रभु आत्म प्रेमी, शाश्वत सिद्धि शीघ्र वरी ॥ १७ ॥ दुर्जनजन पण आत्म प्रेमथी, सज्जनताने झट धारे; वीर मञ्जुर फणीधर बोध्यो, आत्म प्रेम चुगली बारे. ।। १८ ।। आम्म प्रेमी परमदया छे, करुणावृष्टि जग प्रसरे; जगदुद्धारक आत्मबंधु छे, तारे ने वळी आप तरे ।। १९ ।। आत्म प्रेमियो उज्ज्वल ध्याने, चिदानंदना घट भोगी; आत्म प्रेमीनी निर्मलवाणी, आत्मप्रेमी तरशे योगी. ॥ २० ॥ For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मप्रेमथी सर्व सरीखा, शिवमंदिर सज्जन पावे त्रणभुवननो नाथ बनेछे, ज्ञानी जन जगमां गावे. ॥२१ । आत्मप्रेमथी प्रफुल्ल मुख९, नीच भावने दूर करे; त्रस थावर जीवोना रक्षक, आत्म प्रेमीओ शांतिवरे. ॥२२ । दया धर्मनुं मूळ खरु एम, सज्जनना मनमां आवे सदाचारनी शुद्धि धारे, आत्मिक प्रेमे जय थावे. ॥ २३ । चेतननी श्रद्धा थावाथी, आत्म प्रेम मनमा आवे; आत्म प्रेमथी भक्ति प्रगटे, ध्यान दशा मनमां भावे. ॥२४॥ आत्म प्रेमवण पुगल ममता, कदी न छूटे वात खरी; आत्म प्रेमथी धननी ममता, नासे भालुं सत्य धरी. ॥२५॥ मारो जीव मुजने जेम व्हालो, तेम अन्यनो मन धरवो आत्म प्रेमनो अर्थ मुणीने, सत्य पंथ ए अनुसरवो. ॥ २६ ॥ दोष दृष्टिनो नाश खरेखर, सद्गुण दृष्टि बहु खोले; आत्म प्रेमथी नवधा भक्ति, अनंतभव पातिक पीले.॥२७ । आत्म प्रेमीजन कीर्ति पामे, आत्म प्रेमी छे उपकारी; आत्म प्रेमनी छे बलिहारी, समजो मनमा नरनारी. ॥ २८ ॥ मिथ्या अघडा धर्म भेदना, आत्म प्रेमथी सहु नासे; आत्म मेमथी धर्म फेलावो, मिथ्यादृष्टि दूर थाशे. ॥ २९ ॥ शुद्ध निश्चयनयथी आतम, निर्मल परमातम सरखो। चेतननी सत्ताना प्रेमी, भविकजन मनमा हरखो. ॥ ३०॥ सातनयोथी चेतन जाणी, चेतननी प्रीति करवी; आत्म प्रेमथी पुद्गल प्रीति, क्षणीकने सहेजे हरवी. ॥ ३१॥ आत्म प्रेम प्रशस्य कह्यो छे, उच्च भावने करनारो, हिंसा जूढुं चोरी मैथुन, ममतादिकने हरनारो. देव गुरुने धर्म राग सम, आत्म रागने प्रेम कहो; For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्व जीवोपर आत्म प्रेमथी, सद्गुण दृष्टि सघ वहो. ॥३२॥ आत्म प्रेमथी गंभीर दृष्टि, मोडं मन तो झट थावे । चिदानंद चेतनमय मूर्ति, परखे हरखे सुख पावे. ॥ ३४ ॥ बाह्य विषयमा मन नहीं भटके, चंचळता मननी नासे; शुद्ध दशामा स्थिरोपयोगे, अनुभव मंदिर मुख भासे. ॥३१|| शांति मार्दव आर्जव मुक्ति, तप संयमने सत्यपणुं; शौच आकिंचन ब्रह्मचर्यदश, आत्म प्रेमी पामे एम भणुं ॥३६॥ पंच महाव्रत आत्म प्रेमथी, धारे सद्गुरुनी शिक्षा ब्रह्मदृष्टि खीले छे निशदीन, शिक्षाथी पाळे दीक्षा. ॥ ३७॥ अन्य जनोपर गुस्सो थातां, आत्म प्रेम मनमा लावा; हिंसानी बुद्धि थातां पण, आत्म प्रेम मनमां भावो. ॥ ३८ ॥ अशुभ विचारो परिहरवाने, आत्म प्रेम औषध मोडं, चिंतामणि सम तेनो महिमा, वचन जाणशो नहि खोटं.॥३९॥ कल्पवृक्षने काम कुंभ सम, आत्म प्रेम महिमा सारो; आत्म प्रेमथी मुक्ति मळे छे, अनेकांत मत निर्धारो. ॥४०॥ संवत ओगणीश चोसठमांहि नगर माणसा चोमासुं; श्रावण वद पांचम रविवारे, वर्णन कीधुं छे खासुं. ॥ ४१ ॥ भणी गणीने आत्म प्रेममां, वर्ते ते पामे ऋद्धि पुण्यार्क योगनी पेठे पामो, बुद्धिसागर सुखसिद्धि. ।। ४२ ।। मंगल. मङ्गालपद अरिहन्त छ, मङ्गलपद छे सिद्ध; मङ्गलपद आचार्य छ, उपाध्याय गुण ऋद्ध. पंचम माल साधु छे, परमेष्टी एपञ्च; ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२॥ ॥४॥ गातां ध्यात प्रेमथी, कर्म रहे नहि रश्श.. नमस्कारना ध्यानथी, प्रगटे शक्ति अनन्त सर्वोत्तम मङ्गल सदा, करे कर्मनो अन्त. शाश्वत सुख देनार छे, मङ्गल पद नवकार; सर्वमन्त्रनुं सार छे, जगमां जय करनार. कामकुम्भ चिन्तामाणि, कल्प वल्लिसम एह; नमस्कार महामन्त्रने, स्मरतां गुण गणगेह. चार निक्षेपे ध्याइए, महामन्त्र नवकार; चिदानन्द घट उल्लसे, होवे भवजल पार. चउद पूर्वनुं सार छे, स्मरतां नासे दुःख; बुद्धिसागर ध्यानी, होवे शाश्वतं सुख. ॥६॥ - आत्मज्ञान. दुहा. आत्मज्ञान करीए सदा, चिदानन्द गुणधाम; आत्मज्ञानथी जाणीए, नही रूपके नाम. आत्मा सत्ने नित्य छे, कर्म ग्रहण करनार; कर्म हरण पण ते करे, निज पर्यायाधार. रत्नत्रयि साधी मुदा, पामे शाश्वत स्थान; आत्म प्रभुनी धारणा, करतां प्रगटे ध्यान. अन्तर्दृष्टि साधना, साधक शुद्धि थाय; ज्योति निर्मल झळहळे, अजरामर पद पाय. अन्तर्दृष्टि उपासना, क्षायिक गुण उपास्य; सापेक्षाए साध्य छे, साधनन्त पद वास्य, ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६॥ चिद्घन तमाशुद्धता, शुद्ध ध्यानथी याय; 'तिरोभाव मिज ऋद्धिनी, आविर्भाव पमाय. जिनपद निमपदमा रह्यु, शाने शुद्ध जणाय; बुद्धिसागर जिनदशा, अन्तरमा परखाय. ॥७॥ गुरुश्रद्धा. सद्गुरु श्रद्धा दुर्लभा, दुर्लभ भक्ति उदार; गुरुनी आज्ञा पाळवी, जेवी असिनी धार. ॥१॥ गुरु श्रद्धा भक्ति यकी, होवे मङ्गलमाल; सद्गुरु पदनी सेवना, टाळे सहु जंझाळ. ॥२॥ सद्गुरु वण ज्ञान ज नहि, गुरुवना नहि धर्मः सद्गुरुनी आराधना, टाळे सघळां कर्म. ॥३॥ गुरु कृपाथी ज्ञान छे, गुरु कृपाथी सुख; गुरु कृपाथी शान्ति छ, नासे सबळां दुःख. ॥ ४ ॥ सद्गुरुनी भक्ति यकी, पामे शिष्यो धर्म गुरु देवनी सेवना, आपे शाश्वत शर्म.. ॥५॥ गुरुदेव चिन्तामाणि, गुरुजी सूर्य समान; गुरु पूजा जे जन करे, ते पामे कल्याण. गुरुजी धर्माधार छे, गुरु आलम्बन सार; बुद्धिसागर सद्गुरु, ज्ञानी जगदाधार. ॥ ७॥ स्यादादमार्ग. स्वादाद दर्शन थकी, चेतन ज्ञान पमाय; षड्दर्शन सापेक्षता, त्यारे सर्व जणाय. ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वादना ज्ञानथी, जाणे सहु परमार्थ स्याद्वादना ज्ञान वण, भटके मन वाह्यार्थ. ॥२॥ स्याद्वादना ज्ञानथी, हठ कदाग्रह त्याग; स्याद्वादना ज्ञानथी, प्रगटे मन वैराग्य. स्याद्वादना ज्ञान वण, तत्त्वग्रहे एकान्त; स्याद्वादना ज्ञान वण, कदी टळे नहि भ्रान्त. ॥ ४ ॥ स्याद्वादना बोधथी, नासे मिथ्या गर्व रत्नत्रयिनी साधना, ऋद्धि प्रगटे सर्व. सूक्ष्म तत्त्वना ज्ञान वण, अन्तरमा अन्धेर; सूक्ष्म तत्त्वना ज्ञानथी, चिदानन्दनी ल्हेर. रमवू आत्म स्वभावमा, वागे मङ्गलतूर; धुद्धिसागर ध्यानी, चिदानन्द भरपूर. ॥७॥ चिदानन्द ल्हेर घटमां. चिदानन्दनी ल्हेरो घटमां, केम पहुं हुं खटपटमां, बाह्य भावमां कदी न शान्ति, केम पहुं हुं लटपटमां. ॥ १॥ अन्तरमां शांति छे साची, श्रद्धा तेनी खरी ठरी.. चेतन गुणनी अनन्त लीला, अनुभवी में दील खरी. ॥२॥ स्थिरोपयोगे सुरता लागी, भूलाणी दुनियादारी; रंगायो अनुभवना रंगे, प्रगटी ज्योति जयकारी. ॥३॥ शान्तदृष्टिथी सघळे शान्ति, भास्यो अनुभव अन्तरमांक आतम ते परमातम पोते; भास्युं साधु भणतरमां. ॥४॥ लय लागी अन्तरमा प्यारी, अकळकळा प्रभुनी सारी; प्रगटयुं अजवाळु अन्तरतुं, नाटुं मिथ्यातम भारी. ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देखु ते पोते हुँ निश्चय, स्वपर प्रकाशी सुखकारी; अनुभव प्याला पीधा प्रेमे, कदी न उतरे खूमारी ॥६॥ बीजाने कहेवू शा माटे, वाणी अगोचर निधार्यो, मारब्ध योगे कथ लखवू, पण सहुथी हुँ छ न्यारो. ॥ ७ ॥ समजे समजु मस्तानो कोइ, अवधूत योगी खेलाडु बाह्य भावनी भ्रान्ति टाळी, अन्तर सद्गुण अजवाळु.॥ ८ ॥ अलख देशमा निशदिन रहीशु, निराकार पदने वरशु; बुद्धिसागर अलख ध्यानथी, निर्भय ठामे झट ठरशुं. ॥९॥ विनयस्वरूप. भलो विनय छे भलो विनय छे, विनये विद्या झट आवे; विनयहीन मानव मन गंदु, निर्मल शी रीते थावे. ॥१॥ वैरियो पण विनय मन्त्रथी, वशमां थावे छे जाणो; विनय देवतुं साधन करतां, सहु ऋद्धि घटमां मानो. ॥२॥ मोटा जननो विनय करंतां, यशडंको जगमां वागे; विनयवन्तने मंत्र फळे छे, सर्वजनो पाये लागे. ॥३॥ मन वाणी कायाथी करीए, विनय मजानो सुखकारी; विनय विनानी विद्या बंध्या, फळ आपे नहि जयकारी. ॥ ४ ॥ विनयवन्तने मान मळे छे, आत्मज्ञान पण ते पामे; विनय विनानो मनुष्य गद्धो, दुःख पामे ठामो ठामे. ॥५॥ मोरपूठ शोभे छे जेवी, तेवी हीन विनय काया; विनयहीनने विद्या आपे, ते मूढा पण नहि डाह्या.. ॥६॥ कांह्या काननी कूतरी पेठे, विनयहीन नहि ठगम ठरे; सद्गुरुनी आसानो लोपी, विनयहीन भवमांहि फरे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फणिधरने जेतुं पयपानज, अविनयिने विद्या तेवी; विनयहीनने विद्या देतां, दुर्गतिनी वादन लेवी. विनय मजानो विनय मजानो, विनेय शिष्यो सुख पावे काचा घटमां जलनी पेठे, अविनयने विद्या भावे. विनय भक्ति श्रद्धाळु जनने, आत्म ज्ञान देवं साधुं बुद्धिसागर द्रव्य भावधी, विनयभावमांहि राखुं : For Private And Personal Use Only 112 11 ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ परमार्थ वाणी. ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ मोहदशा उपशान्त थया वण, साचो रस्तो नहि सुझे; तीव्रकषायो मंद पड्या वण, सदुपदेशे नाहि बुझे. सन्त मळ्या पण अक्कड रहेवे, आत्महित ते नहि साधे । दास बनीने गुरु सेव्या वण, सदुपदेशे नहि बाधे. श्रद्धा भक्ति जे जे अंशे, ते ते अंशे धर्म लहे गुरु कृपाथी धर्म मळे छे, जिनेन्द्र वाणी एम कहे.. तन मन गुरुने अर्पण करतां, गुरुवाणी मनमां उतरे जाग्रत गुरुनी सेवा करतां भवपायोधि भव्यतरे. शंकाकांक्षानुं मूळ बळतुं, गुरुवाणी मनमां धरती; मन आनन्दी प्रफुल्ल मुखड, सद्गुरुनी आज्ञा वरतां. जंगमतीर्थ मुनीश्वर गुरुना, चरणे रहीप दास बनी गुरुकृपाथी करमां परखो, शाश्वत चेतन भव्यमभिः ॥ ६ ॥ अध्यात्म ज्ञानोदधि मुनिगुरु, चरण सेवना सुखकारी एवा गुरुना दास बन्याथी, ज्ञानकळानी तैयारी:: निष्कामपणाथी सद्गुरु सेवा, जे करशे ते भव तरशे)। अचळ महोदय शुद्ध सनातन, रत्नत्रयी मेमे वरशे.. ॥ ५ ॥ ॥ ३॥ ॥ ४ ॥ 1111 112 11 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मतत्व लक्ष्यार्थ ग्रहीने, तन्मय चित्ते धर्म करो! बुद्धिसागर परम प्रभुता, प्रगटावी आनंद बरो. ॥९॥ धर्म सूत्रमां स्वार्थ त्यागः ॥ 11 3 11 धर्मसूत्र भणो भणावो, पैसा माटे फोक अरे; स्वातणी फांसीने माटे, धर्म न प्रणमे दील खरें. परमार्थपणामां स्वार्थ कर्याथी, स्वार्थतणी स्थिरता थाती; स्वार्थ टळया वण धर्म न प्रणमे, मोटी स्वार्थतणी काती ॥ २ ॥ जो प्रगटे आत्मार्थ प्रेम तो, पैसानी त्यां वात नहीं; For Private And Personal Use Only ॥ ४ ॥ अमृत पण जो विष बने तो, धर्मवासना दूर रही- ॥ ३ ॥ परमार्थ कृत्यमां स्वार्थपणानी, हृदयवासना दूर करो; परम धर्म प्रगटशे तेथी, शाश्वत शिवपद ठाम ठरो. पैसा आदि लालच छोडी, धर्म कृत्य दीलमां धरतुः निष्कामपणाथी उच्चकोटीमां, प्रेमे शट पगलुं भरतुं ॥५॥ उदर पोषण धर्म कृत्यना, नामे करबु ते भूड धर्म प्रेम जागे नहि तेथी, थातुं नहि मनडुं रुडु. धर्माध्यापक शिक्षक आदि, पदवी जे पैसा माटे; ॥ ६॥ अन्ते तेथी थायन सारु, जीव वळतो अवळी वाटे. ॥ ७ ॥ धन आदिनो स्वार्थ तजीने, निष्कामपणाथी धर्म कसे उच्चभावना प्रगटे तेथी, वीर जिनेश्वर धर्म घरो. ॥ ८ ॥ धन्य धन्य मुनिवर सद्गुरुजी, स्वार्थ तजी परमार्थ करे; सफळ सुनिनां धर्म कृत्य सह, शुद्ध हृदयमा धर्म घरे. ॥ ९ ॥ स्वार्थतजीने परमपन्थमा, अधिकारे पगलुं भरतु; बुद्धिसामर धर्मसूमना, उद्देशाने अनुसरखं. ॥ १० ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० आत्मज्ञानिना उद्गार. शुद्ध चेतना स्वरूप रमणमां, अनुभव योगे रंगायो। भूल्यो मिथ्या दुनियादारी, स्वरूप म्हारु हुं पायो. ॥१॥ दुनियानी खटपट सहु छोडी, जोडी सुरता अन्तरमा यन्त्र तन्त्रनी तजी कल्पना, भमुं न माया भणतरमां. ॥ २॥ निन्दो कोइक वंदो कोइक, दुनियानी परवाहनथी; . मनमां आवे तेवु मानो, ल्यो शुं अमृत वारि मथी. ॥ ३ ॥ अळहळ ज्योति दर्शन करशं, बाह्य दशामां नहि फरशु, तरशुं भवजलधिने सहेजे, अन्तरनी वातो करशं. ॥४॥ अलखनी अवधूत दशामां, जगनुं स्वप्नुं भूलायु; हुं तुं नो सहु भेद गयो दूर, भूल्यो सहु मिथ्या गायु.॥५॥ प्रगटयो विजळीनो चमकारो, झळहळ झगमग अजवाईं; कर्तुं न कोने जातुं मुखथी, अन्तर आंखोथी भालु. ॥ ६ ॥ दुनिया मानो के नहि मानो, जरुर तेनी शुं मारे; समज्या तेने सान मळी छे, पोताने पोते तारे. ॥७॥ मूढ कहो के बुध कहो कोइ, तेथी कंइ न जावा, ज्ञान ध्यानमा रहे| रंगे, भावि भाव ते थावान. ॥८॥ अनुभवामृत पीधुं प्रेमे, विषयाशा दूरे वारी; धुद्धिसागर अलखधूनमां, चिदानन्दपद जयकारी. ॥९॥ आत्म देशमा अनन्त सुख. आत्म देशमां सुख अनंतु, मळ्या पछी महि टळवार्नु, आत्म देशनी लीला न्यारी, परम रूपमा भळवानु. ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org اف Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || आत्म देशनी अकळकळा छे, झळहळ झगमग ज्यां ज्योति; अंतरमां उतरी जोवाथी, चेतन ज्ञाने विष्णोति. आत्म देशमां जोगी जागे, परमातम पदने परखे; आप स्वरुपे आप प्रकाशे, समजी हंसा मनहरखे. जन्म जरा मृत्युथी न्यारो, आत्म देश घटमां लावो; मायाना देशो उल्लंघी, आत्म देशमां झट आवो. एकाकार सघळा त्यां भासे, भेदभाव नहि रहेबानो; अलखदेश पोतानो सन्तो, ज्ञान चक्षुथी जोवानो. अलखदेशमां जात भरत नहि, निराकार छे जयकारी; अनंत गुण पर्यायतुं आश्रय, शुद्ध ब्रह्मपद सुखकारी ॥ ६ ॥ दुःख देनारा माया देशो, माया दुःखनी छे क्यारी; सुरता साधो अलख देशमां, अलखदेशनी बलिहारी ॥ ७ ॥ अलखदेशना गुणो अनंता, पामे तेनी हुशियारी; बुद्धिसागर आत्म देशमां, जावो भव्यो नरनारी. For Private And Personal Use Only ॥५॥ ॥ ८ ॥ देह नगर. देह नगरमा जो तुं विचारी, कोण आवीने गया नहीं; अनन्त आव्या अनंत चाल्या, तन धन माया अहीं रही दे० || १ || पाणीमांहि जेतुं पता, देहनगर रचना तेवी; मान मूर्ख मन जूठी काया, परभवनी वाटज लेवी. दे० ॥ २ ॥ काया नगरी कदी न तारी, माने शुं मारी मारी; फजेत फाळको एकदिन थाशे, भ्रान्तिथी भूल्यो भारी. दे० ॥३॥ समज समज मन चेतन डाह्या, समजी ले शिक्षा सारी; आव्या तेने अंते जावुं त्यागी सहु दुनिया दारी. दे० ॥ ४ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काया नमरीना बसनारा, चेत चेत चेतनराया; बुद्धिसागर अवसर पामी, जाग्रत था चिद्घनराया. दे० ॥ ५ ॥ रीस. दुहा. ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥४॥ रीस कदी नहि कीजीए, रीस थकी सन्ताप; वैर झेर प्रगटे बहु, प्रगटे बहुला पाप. अवळी बुद्धि उपजे, हठ कदाग्रह जोर; रीस थकी बहु शोक छे, ठरे न जेवू ढोर. रीस सर्पिणी मन डसे, प्रगटे मिथ्या घेन; प्रेम सम्प टाळे अरे, पडे न रीसे चेन. अकृत्य कृत्य कराय छ, अवाच्य पण बोलाय; व्हालां पण द्वेषी बने, अवळे पन्थ जवाय. अमृत शिक्षा झेर सम, रीसे ऋद्धि विनाश विवाहनी वरसी बने, रीसे कार्य हणाय. ज्ञानी ध्यानी मोटका, रीसे वाळे दाट; रागी पण द्वेषी बने, बेसे उधे खाट. रीसे सन्मति वेगळी, रीसे दूरे धर्म; पग पग रीसे दुःख छ, रीसे बांधे कर्म. तप जप संयम सहु टळे, मळे नहि सुखधाम; क्षमा धर्याथी सन्मति, सिद्धे सघळां काम. रीस तज्याथी शान्तता, पामे सहु कल्याण; बुद्धिसागर सज्जनो, पामे शिवपुर स्थान. ॥८॥ ॥९॥ For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ चिन्ता. बुद्दा. चिन्ताथी चतुराई टळे, चिन्ता चिता समान; चुडेल सम चिन्ता कही, चिन्ता दुःखनी खाण; चिन्तायी नहि चेन छे, सप्त धातु शोषाय; चिन्ता वशमां जे पडया, आकुल व्याकुल थाय. चिन्ताथी शक्ति घटे, करती प्राण विनाश; बळवंता निर्बळ थता, ज्ञान ध्याननो नाश. आर्त रौद्रनुं मूळ छे, चिन्ताथी संताप; धर्म कर्म सुजे नहि, चिन्ताथी बहु पाप. चिन्ता छे महा राक्षसी, क्षण क्षण चूसे माण; सत्यानन्दने टाळती, अंधारा सम जाण. चिन्ता त्यां आनन्द नहि, जुओ विचारी चित्त; महामलीन चिन्ता अरे, होय न भव्य पवित्र. शाश्वत सुख न सम्पजे, पग पग होवे दुःख; चिन्ता करनारा अहो, लहेन शाता सुख. रोग शोक मन उद्भवे, चिन्ताथी संसार; चिन्ता टळतां सडु टयुं, बुद्धिसागर धार. For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ 11911 11 2 11 धर्म रहस्य बोधक. मोहे वनीयो शुं घरबारी, सुरता अन्तरमां नहि धारी, कूड कपटमां निशदिन रातो, पाप करी भोजन खातो; धर्मना व्हाने लक्ष्मी रळतो, तच्च कशुं नहि पातो. मोहे० ॥ १ ॥ घरबारी थइ गुरु थवानी, इच्छा मनमां राखे; Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु संतनी निन्दा करतो, धरन दूर नाखे. मोहे || २॥ पैसा माटे सूत्र भणावे, शिक्षक नाम धरावे; श्रावक एवं नाम धरावे, ज्ञान द्रव्यने खावे. मोहे-- ॥ ३ ॥ पैसा माटे भाषण करीने, लावे घरमां नारी कळिकाळमां सुधारो आ, वाणी बोले प्यारी. मोहे० ॥ ४॥ आजीविका श्रावक चलवे, धर्म पन्थथी मूंडा; उपर सारा अंदर काळा, धर्म धूतारा कूडा. मोहे० ॥५॥ धर्म नामनां फंड करीने, अवळी वात चलावे गणधर वाचक वचन विराधे, कलिकालमां फावेः मोहे ॥ ६ ॥ मुनिवर गुरुनी आण न माने, मनमां आव्युं करता। श्रावक एवा अर्धदग्ध केइ, चतुर्गतिमा फरता. मोहे० ॥ ७ ॥ धर्म द्रव्यनुं रक्षण करता, श्रावकनां व्रत पाळे; बुद्धिसागर सद्गुरु आज्ञा, पाळी धर्मे चाले. मोहे० ॥८॥ प्रासंगिक बोध. श्रद्धा भक्ति वण अंधारु, खूले कदी न मुक्ति बारु, वणी ठणीने चमचम चालो, मगरुरीमा म्हालो, फक्कड फांको थाशे वांको, सज्यो ठाठ सहु ठालो, श्रद्धा ॥१॥ शिरपर टोपी करमां सोटी, चश्मा: आंखे घालो; बीडीनो धुमाडो पीवो, पण अंते तो चालो. श्रद्धा ॥२॥ जमण भ्रमणमा निशदिन रातो, खातो कुलटा लातो; पाप कर्मनी पोठी बांधी, मरी नरकमा जातो. श्रद्धा ॥३॥ टापटीपमां दीवस गालो, धर्म पन्थने खाळो; गप्पा मारो मनमा आन्या, भरवो पड़े उचाको श्रद्धा०॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुविना तो ज्ञान न मळतुं, भाषानुं भणतर काचुं; गुरु विनय वण मान नटळतुं,समजी ल्यो मन साचं. श्रद्धा०॥५॥ स्वच्छंद छोकरवादी टाळी, गुरु भक्ति दिल धरीए; गुरुविनयथी ज्ञानज पामी, मुक्ति वधू झट वरीए. श्रद्धा० ॥ ६ ॥ कंचनदारा त्यागि गुरुना, पगपर मस्तक धरीए; बुद्धिसागर गुरु कृपाथी, भवसागर झट तरीए. श्रद्धा०॥७॥ माया स्वरूप. जगमा माया छे धूतारी, माया अनन्त दुःख देनारी, माया सारी माया प्यारी, माया कामणगारी; अंधी छे मायाथी दुनिया, माया विषनी क्यारीः ज० ॥१॥ कुमतिनी जननी छे माया, प्रगटे चोरी जारी मायानां विष वृक्षो ज्यां त्यां, माया शक्ति भारी. ज० ॥२॥ माया कामण माया टुमण, माया नाच नचावे; मायाना अंधारामांहि, फरतां पार न आवे. ज० ॥ ३ ॥ माया दरियो कोइक तरियो, माया युद्ध करावे; मायामां म्हारु जे माने, ते दुर्गतिमां जावे. ज० ॥४॥ मायानी पूजारी दुनिया, ज्यां त्यां नरने नारी; बुद्धिसागर सन्तो साचा, सुरता अन्तर धारी. ज. ॥५॥ अनुभव. अनुभवामृत स्वादथी, अजर अमर मुख थाय; अनुभव शिव सुख वानगी, परम प्रभु परखाय. ||? ॥ अनुभव केवल ज्ञाननो, लघुभात छे भन्य; For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ अनुभव निश्चय धर्मनो, सर्व थकी कर्तव्य.. अनुभव रङ्ग मजीठनो, उतरे नहि तलमात्र, अनुभव पाम्या जे जना, तेनां अन्यज गात्र. अनुभव ताळी लागतां, दर्शन जिननुं थाय; गवि किरणो प्रगटया थकी, नजरे सर्व जणाय. निश्चय श्रद्धा अनुभवे, शुद्ध रमणता थाय; जे पाम्या ते त्यां रम्या, परने नहीं जणाय. गुरुगम ज्ञानाभ्यासथी; प्रगटे अन्तर दृष्टि; अन्तर्दृष्टि प्रगटतां, देखे निजगुण सृष्टि. उदासीनता त्यां टळे, वदन प्रफुल्ल जणाय; बाह्य फरे प्रारब्धथी अन्तर भिन्न सदाय. अन्तरना उपयोगथी, अखण्ड निजगुण भोगः बुद्धिसागर सिद्ध छे, रत्न यिनो योग. ॥७॥ ॥८॥ द्रव्यभाव विहार. पहेतुं जल निर्मल रहे, मलीन थिर जल थाय; गामो गाम विहारथी, निर्मल मुनि सदाय. सर्व सङ्गना त्यागमा, निमित्त हेतु जे विहार; ममत्व टळतुं वेगथी, उत्तम मुनि व्यवहार. निर्जन स्थान विहारथी; ज्ञानी मन वैराग्य; वैराग्ये मन वर्तता, प्रगटे छे सौभाग्य. मुनि गीतार्थ विहार छे, गीतार्थ निश्रित धार; अल्पागमना ज्ञानथी, एकीलों न विहार.. अन्तरना उपयोगथी, अन्तरमाहि विहार; ॥२॥ ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपशमादिक भावथी, निश्चयनय अनुसार. अन्तरना सापेक्षथी, साचो बाह्य विहार; अन्तरथी निश्चल रहे, भाख्यु शास्त्राधार. पवन फेरवे पर्णने, तेम प्रारब्धे देह; देश विदेशे भटकतुं, निश्चयथी निजगेह. प्रारब्धे विचरे मुनि, स्थिरता निजगुणमाहि बुद्धिसागर सन्तने, सदानन्द घटमांहि. ॥ ७॥ ॥८॥ सत्यबोध. वसे ज्ञान त्यां मान नहि, दामवसे त्यां काम बुद्धिसागर रवि अने, रजनी एक न ठाम. ॥१॥ पर ललना परधन तजे, सेवे सज्जन संग; बुद्धिसागर अनुभवे, परमानन्द तरंग. ॥२॥ मन पाराने मारवा, उत्तम औषध जाण; ज्ञानि जननी सेवना, बीजं अनुभव ज्ञान. वैरमूल वाणी बुरी, प्रेममूल उपकार; दया धर्मर्नु मूल छे, मोक्ष मूळ अनगार. ॥४॥ विनयमूल विद्या कही, शत्रु मूलजे क्रोध; क्षमा मूल सत् सङ्गति, गुरु मूल छे बोध. विवेक मूल सज्जनपणं, धर्म मूल विश्वास; व्यसन मूल इच्छा कही, मोह मूल छे आश. ॥६॥ आत्मज्ञान शिव पन्थ छे, बुद्धिसागर जाण; अनुभवरले जे रमे, ते पामे मुख खाण. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ ॥१॥ ॥३॥ सिद्धान्तामृत. कों कर्म छुटे नहि, भोगवां निर्धार नरपति सुरपति रंक सहु, कर्माधीन संसार. निकाचितजे बांधियां, अष्ट कर्म दुःखकार भोगववां नक्की पड़े, कदी न आवे पार. कर्म करे ते भोगवे, राग द्वेष प्रयोग चतुर्गतिमां भटकवू, कर्म तणो सहु भोग. उदयागत करणी करे, ज्ञानी अन्तर भिन्न नविन कर्म बांधे नहि, अन्तरमा लयलीन. उपशमादिक धर्ममां, ज्ञानि जन उपयोग; बाह्यभाव राचे नहीं, बाह्यभाव छे रोग. ज्ञानदशा विरतिपणुं, करे कर्मनो नाश; स्याद्वादना ज्ञानथी, होवे शिवमा वास. आत्मज्ञाननी तीव्रता, भाव चरणनो योगः बुद्धिसागर भोगवे, शाश्वत सुखनो भोग. ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ शुद्धस्वरूप. शुद्ध स्वरूपाधारमां, वर्ते जो उपयोग परमानन्द पद अनुभवे, निश्चय निज गुण भोगः ॥ १ ॥ चिदानन्दनी ल्हेरियो, प्रगटे आत्ममझार; निश्चय निज चारित्रमा, सिद्ध बुद्ध निर्धार. ॥२॥ निश्चय गुण उपयोगमा, सर्व सङ्ग परित्यागः शुक्ल ध्यान आलम्बने, शुद्ध रमणता लाग. ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टळे मोहनी वासना मळ हळ जागे ज्योत; निश्चय धर्म दशावरे, थावे धर्मोधोत. ॥४॥ अनेकान्तना ज्ञानथी, ध्यावो चेतनराज परम महोदय पद वरो, अखण्ड शिव साम्राज्यः ॥ ५ ॥ सर्वोपाधि त्यांगथी, परमानन्द जणाय; अनुभवी ए अनुभवें, परम प्रभुता पाय. ॥६॥ अनुभवीए अनुभव्यु, ए पद स्थिरता पाय; .. बुद्धिसागर आत्मनु, प्रभुपणं परखाय. ॥७॥ योग विषय. नाभिकमलमा सुरसा साधी, गगन गुफामां वास कों; भूलाणी सहु दुनियादारी, चेतन निज घरमांहि ठयों ॥ १॥ चिदानन्दनी हेरि घटमां, अनुभवी नहि जाय कहीं; होडमीज रंगाणी रङ्गे, झळहळ ज्योति जागी रहीं ॥२॥ इन्द्रासनमी पण नहि इच्छा, वन्दन पूजन मान टळ्यु; अलख निरञ्जन स्वामी मळीयो, जलबिन्दु जलधिमां भव्यु।३। नहि कोई रागी नहि कोई द्वेषी, दृष्टा साक्षीभूत रह्यो नाम रूपथी न्यारो परख्यो, वाणीथी नहि जाय कह्यो .॥४॥ अनन्त शक्ति स्वामी भेट्यो, ज्यां जोर्बु त्यां अजवाळू उलट आंखथी आव्यों घटमां, अनन्त लक्ष्मी घर भालु.॥५॥ मन वाणी कायादिक रचना, प्रारब्धे ते बनी रही। साक्षी भूत हुं तेंनी रहियों, अकळ कळा नहि जाय कही॥६॥ उलटयो शाश्वत सुखनो दरियो, परा पार पण नहि पावे; बुद्धिसागर धन्य जगत्मा, शाश्वत शिव मन्दिर जावे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैराग्यामृत. पणी ठणी शुं फूले फूलण, छेवट सहु चाल्यु जाशे . अमर रहा नहि कोइ आजगमां,पाछळथी तुं पस्तावे. ॥१॥ म्हारु माने फोगट प्राणी, हारु कोइ न थानारु; सगा संबंधी गाडी लाडी, अन्ते सर्वे जानारु. ॥२॥ जेजे इच्छे ते सहु जाशे, माया वाडी करमाशे; मरडी मूछो मन शुं म्हाले, पाछळथी खत्ता खाशे. ॥ ३ ॥ मगरुरीथी मन शुं म्हाले, केम अवळे रस्ते चाले अणधार्यो अरे काळ पकडशे,छति आंखे केम नवभाळे. ।।४।। बडाइनां शुं बणगां फूंके, भवाइनी भुंगळ वागे; समज समज चेतन मनमांहि, वाळ हवे मन वैराग्ये. ॥ ५ ॥ दुनियानी खटपट सहु खोटी, जीवननी आशा मोटी; अन्ते तो अणधार्यु जावं, साथे आवे नहि लोटी. ॥६॥ दुनियामां सुखनी आशा नहि, तजो विषयनी पिपासा; साधु सुख चेतन, शाश्वत, माया संगि जन दासा. ॥ ७ ॥ आव्यो अनुभव रहे न छानो, अंतरमा साचुं मानो बुद्धिसागर सिद्ध निरंजन, दशा लह्याथी मस्तानो. ॥८॥ अलख फकीरी. अलखफकीरीमा सुख शान्ति, बाकी दुनियामां भ्रान्ति; अलखफकीरी मांहि रहे, दुनियानुं कहेवू स्हे. ॥१॥ अलखफकीरी धून दशामा, परम प्रभु दर्शन होवे; अनुभव दर्शन पामी दृष्टा, पोताने पोते जोवे. ॥२॥ स्याद्बाद नय अलखफकीरी, वर्ते त्यां नहि दीलगीरी; For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१ ॥ ५ ॥ अन्तर सृष्टि लीला प्रगटे, लोह संग तेजंतुरी. स्पृहा नहि तलभार जगत्नी, नामरूपथी हुं न्यारो; कोइक निन्दो कोइक वंदो, समभावे घट उजियारो ॥ ४ ॥ दुनियानी खटपट लटपटमां सुखनुं चिन्ह न देखातं : पोताने पोते देख्यो त्यां, कांइ न जातुं नहि थातुं. जुओ विचारी जुओ विचारी, देह देवळमां संन्यासी; सन्यासीनी अकळकळाने, देखतां नहि उदासी. ध्याने ध्यावुं अन्तर गावं, सुरताथी दीलमां लां; परम प्रभुनुं दर्शन दीडं, बाह्यभावमां नहि जावं. अलख फकीरी भोगववामां सात धाततो रंगाणी; बुद्धिसागर अलखफकीरी, आनंदकारी मस्तानी. 7 For Private And Personal Use Only ॥ ३ ॥ ॥ ६ ॥ 119 11 ॥ ८ ॥ आत्मज्ञानप्रकाश. आपस्वरुपे आप प्रकाश्यो, नातुं सहु हुं ने मारु; वदवं व्यवहारे हुं मारु, शुद्धरूप निश्चय न्यारु. औदयिक योगे फर हरवु, अन्तरथी न्यारा रहें; भिन्न भिन्न जड चेतनवृत्ति, निजधन तो निजने देवुं ।। २ ।। अन्तरदृष्टिथी सह जोबुं, परिणमुं नहि परभावे; ध्यान धारणामां हूं पोते, पोते पोताने ध्यावे. चेन पडे शुं दुनिया रंगे, आतममांहि रंगातां; चेन पडे नहि बाह्यमदेशे, प्रदेश अन्तरमां जातां रूप रागमां मोज मझा शुं, अन्तरथी निश्रय धार्यो; शरीरमांहि वास कर्यो पण, निश्चयथी हुं हुं न्यारो ॥ ५ ॥ ११ ॥ १ ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કર स्याद्वादनयदृष्टि देखं वस्तुरूप साधुं भासे; 9 नाम कहूं तो नाम न तेनुं, गुरुगमथी ते परखाशे ॥ ६ ॥ अनुभव आव्यो ढळे न टाळ्यो, सिद्धबुद्ध हेतु थाशे; बाह्यभाव विसारी देतां, साचो अनुभव परखाशे. सत्ताथी छे सिद्ध समोवड, नवधा भक्तिथी पूजो; अकळकळा जगजीवननी छे, समजे तेहिज नहि बीजो. ॥८॥ परम महोदय शाश्वत लक्ष्मी, समय समय तेनो भोगी; बुद्धिसागर गावो ध्यावो, क्षायिक शाश्वतपद योगी. ॥ ९ ॥ For Private And Personal Use Only ॥ ७ ॥ तर्कवितर्क. ॥ १ ॥ तर्कवितर्क करो करोडो, चर्चार्थी मस्तक फोडो; अहंवृत्तिघोडा पर बेसी, मनमां आवे त्यां दोडो. विषय विचारो करो हजारो, पण आवे नहि भवपारो; दुनियानी खटपटमां खूंची, फोगट मानवभव हारो ॥ २ ॥ देह बंगलो जीव मुसाफर, अणधार्यो अन्ते जाशे; आंख मींचा कशुं न हाथे, पाछळथी तो पस्ताशे ॥ ३ ॥ स्वमाजेवी जगनी माया, पाणीमांना पडछाया; सगांसंबंधी मूकी जावं, स्त्री धन पुत्र अने काया ॥ ४ ॥ चेतो झटझट चेतो झटपट, छंडी दो दुनियाबाजी; बाह्यभावनी तृष्णा छोडी, अन्तरमा रहेशो राजी. मोहभावनी खटपट छोडी, आतमने सेवो ध्यावो; बुद्धिसागर शाश्वत लक्ष्मी, लेवानो मळीयो ल्हावो. ॥ ६ ॥ ॥५॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चितिशक्ति. चितिशक्तिने गोळखवाथी, समजाशे घटमां ऋद्धि चितिशक्तिना पूर्णपणाथी, क्षायिक भावेछे सिद्धि. आत्मज्ञान वण जग अंधारु, आत्मज्ञान अर्पे सारु; आत्मज्ञान वण बाह्यदशामा, निशदिन जाणो अंधारु. ॥२॥ आत्मज्ञान वण कदी न शान्ति, टळे नहि भवभय भ्रान्ति; आत्मज्ञान उपयोग दशा वण, प्रगटे नहि अन्तर कान्तिः ॥ ३ ॥ आत्मज्ञान रविना उद्योते, मिथ्यातम झट अळपाशे; सोहं सोहं रटना योगे, परगट पोते परखाशे. ॥४॥ आत्मज्ञान वण अंधो मानव, भटकेछे भवमां भारी; आत्मज्ञान वण कदी न टळती, जोशो आ दुनियादारी ॥ ५ ॥ हरिहर ब्रह्मा खुदा स्वयंभु, पोते पोताने देखे। आतम ते परमातम साचो, बाकी सघळु उवेखे. ॥६॥ तपजप किरिया दीक्षा भिक्षा, आत्म ज्ञान वण छे काची; आत्मज्ञानथी मुनिपणुं छे, भव्यो रहेशो त्यां राची. ॥७॥ सकळ सूत्रनुं सार प्रकाश्यु, आत्मज्ञान वर साचुं; मत कदाग्रह तेथी टळशे, ते वण भणतर सहु काचुं ॥ ८ ॥ म्हारे तो चिन्तामाणि फळीयो, आत्मज्ञान घट परखायं बुद्धिसागर अनेकान्त नय, समजी म्हार में पायुं. ॥ ब्रह्मचर्य ॥ पर परिणतिथी न्यारा रहेवे, निश्चयथी ते ब्रह्मचारी निश्चयथी जे ब्रह्मचारिछ, तेनी जगमा बलिहारी. For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ५ ॥ आत्मज्ञानथी पर परिणतिता, त्यागी मिश्रय ब्रह्मचारी; आत्मज्ञान वण वृषभं विगेरे, बाह्यशीलना आचारी. द्रव्य थकी ब्रह्मचारी होवे, मिध्यात्वी जे अज्ञानी; परपणितिथी भवमां भमता, वात जरा नहिछे छानी. भाव थकी ब्रह्मचारी होवे, अनेकान्त मतनो ज्ञानी; भाव ब्रह्म ते उपादान छे, भाखेछे जिनवर वाणी. भाव ब्रह्मनुं कारण साचं, द्रव्यब्रह्म ते ज्ञानीने; समजण साची शास्त्रे भाखी, सुज पढे नहि मानीनेद्रव्य शीयल ते रंकसमुं छे, भाव शीयल सुरपति सरखं; द्रव्य थकी पण अनन्त महिमा, भाव शयिल जाणी हरखूं. ।। ६ ।। भावकी ब्रह्मचारी थातां, मुक्ति करतलमां साची; भाव ब्रह्ममां अनन्त शक्ति, रहेतो ज्ञानी त्यां राची, भाव ब्रह्मव्रत शून्य हृदय जन, द्रव्यब्रह्मथी मन फूले; भाव ब्रह्मनी प्राप्ति वण ते भवभ्रमणमांहि झूले. द्रव्यभावथी जे ब्रह्मचारी, जगमां तेनी बलिहारी; सापेक्षा सर्वे साचुं, सपजे समकित अवतारी, द्रव्यशीयलथी भावब्रह्मनी, अलखदशामां रंगायो; बुद्धिसागर भाव ब्रह्मनो अनुभव घटमांहि पायो. For Private And Personal Use Only ॥ २ ॥ 11.3 11 11811 ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ लक्ष्मीसतानी उपाधि. लक्ष्मी सत्तानी उपाधि, प्रगटावे व्याधि आधि; लक्ष्मी सत्ताथी न्याराने, जल्दी घटमां ल्यो साधी ॥ १ ॥ विष्ठासम दुनियाना माने, वध्यं न कांइक हुं मानुः, लक्ष्मी ललनानी लालची, ब्रह्मतत्व रहियुं छातुं ॥ २ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेक वांचो नवरस ग्रन्थो, मायाना ए सहु पन्थो रहे वासना जडनी दीलमां, काचा एवा सहु ग्रन्थो. ॥ ३ ॥ जड संगी ते खरा कुरंगी, जड वस्तुना भीखारी; लक्ष्मीदारो ते कहेवाता, ए पण मिथ्यातम भारी. ॥४॥ करो हजारो करो हजारो, उद्यम लक्ष्मीना माटे; तन धन मूकी अंते जावं, बहेती चतुर्गति वाटे. ॥५॥ खावो पीवो हसो मुवो पण, आंख मिचाए अंधारु; जोयुं सघळु चाल्युं जाशे, फूले तुं शाने सारूं. त्वरित चेतो त्वरित चतो, काळ झपाटा शिर देतो; केइक चाल्या केइक चाले, परभवनो पन्थज वहेतो. ॥७॥ धर्म करो झट धर्म करो झट, मळीयुं नरभवतुं टाणुं; प्रपंच मायाना सहु छोडी, च्यावो गावो जिनगाणु. ॥८॥ अमूल्य अवसर अमूल्य अवसर, पामी प्राणी शीघ्र तरो; बुद्धिसागर अलखनिरंजन, ध्याने शाश्वत सिद्धि वरो. ॥९॥ आत्मज्ञान महत्ता. अनेक भाषा भणतर योगे, जगमां पंडित कहेवाशो; सायन्सनो अभ्यास करो तो, प्रोफेसर तेना थाशो. ॥१॥ जेवी वृत्ति तेवा थाशो, करी कमाणीने खाशो; मूळतत्त्वने शोधो जगमां, मायाथी नहि भरमाशो. ॥२॥ आत्मज्ञाननी प्राप्तिवण तो, आत्मोन्नति न थानारी उच्चभावना आत्मज्ञानथी, परम महोदयपद भारी. ॥३॥ सर्वदेशमां सर्वकाल मां, आत्मज्ञानवण अंधारु; आत्मज्ञानवण कदी न टळशे, मोहत| म्हारु हारु. ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५॥ शोधो घटमां शोधो घटमां, सातनयोना ज्ञानवडे, चउनिक्षेपा सप्तभंगीथी, सम्यक् चेतन तत्त्व जडे. चेतन परखो चेतन परखो, चेतनने जाणी हरखो; देह सृष्टिनो कर्ता हर्ता, चलवे छे तनुनो चरखो. असंख्यभानु चंद्रतेजपण, जेना तेज थकी भासे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, झळहळतो घटमां पासे. ॥६॥ ॥७॥ मन चंचळता. ज्यां सुधी मननी स्थिरता नहि, त्यां मुधी चंचळ वेळा; मननी चंचळता भवहेतु, मळे नहि अनुभव मेळा. ॥१॥ क्षण क्षण मांहि नव नव रंगो, मननी चंचळता योगे; मन चंचळता चेतन चंचळ, योगी चंचळता रोके. ॥२॥ हस्तिकर्णवत् ठरे नहि मन, त्यां सुधी भवमा भमवू चतुर्गतिमां मन भटकावे, बाह्य दशामांहि रमवू. आत्मज्ञानवण चित्त ठरे नहि, करो उपायो जो कोटी; योगाष्टक अभ्यास कर्याथी, उच्चजीवन आशा मोटी. ॥४॥ ज्ञानाभ्यासे मन वाळ्याथी, मन पारो ठरशे ठामे; अन्तरमा उपयोगे रमतां, मननी निश्चलता जामे. ॥५॥ वैराग्ये मनटुं वाळ्याथी, बाह्यविषयथी मन अटके; श्री सद्गुरुनी श्रद्धाभक्ति, योगे मनडुं नहि भटके. . ॥ ६ ॥ श्री सद्गुरुनी परम कृपावण, मन चंचळता नहीं टळे; आलंबन सद्गुरुनु मोडं, गुरुकृपाथी शर्म मळे. ॥७॥ गुरु भक्तिथी ज्ञान सहजछे, ज्ञाने शुद्ध क्रिया होवे; आप स्वरुपे आप प्रकाशे, पोते पोताने जोवे. ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७ गुण स्थानकमां नीपनशे गुण, अनुक्रमे मननी स्थिरता; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, योगे परम प्रभु वीरता. ॥९॥ कइवस्तुमां राचुं. शुं राचुं हुं ललनातनुमां, गंदी छे स्वीनी काया; शुं राचुं हुं धन सत्तामां, जूठी छे तेनी माया. शुं राचुं हुं वाडीमांहि, वाडीनी छे नश्वरता; जे जन जेमां राचे प्रेमे, तेमां ते जन अवतरता. शुं हुं राचुं शरीरमांहि, शरीर पण जुईं थातुं; शुं हुं राचुं मोज मझामां, तेमां सुख न परखातुं. शुं हुं राचं मिष्टजमणमां, मिष्टजपण विष्टा थाती; शुं हुं राचुं स्नान कृत्यमां, शरीर शोभा करमाती. ॥ ४ ॥ शुं हुं राचुं युवापणामां, चार घडीनुं चांदरj; शुं हुं राचुं रमत गमतमां, परभव जातां नहि शरj. ॥५॥ शुं हुं राचुं हवा दवामां, हवा दवा मूकी जावू; शुं हुं राचुं मित्रवृन्दमां, अंते तो न्यारा था. शुं हुं राचुं स्वजन कूळथी, अंते कोइ न छे बेली; शुं हुं राचुं मात जनकमां, जूदां वखत. वहे छेली; ॥७॥ शुं हुं राचुं शिष्य वर्गमां, तेथी चेतन छे न्यारो; शुं हुं राचुं चमत्कारमां, अंते चेतन छे प्यारो. ॥८॥ शुं हुं राचुं बाह्यभावमां, कांइ न अंते सुख थातुं; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, पामे साचुं परखातुं. For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सद्गुरु बोध. कृपा करी सद्गुरुए बोध्यो, विवेक वस्तुनो आप्यो; जड वस्तुथी भिन्न बतावी,जिन पदमा निजने थाप्यो. ॥ १ ॥ बाह्य विषयमा दुःख बताव्यु, अन्तरमा मुख समजाव्यु; मोहभावमां भव दर्शाव्यो, स्थिरतामां मनडं आव्यु. ॥२॥ स्याद्वाददर्शननो अनुभव, गुरुकृपाए घट पायो नामरुपी न्यारो भास्यो, ब्रह्म तेजमय परखायो. ॥३॥ चित्तत्तिना शम्या उछाळा, प्रारब्धे बोटु चालु गुणस्थानक शिखरपर चढवा, अभ्यासे मन वाळु. ॥ ४ ॥ अनुक्रमे अभ्यास करीने, परम महोदयपद वरशु; गुणपर्याय स्वरुप रमणता, अन्तरना ध्याने करशुं. ॥५॥ स्पृहा नथी तलभार जगत्नी, कीर्तिआशा परिहरी; अन्तरने बाहिरमां समता, अन्तरमांहि दृष्टि धरी. ॥६॥ असंख्यमदेशो मांहि वसवू, सहजस्वभावे अवधायु सर्व संग परित्यागावस्था, शुद्ध चरण घटमां धार्यु. ॥७॥ जड स्वभावे जडता रहेशे, चेतन चेतनता लेशे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, योगे सार्चे परखाशे. ॥८॥ मन मळवाथी अन्तर वार्ता थायः चित्त मळ्या वण दिलनी वातो, बीजाने नहि कहेवाती; चित्त मळ्या वण प्रेम थया वण,खरी वाततो नहि थाती. ॥ १ ॥ निष्काम प्रेमथी चित्त मळे छे, श्रद्धाना योगे वहेलं; भक्ति योगे चित्त मळेछे, ए वण जाणो नहि रहेठे. ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म प्रेमथी ज्ञान मळे छे, प्रेम बिना नहि उच्च दशा; 11 8 11 श्री सद्गुरु मन मेळवावा, उक्त उपायो दील वश्या ॥ ३ ॥ विनय विना नहि विद्या मळती. विनये प्रसन्न गुरु होवे; मन निर्मलता तेथी थाती, पोते पोताने जोवे. उच्च ज्ञानवण उच्च भाव वण, अनुभवदर्शन नहि थातुं; सूत्रसार छे अनुभव दर्शन, ज्ञानिथी ते परखातुं सूत्रतनी गहन शैलीनो, अनुभव ज्ञानिओ जाणे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, योगे ज्ञानी सुख माणे. ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ चेतनशक्ति खीलवणी. सार सार सहु सूत्रतणुं छे, चेतन शक्ति खीलववी: खीले छे संयमधी शक्ति, ध्याने निज शक्ति भजवी ॥ १ ॥ असंख्य योगे शक्ति खीलती, अन्तरमांहि अवधारो; For Private And Personal Use Only ॥ ३ ॥ परम महोदय जीवनी सत्ता, आविर्भावे भव्य करो. ॥ २ ॥ निमित्त हेतु अनेक दाख्या, उपकारकने आदरवा; आत्मतत्त्वने साध्यगणीने, निमित्त हेतुने बरवा. निमित्त हेतु नय व्यवहारे, ज्ञानी ज्ञान थकी जाणे; अन्तरनी शक्ति खीलववा, पोतानो मत नहि ताणे. ॥ ४ ॥ चित्त प्रेम भक्तिनी स्फुरणा, प्रगटे निमित्त तेह वरो; क्षयोपशमथी जेमां रुचि, निमित्त साचां अनुसरो. समज्यावण शुं निमित्त करशे, ज्ञानविना औषध खावुं; सद्गुरुवैद्याज्ञाथी वर्तो, अभ्यासे शिवपुर जानुं, सद्गुरुवैद्य सलाह विनानुं, औषध भक्षण दुःखकारी; सद्गुरुनी आणा सेवनथी, निमित्त कारण जयकारी ॥ ७ ॥ 11 9 11 ॥ ६ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हठ कदाग्रह तजी निमित्तने, अनुसरवु मे सारु, बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, प्रगटे परखातुं प्यारु. ॥८॥ - शाश्वत सुख अभ्यास. शाश्वत सुख अभ्यास कर्याथी, शाश्वत सुखडा प्रगटाशे; सर्वसंग परित्याग कर्याथी, अनुभव अन्तरमा था. ॥१॥ सर्वसंग परित्याग हेतुने, आदरवा समजी प्रेमे; व्यवहार चरित्रादिक हेतुछे, अवलंबो समजी नेमे. ॥२॥ जे जे अंशे निरुपाधित्व, ते ते अंशे धर्म खरो आत्मज्ञानथी टळे उपाधि, समजी साचुं भव्यवरो. सर्वत्र जो समानदृष्टि, ज्ञानादिक प्रगटे सृष्टि; सर्वत्र जो दया भावना, धर्म मेघनी ए दृष्टि. ॥ ४ ॥ उच्चभावना जो सर्वत्र, उच्चपणुं अन्तर प्रगटे; धर्मक्षमा गुण प्रगटे त्यारे, मोहारि शक्ति विघटे. ॥५॥ सर्व देशमा सर्व कालमां, चिदानंद संगी था; परपरिणतिनो त्याग करीने, शिवपुरमाहि झट जावू. अनुभवामृत स्वाद लह्याथी, मनटुं अन्तरमां ठरशे; अन्तरमा उतर्याथी भव्यो, परमब्रह्मपद अनुसरशे. ॥ ७॥ सर्व जीवोमां तिरोभावथी, वर्ते छे पद जयकारी; ज्ञानाभ्यासे आविर्भावे, प्रगटे ऋद्धि सुखकारी. ॥ ८॥ हठ कदाग्रह ममता त्यागी, सत्य तत्त्व संगी थावू बुद्धिमागर ज्ञानदिवाकर, योगे शाश्वत पद ध्यावं. ॥९॥ For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्पज्ञान हानि. अल्प ज्ञान त्यां हाण अति छे. अल्पज्ञान भाषण खोडं; अल्पज्ञानथी तत्त्व न मळशे, अर्धदग्ध धार्यु छोटुं. ॥१॥ अल्पज्ञानथी अवळी वाटे, मनुष्यनुं मनई जाशे; जे हरायुं ढोर भमे छे, तेवू मनडुं भटकाशे. ॥२॥ अल्पज्ञानथी मन चंचळता, सत्य असत्य न परखाशे; भमे भमाव्यो अल्पज्ञानथी, समजु मनमां समजाशे. ॥३॥ आत्मतत्वना सूक्ष्म ज्ञाननो, मर्म न जाणे अज्ञानी; अल्पज्ञानथी वादवादा, वळगे माया मस्तानी. जेवी अवस्था त्रिशंकुनी, अल्पज्ञानथी छे तेवी; बक बकाटो अल्पज्ञानथी, समजी ज्ञानदशा लेवी. ॥५॥ अनेकनयनी सापेक्षाने, समज्याथी सहु समजाशे; मिथ्या ममता त्यारे जाशे, परमब्रह्म पद परखाशे. ॥ ६ ॥ त्रिदोषियूँ जेवू मनडु, अल्पज्ञानिनुं छे तेवू; समजी ज्ञानदशा आदरवी, लघुताथी ज्ञानज लेवू. ॥७॥ गुरुकृपा मेळवी विनये, गुरुकृपाथी ज्ञान मळे सद्गुरुपद पंकजना सेवक, मुक्तिपुरीमा जइ भळे. ॥८॥ अल्प ज्ञानथी निश्चय नहि छे, भव्यो समजशो मनमा बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, आनन्दघन छे अन्तरमा. ॥९॥ योग्यता. भण्या गण्या पण ज्ञान न ठरतुं, भूल पडी त्या भणतरमां; महेल. चणान्यो पण जो हाले, भूल पडी त्यां चणतरमा. ॥ १ ॥ सिंहणर्नु पय ठाम न उरतुं, कनकपात्र वण भूल खरी; For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु थं क्रोधे धगधगतो, क्षमा विनानी भूल ठरी. औषध खाधुं रोग वध्यो त्यां विना वैयथी भूल पडी; नित्य शान्ति यदि यह नहीं, दीक्षावस्था केम बडी. पुनः विचारो पुनः विचारो, स्थिरोपयोगे ध्यान धरो; श्रद्धा भक्ति धैर्य प्रयोगे, भवसागरने शिघ्रतरो. असद् विचारांना गोंटाळा, टाळी शुद्ध विचार करो; मनोद्रव्य उज्ज्वलता थाशे, अनुक्रमे आनन्द वरो. शुद्धानन्द विनानो उद्यम, शा माटे नाहक करवो; भव तृष्णानो पार न आवे; लोभ दोषने परिहर वो. द्रव्य क्षेत्र ने काल भावथी, उत्तम अवलंबन सेवो; वैराग्ये मन वाळी भव्यो, पामो शाश्वत सुख मेवो. उपशम क्षयोपशम अभ्यासे, क्षायिक गुण घट मगटाशे बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, झगमगती ज्योति भासे. For Private And Personal Use Only ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || 119 11 ॥ ६ ॥ || 09 || ॥ ८ ॥ उपाधि. उपाधिमा चित्त न ठरतुं, जंझाळे मनई भटके; आ अवकुं मनहुं दोडे, मर्कटवत् मनडुं सटके. अनेकजन संसर्गे मन, अंतरमांहि केम वळे: बाह्यभावमां मन चंचळता, स्थिरतामांहि नहि भळे. ॥ २ ॥ वाकयोगो त्याग कर्याथी, पामो सुसाधक योगो; उपाधिथी दूर रह्याथी, पामो शाश्वत सुख भोगो. उपाधियां उच्च दशा शी, समता योगो अळपाशेः उपाधि छे महा डाकिनी, उपाधिथी सुख जाशे. बायोपाधिमा नहि शान्ति, उपाधियी अलग रहो ॥ १ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाधि छे विषना प्याला, तजी उपाधि मुख लहो. ॥५॥ अन्तरमाहि मुख सदा छे, बाह्य जगत्मां दुःख सदा; अन्तरमाथी ममता त्यागी, ध्यान रहेशो भव्य मुदा. ॥ ६ ॥ खावू पीवं मारब्धे पण, अन्तरथी न्यारा रहे बाह्योपाधि ममता त्यागी, समताए सर्वे रहे. ॥७॥ जेणे पीधा समता प्याला, तेणे अनुभवथी दीर्द अन्तरमांहि सुख सदा छे, ज्ञानिजन मनमा मीटुं. ॥८॥ भूली भान जगत्र्नु खोडं; परम प्रभुतुं ध्यान धरो; बुद्धिसागर अनुभवामृत, पान करीने शर्म वरो. ॥९॥ उपाधिपीडाना उद्गार. अरे उपाधि केम तुं वळगी, माराथी थाने अळगी; खरे उपाधि तुं छे होळी, शाने माटे तुं सळगी. ॥१॥ हडकवायु कुतर पेठे, संगत त्हारी हडकाइ; परम ब्रह्मद् भान भूलावे, कदी न थाती तुं डाही. ॥२॥ अरे उपाधि तुजी आधि, व्याधि पण तुं प्रगटावे; शिकोतरीने चुडेल तुं छे, दुःखना खत्ता खवरावे. ॥3॥ राजन साजन महाजन मोटा, तुं वाळे तेना गोटा; फांसी शूळाथी पण बूरी, मारेछे दुःखना सोटा. ॥४॥ उपाधि तुं बडी पापिणी, अधुना अळगी था व्हेली; कहे उपाधि छोडं नहि जीव, दुःख देवामां हुं पहेली. ॥ ५ ॥ अमृत सरखी माने मुजने, तो कम हुँ तुजने छोड़ें. मारा वशमा आये तेनु, फूलाची मस्तक फोडूं. सत्ता हारी प्रगट करीने, माराधी थाने अळगी For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ कोण तेडवा आव्यु हतुं के, जेथी तु मुजने वळगी. ॥ ७ ॥ उपाधिनां वचन सुणीने, चेतन अन्तरमा वळीयो। बुद्धिसागर शांति पामी, परम ज्योतिमां झट भळीयो.।। ८ ।। तत्त्वमसि. तत्वमसि महावाक्य श्रवणथी, अनेकान्तनय ज्ञान करो; स्याद्वादीने प्रणमे सम्यक्, चिदानन्दपद चित्त वरो. ॥१॥ तत् शब्दे श्रीसिद्ध बुद्ध ते, त्वं शब्दे छे तुंहि खरो; असि क्रियामां अन्वय करीने, तत्त्वमसिनुं ध्यान धरो. ॥२॥ तत्त्वमसिपद वाच्य सिद्ध तुं, संग्रह नय सत्ताथी छे तत्वमसिपद वाच्य सिद्ध तुं, शब्दादिक नयथी तुं छे. ॥३॥ सत्ता व्यक्ति सापेक्षाए, तत्वमसि सिद्धालयमां; ज्ञानदशाथी सम्यक् जाणे, पडे नहि ते भवभयमां. ॥४॥ उपर उपरना नयथी अत्र, व्यक्तिप्रभावे तत्त्वमसि; जे जे अंशे निरुपाधित्व, ते ते अंशे तत्त्वमसि. ॥ ५॥ एवं भूतथी केइक सिद्धया, समभिरुढथी सिद्धया कोइ; शब्द वडे तेम सिद्धज कोइ, तत्त्वमसिपद घटमां जोइ. ॥६॥ व्यवहति संग्रह नगमथी, सिद्ध बुद्ध पण कहेवाता; तत्त्वमसिना सम्यग् ज्ञाने, परम प्रभु घट परखाता. ॥७॥ शब्दनयोथी तत्वमसिने, अर्थ नयोथी तत्त्वमसि जीवद्रव्य ते तत्वमसि छे, श्रद्धा साची दील वसी. . ॥८॥ नित्य निरंजन परमेश्वर तुं, माया ममता दूर खसी; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, सोहं सोहं तत्वमासि. For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानदशा जीवन. ज्ञानदशामां जीवन जातु, लेखे ते जगमा आवे; ज्ञानदशामां रमणा कर्याथी, ध्यान दशा स्हेजे थावे. ॥१॥ ज्ञानदशामां अनंत आनंद, सहजपणे घट प्रगटे छे; अहंवृत्तिनुं जोरज टळतुं, मिथ्यातम झट विघटे छे. ॥२॥ ज्ञान दशामा सामायक छे, ज्ञान दशामां पूज्यपणुं श्वासोश्वासे सर्व कर्म क्षय, ज्ञान दशाथी धर्म पj. ॥३॥ ज्ञान दशाथी अनन्त शक्ति, चेतननी झट खीले छे; ज्ञान दशाथी समतासरमां, जीव हंसलो झीले छे. ॥४॥ ज्ञानदशाथी अन्तर स्थिरता, ज्ञानदशानी बलिहारी; शत ज्ञानिनो अभिमाय एक, ज्ञानदश जग जयकारी. ॥५॥ आत्म ज्ञानथी परम प्रभुता, परखे छे चेतन घटमां; चेतनमांहि अनन्तऋद्धि, भूले नहि ते खटपटमां. ॥६॥ ज्ञान दशाथी निःसंगी थइ; अन्तरदृष्टि वाळेछे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, पामी सुखमां म्हाले छे. ॥७॥ आत्मध्यान. नित्य निरंजन निराकार हुं, अजरामर निर्मल योगी; असंख्य प्रदेशी चेतन हुँ छ, अनन्त मुख गुणनो भोगी. ॥१॥ अनंत गुण पर्याय स्वरुपी, निजपर ज्ञेय तणो ज्ञाता; अनन्त केवल ज्ञान स्वरुपी, ध्येय ध्याननो हुं ध्याता. ॥२॥ तनु मन वचनातीत हुं छ. सिद्ध बुद्ध भगवान् सदा; अखंड निर्भय अविनाशी हुं, हरिहर ब्रह्मा इश खुदा. ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापक ज्ञाने व्याप्य स्वरूपी, अनन्त क्षायिक शक्ति धणी; परम महोदय परम म हुँ, आनंदघन चेतन दिनमणि ॥ ४ ॥ अज स्वयंभु परमेश्वर हुं, जगन्नाथ जग जयकारी; बिभु अकलने अलख रूप हुं, अनन्त रत्नत्राये धारी. नाम रूपथी न्यारो हुं हुं जड सृष्टिथी भिन्न खरो; चेतन सृष्टिनो हुं माळी, अनन्त, समता जलनो झरो. ॥ ६ ॥ विश्वेश्वर हुं नित्यनियंता, विमलाचल पदमां वासी; चाद्य भावनो नहि हुं कर्त्ता, शत्रुंजय गंगा काशी. स्थिति व्ययपद धारी, समय समयमां हुं भोगी; निरागीने निद्वेषी हुं, अधिकारी ने निर्योगी. पोतानामां पोते हुं हुं, अरिहंत सत्ता धारी; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, पामी परखो सुखकारी. For Private And Personal Use Only 114 11 119 11 || 2 11 ॥ ९ ॥ देह तंबुरो. देहतंयुरो सात धातुनो, रचना तेनी बेश बनी; इडा पिंगला सुषुम्णा, नाडीनी शोभा अजब घणी ॥ १ ॥ त्रण तारनी गेवी रचना, त्रण आंगुलीथी वागे; अष्टस्थानथी शब्द उठावे, मन मोहन मीढुं लागे. अनेक रागने अनेक रागणी, चेतन तेनो गानारो; रजस्तमोगुण सत्वभावना, जे आवे ते गानारो. पिंड अने ब्रह्मांड भावने, देहतंबुराधी गांव daiथी बहिर सुणावे, मध्यमा प्रेरक थावे. परापश्यंतीथी गानारो, अलख अलख उच्चरनारो; श्रुतमयोगे परापश्यंती, भाषामां ते गानारो, ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 11 11 ॥ ५ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देह तंबुरो मलखधूनमा, परापश्यंतीथी पाने जाग्रत् तुपोवस्थामांहि, चेतन पथानामे जाये. देह तंबुरो श्री तीर्थकर, वगाडता वैखरी योगे; शब्द मुणीने भव्यजीवो तस, ज्ञान करे अनुभव योगे. ॥ ७ ॥ देह तंबुरो वगाडनारो, चिदामन्द घटमां जागे; बुद्धिसागर अलख धूनमां, अनन्त सुख छे वैराम्ये. ॥८॥ कर्तव्यकृत्य. धाम धूममा हसाहसीमां, मन चंचळता वधे अति; गप्पां सप्पा आडॉ अबळां, मारे ते तो मूढमति. रूप रागा भटके मनडुं, त्यां सुधी छे बाह्य दशा आत्मभावमा चित्त रमणता, त्यारे प्रगटे धर्म दशा. ॥२॥ गुरु गीतार्थाज्ञाए वर्ती, अशुभ संकल्पोने हरो उच भावना वधशे निशदिन, आनन्दपन घटमांहि वरो. ॥३॥ उच्च भावना करवाथी झट, मनोद्रव्य निर्मल थाशे; मनोद्रव्यनी उज्ज्वलताथी, उच्चदशा बस्ती जाशे. ॥४॥ उच्च दशा. जीवनमा चेतन, अनुभव अमृत पान करे; देह छतां पण विदेहत्ति, अन्तरमाह भव्य वो. सत्यानन्द खुमारी योगे, अलख धूनमा मित्य रहे; परम प्रभुना दर्शन देखी, त्रण भुक्ननुं राज्य लहे. अकथ्य कथनी शुं कहेवाशे, समजु मना समजाशे; झान ध्याननी बातो न्यारी, गुरुकृपाथी परखाशे. ॥७॥ मुंगाए तो गोळज खाधो, बीजाने शुं तेह कहे; जेणे अनुभव प्याला पीधा, ते जन तेनो स्वाद कहे. ॥८॥ ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगम्य वातो अटपटी छ, शानी योगी पार लहे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, योगे स्थिरता भव्य वहे. ॥९॥ - - - - सारांश बोध. करो विचारो भले हजारो, बाह्यभावना छ खोटा बाह्यभावमां नीच दशा छे, कदी न थाता जन मोटा. ॥१॥ खीलेली फुलवाडी अंते, जल विनानी करमाशे; कुटुंब ललना गाडी वाडी, जोतां जोतां सहु जाशे. ॥२॥ बज्र पेटीमां भले प्रवेशो, काळ झपाटो त्यां वागे; अन्तरदृष्टि खील्याथी जन, धर्मदशामांहि जागे. ॥३॥ जुत्ता घालो टोपी पहेरो, राखो विलायती चहेरो. न्हावो धुवो कपडा पहेरो, पण अंते तो अंधेरो. ॥४॥ छाकी ताकी जुओ अंगना, मनमां आवे ते बोलो। काळ कोळीओ फरशे अन्ते, प्रचंड काळ नहि भोळो.॥५॥ मनमां आव्युं त्यां तो म्हालो, पाप पन्थमाहि चालो; डाह्या डमरा बणोठणो पण, भरवो पडशे उचालो. ॥१॥ करोड लाखो पतियो थाशो, पण अंते खाली जाशो. पाप कर्मने करो भले पण, छेल्ली वारे पस्ताशो. ॥७॥ दुनियामां मस्तानी माया, वाळे छे अवळी वाटे; ज्यां त्यां मायानां धींगाणां, मुक्तिमाल छे शिर साटे. ॥८॥ मनुष्य जन्मने पामी भव्यो, धर्मकृत्यथी सफळ करो बुद्धिसागर लक्ष्मीलीला, जाग्रत् तुर्यावस्था वरो. ॥९॥ For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करवा लायक शिष्य. विना विचारे शिष्य करो नहि, शिक्षायण नहि धो दीक्षा, विनेय शिष्यो कोइक विरला, पुनः पुनः करशो ईक्षा. ॥१॥ दुःखना मायर्या शिष्यो थावे, पाळे नहि गुरुनी आणा; विनय विनानां ढोर हरायां, जेवा ज्यां त्यां छवराणा. ॥२॥ निर्धन कोइक मुंड मुंडावे, समजे नहि शुं केळवणी; स्वारथनी ज्यां मारामारी, दृष्टिरागनी मेळवणी. ॥३॥ स्वार्थ सर्यो के गुरुजी आघा, गुरुद्रोही जगमा फरता; लवरी निन्दा ज्या त्यां करता, उन्मादी धइने चरता.॥४॥ उपर उपरथी गुरु धरावे, मनमां श्रद्धा नहि जरा; गुरुथकी उपरांठा चाले, सर्पसमाना भयंकरा. ॥५॥ गरज पडे त्यां लटपट करता, मनमांहि छोकरवादी गुरु कहे ते कान न धरता, अज्ञानाने उन्मादी. ॥५॥ आडां अवळा गप्पा मारे, ठठाथी खडखड हसता; क्रोधे जे क्षणमां धगधगता, विना विचायु बहु भसता. ॥७॥ शिष्योना लोभे जे अंधा, विना विचारे शिष्य करे; सर्प राफडो स्वयं बनावे, ते शुं धर्मोमति करे. ॥८॥ करी परीक्षा दीक्षा देवी, मूळमार्ग साचो ए खरे; शिष्यो करवामां जोखम छे, कडुं विचारी सत्य अरे. ॥ २ ॥ योग्य शिष्यने शिक्षा दीक्षा, नहि तो पस्तावो थाशे; प्रभुवचन आराधन करता, पापकर्म दूरे जाशे. ॥१०॥ आत्मज्ञानना अधिकारीने, आत्मज्ञान देवू भाख्यु; बुद्धिसागर सदमुरु शिष्ये, अनुभवामृत घट चाख्यं. ॥ ११॥ For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मखुमारी. दुनिया जाणीने झुं जाण्यु, आत्मतत्त्व जो नहि जाण्यु. ग्रही ग्रहीने ग्रहण कर्युः शृं, शुद्ध रूपने नहि आण्यु. सात नयने सप्त भंगीथी, आत्मतत्त्व जे जन जाणे . समाकित दर्शन ते जनः पामे, परम सुखने मन: आगे ॥२॥ चउ निक्षेण चार प्रमाणे, आत्मतत्व जे मनः ध्यावे; तव प्रतीते मनः विश्रामे, अनुभव ज्ञानदशा थावे ॥३॥ निर्मलता, व्यापकता भोगी, परम ब्रह्म पदमां वासी देखे जाणे निजने पोते, शुद्ध रमणसा विश्वासी. ॥४॥ अनंतगुण पर्याय विलासी, स्थित्युत्पत्ति व्ययधारी; समये समये नव परिणामी, शक्ति व्यक्तिनो छे धारी. ॥५॥ ऋद्धि सिद्धि घटमां भासी, शुद्ध रूपमा रंगायो कर्मभावथी भिन्न ग्रहीने, अद्वैतता घटमां पायो. अद्वैत पोताना रूपे छे, अनुभव ज्ञाने परखायुं जाभावे जड़ सत्वपणे.छे, पोतानुं पोते पायुं. ॥७॥ सच्चिदानंद.रसमां झीली, अनुभव्यु पद पोतार्नु पस पश्यंतीमा जे भात्युं, कदी न रहेतुं ते छातुं. ॥८॥ पोते पोताने भेट्यो त्यां, पोताने दउ शाबाशी बुद्धिसागर गुरुकृपाश्री, तस्वमसि पदमां वासी.. ॥९ ॥ रागद्वेष त्यागः राग द्वेष ज्यां सुधी मनमा, लाख चोराशी त्यां मुभी ज्यां सुधी मिथ्यात्व दशा छे, त्यां सुधी अवळी बुद्धि. ॥१॥ ज्यां सुधी मन ग्रहे ने छंडे, त्यां सुधी नहि सुख शान्ति; For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૦૨ ॥ ३ ॥ मन विश्रामे भव विश्रामे, नासे मिथ्या भवभ्रान्ति ॥ २ ॥ ज्यां सुधी मन विषय रागम, ज्ञानतणुं फल नहि लीधुं नवरसमा जेनुं मन वर्ते, तेणे अमृत नहि पीधुं. जेनुं मन ले बाह्य भावमां, अन्तरमां ते शुं· जाणे; विकथाम जेतुं मन वर्ते, ते शुं आतमहित आणे. जेटलं जेणे जाण्युं दीğ, वातो तेटली तेहि करे; बाकी सघड़े जुटं जाणे, कहो शुं तेनुं कार्य सरे. केवलीए जे जाण्युं दी, साधुं साधुं तेह खरे; तेने जाणी श्रद्धा करशे, भवसागरथी तेह तरे. जिनवाणीमां लीन थइने, अनुभव अमृतपान करो; गुरुगम परंपरागम सेवी, मुक्तिवधूने शीघ्र वरो. सत्यहेतु जिनवाणी सेवो, अधिकारी थइने तेना; सत्यपणे परिणमशे तेने, श्रद्धा भक्ति मन जेना. श्रुतोपयोगे ध्यान दशाथी, परम प्रभु दर्शन थाशे; बुद्धिसागर मंगलमाला, परम महोदय परखाशे. For Private And Personal Use Only 118 11 11.9 11 ॥ ६ ॥ 11 109 11 11 2 11 119 11 उच्चबोध. जेना मनमां परमदया छे, परमामृत रस ते चाखे; समता संगे ते जन झीले, जिनवरनी वाणी भांखे. ॥ १ ॥ दुःख पडे पण साचं बोले, वचन सिद्धि ते नर पामे द्रव्यभावथी चोरी करे नहि, तेनी कीर्ति जग जामे. द्रव्यभावथी मैथुन त्यागी, ब्रह्मचर्यव्रत जे पाळे; अनेक सिद्धि ऋद्धि पामे, मनुष्य जन्मने अजवाळे परिग्रह ममताने त्यागे, अनन्त लक्ष्मी ते पामे; ॥ ३ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ अनन्त शक्ति व्यक्ति भावथी, ठरतो शाश्वत पदठामः ॥ ४ ॥ जे जन जगमां पर उपकारी, तेनी जगमा बलिहारी; नाम देइने करे न निन्दा, ते जन जगमां जयकारी. ॥५॥ अवगुण उपर गुण करे ते, जगमां सज्जन कहेवाता; दोषदृष्टिथी दोष जुए ते, दुर्जनो जगमा ख्याता.. ॥६॥ अशुभ विचारे परतुं मूंडं, जे जन करतो ते दोषी उच्चभावथी परतुं रुडुं, करतो ते सद्गुण पोषी. ॥७॥ स्वार्थ कृत्यमा जे लपटाया, ते मुंझाणा नीच खरे, निष्कामपणाथी धर्म करे ते, भवोदाधने शीघ्रतरे. ॥८॥ अन्तरमाथी न्यारा रहीने, ज्ञानीजन बोले चाले रागद्वेषमा लपटातो नहि, ते जन शिवपुरमा म्हाले. ॥९॥ मनवाणीनो संयम करीने, शोधो अन्तर सुख साचुं, बुद्धिसागर चेतन हीरो, पामीने तेमां राचं. ॥१०॥ अधिकार. श्रदा विरहित जननी आगळ, आत्मज्ञाननी शी वातो; भाव विनाना भोजन पेठे, सदुपदेश न देवातो. अधिकारीनी लही योग्यता, धर्मदान देवू सारुं; मंत्र तंत्रमा अधिकारी वण, कदी न सारं थानारं. ॥२॥ यौगिक विद्या गुप्त शक्तियो, अधिकारी देखी देवी; अधिकारी वण महापाप छ, समजी शिक्षा मन लेवी.. ॥३॥ गंभीर आशय सद्गुरुगममां, लेश न समजे मूढमति; गुरु कृपाथी तत्व जे पामे, अभ्यंतरमा ध्यान रति... ॥४॥ करो योग्यता सर्वे मळशे, इच्छो ते सहु त्वरित मळे; For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ योग्य थयाथी उच्च कोटीमां, चेतन वेगे जई भळे. ॥५॥ गंभीर क्षमा दमादि सद्गुण, धारे तेने योग्य कहो; श्रद्धा भाक्त पक्वमतिजन, योग्य कह्यो मनमा सहहो. ॥६॥ सद्गुण दृष्टि जे जन धारे, शाश्वत सुख लीला पावे; बुद्धिसागर परम भक्तिथी, चेतन निज घरमा आवे. ॥ ७ ॥ सिद्धान्तवाणी. धर्म करे ते मुखिया जगमा, धर्म विना नहि मुख कदी; ज्ञान विना नहि गुरु कदापि, जल विना नहि होय नदी. ।। १ ।। दया बिना नहि धर्म कदापि, क्षमा विना नहि सन्तपणुं; गुरु विना नहि ज्ञान कदापि, समफितथी होय भव्यपणुं. ॥ २॥ धर्म कर्याथी पाप टळे छे, धर्म कर्याथी सुख शान्ति; .. धर्म कर्याथी उच्च जीवननी, वधती निशदिन बहु कान्ति.॥ ३ ॥ धर्म कर्याथी सुखनी लीला, धर्म कर्याथी दुःख टळे; अष्ट सिद्धि नव निधि प्रगटे, जे जोइए ते तुर्त मळे. ॥४॥ धर्म कर्याथी मनुष्य सुरगति, पंचमी गति पण थावे छे धर्मे जय पापे क्षय कहेणी, वर्धमान जिन गावे. छे. ॥५॥ धर्म मित्र सम कोइ न बंधु, धर्म पिता माता भ्राता; परभव जातां धर्म विना नहि, जाणो कोइ. रक्षण कर्ताः ॥ ६ ॥ अपूर्व महिमा धर्म मर्मनो, धर्म थकी जीवो तरिया; रत्नत्रयिनी लक्ष्मी पामी, अनंत जीवो सुख वरिया. ॥७॥ द्रव्यभाव बे भेद धर्मना, चउ निक्षेपे धर्म खरो सात नयोथी धर्म विचारो, समजी शाश्वत शर्म वरो. ॥८॥ गुरुगमथी करो धर्मकृत्यने, गुरुकृपाथी बहु ऋद्धि; बुद्धिसागर गुरुकृपाथी, परम गति शाश्वत सिद्धि. For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०४ योगविषय. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म्हारो बालुडो सन्यासी - ए राग. योगी ० योगी ०॥ १ ॥ योगी ० ॥ २ ॥ योगी ० ॥ ३ ॥ योगी ०|| ४ | योगी देहदेवळनो वासी, वैरागी सन्यासी. यमनियम आसन करी सिद्धि, प्राणायाम अभ्यासी; रेचक पूरक कुंभक साधी, केवळ कुंभकवासी. द्रव्यभाव बेभेद प्राणायाम, कुंडली शक्ति उजाशी; मूलद्वारथी मेरुदंडनो, अवघट मार्ग प्रकाशी. प्रत्याहार धारणा धारी, चमत्कार बतलावे; षट्चक्रोनभेदी प्रणवे, ब्रह्मरन्ध्रमां आवे. शून्यशिखर पर साहिबवासा, होवे त्यां थिरवासा; आपस्वरूपे आपप्रकाशे, उज्ज्ल ध्यानाभ्यासा. प्रगटे चेतन सुखनीलाली, मुख प्रफुल्ल सुख छाया; सालंबन निरालंबनध्याने, चेतन निजघर आया. योगी ० ॥ ५ ॥ लागी समाधि टळी उपाधि, ज्योति ज्योत मिलावी; चिदानंदमां हंसाखेले, परमप्रभुता पांवी. क्षयोपशमां आत्मभान एक, बाकी भान न होवे; क्षायिकभावे केवलज्ञाने, लोकालोकने जोवे. क्षयोपशममा चेतन अद्वैत, क्षायिक सर्व प्रकाशे; बुद्धिसागर सापेक्षाथी, समजे साधुं भासे. योगी० || ६ || योगी० ॥ ७ ॥ योगी ०|| ८ ॥ मनःशक्ति. मन मुक्ति ने मन संसार, मन थंड ने मन हुशियार; मन तारु ने मन अवतार, मन नपुंसक मन नरनार. मन माता ने मन छे भाइ, मन वियोगी दील सगाइ; For Private And Personal Use Only 03.01 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन वाडी ने मन ठकुराइ, मन व्यापारी चित्त ठगाइ. ॥२॥ मन आवे ने मनडु जाय, मन रोवे ने मन हरखाय; मन म्हाले ने मन गभराय, सारा खोटामां मन जाय.।। ३ ।। मन दोडे ने मनडे स्थिर, मनहुँ भोगी ने मन धीर; मन शोकीने दोलफकीर, मन जीते ते जगमां वीर. ॥ ४ ॥ मन ज्ञात ने मन छे जात, मनथी धावे छे परधात मन मर्कटने मन छे भ्रात, मन पिता ने मन छे त्रात.॥ ५ ॥ मनथी राजा मनथी रंक, मन शंकी ने मन निःशंक; रागी द्वेषी मनहुं पंक, मन काशी ने मनडुं लंक. ॥६॥ जेवू जेवू मनडुं थाय, तेवारुपे मन कहेवाय; आर्तरौद्र पण मनडुं ध्याय, धर्मध्यान मनथी ध्यावाय।। ७ ॥ विचित्र मननी बाजी कही, ज्ञानियोए ते मन सद्दही बुद्धिसागर समता वही, मन जीते योगे गहगही. ॥ ८ ॥ एक जिज्ञासुपर लखेलो बोध. देह छतां जेनी दशा, वर्ते शरीर भिन्न व्यवहारे व्यवहारमा, निश्चय स्वरूप लीन. ॥१॥ संयम धारि सद्गुरु, व्यवहारे कहेवाय; निश्चयथी सहु माणिया, गुरुपणे सोहाय. ॥२॥ पंचांगीमा परखशो, मुनिवर सद्गुरु होय; गुरु गृहस्थी नहि कह्या, करो न संशय कोय. ॥३॥ अन्तरथी सद्गुण भर्यो, साधु वेष न होय; भद्रबाहु गुरु बोलिया, ते नहि सद्गुरु जोय. ॥ ४ ॥ पंचांगी साची कही, तेनुं ज्ञान जो थाय; दर्शन मोह वियोगथी, सपकित रत्न ग्रहाय. ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६॥ द्रव्य भाव बे भेदथी, भाख्युं समकित सार; आप मति नहि पारखे, शुं निश्चय व्यवहार. दर्शन चरित्र मोहना, भेद न जाणे मूढ; विपर्यय समज्या थकी, जाणे नहि शुं गूढ. वीर वचन सापेक्षता, समजे मुनि गीतार्थ समजी सम्यक्तत्वने, पामो शुभ परमार्थ. ॥७॥ ॥८॥ हितवाणी. बहु विचारी बोलीए, वदीए सारा बोल, मुखथी वाणी नीकलतां, करशे दुनिया तोल. ॥१॥ दुनिया आरीसा समी, करे परीक्षा सार; सत्यासत्य चरित्र, प्रतिबिंब धरनार, ॥२॥ आत्मप्रेम भक्ति दया, श्रद्धा पर उपकार; उच्च भावनाभ्यासमां, शाश्वत सुख निर्धार. ॥३॥ श्वासोश्वासे ध्यानमां, रमो सदा नरनार; चिदानन्द मेळो मळे, जिन भाखे निर्धार. ॥४॥ अनुभवीने अनुभवो, बाह्य दशामा दुःख अनुभवीने अनुभवो, अन्तर वर्ते सुख. आशा तृष्णा परिहरी, बाळी ममतामूळ; आत्माऽसंख्य प्रदेशमां, ध्यानदशा अनुकूल. ॥६॥ ध्यानाभ्यास विवृद्धिथी, प्रगटे लब्धि अनेक बाह्य भावमा नहि रमे, धारी चिद्घन टेक. ॥७॥ निजभावे चेतन रमे, करी उपाधि दूर; बुद्धिसागर संपजे, चिदानन्द भरपूर. ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०७ तत्त्वज्ञान. अत्यंत नाश न वस्तु कोइनो, वस्तु विनाशी पर्याये; अगुरुलघुथी हानि वृद्धि, समयविषे द्रव्ये थावे. अचिंत्यशक्ति अगुरुलघुनी, केवलज्ञानी ते देखे; उत्पत्ति व्यय ध्रुवता त्रिपदी, षड् द्रव्योमां जिन पेखे || २ || सर्ववस्तु पर्याये विनाशी, द्रव्यपणे ते अविनाशी; " कालमां तजे न ध्रुवता, अनाद्यनन्तपणे वासी अनेक आकारो धारे पण, मूळरुपने नहि छोडे; द्रव्यपणुं ते शाश्वत भाख्युं, समजे जे गुरुगम जोडे. ॥ ४ ॥ ध्रुवता समये उत्पत्ति व्यय, उत्पत्ति समये व्ययता; व्यय समयमा उत्पत्ति छे, व्यय समयमां अक्षरता. द्रव्यगुण पर्याय विषयमां त्रिपदीनो अवतार थतो; अनेक मंगो ज्ञाने देखी, ज्ञानी अन्तरमांहि जतो. हेय ज्ञेयने उपादेयता, विवेकथी समजो ज्ञाने; उपादेय चेतनने समजी, पडो न पुद्गल तोफाने. जीव पर्यायनो तिरोभाव जे, तेनो आविर्भाव करो; जीव द्रव्यपर्याय शुद्धिं ते, सिद्ध बुद्धता चित्त धरो. ॥ ८ ॥ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकथी, नित्यानित्य विचार करा; पद्रव्यामां सदाय समजी, स्याद्वादशासन मन धरो ॥ ९ ॥ अष्टपक्षी वस्तु विचारी, अन्तरमां उपयोग घरो; बुद्धिसागर गुरुगम ज्ञाने, अनन्त चेतन शक्ति वरो. ॥ १० ॥ For Private And Personal Use Only 11 ? 11 ॥ ३ ॥ 114 11 ॥ ६ ॥ 11 99 11 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ફ્યું आत्मबोध. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मज्ञानने उच्चभावथी, पर पुद्गलनो नहि कर्त्ता; साक्षित्व तेनुं छे बाकी, आश्रवभाव तणो हर्ता. ॥ १ ॥ देह वचन मननो हुँ साक्षी, जाणुं पण परिणमनुं नही; उपश्रम क्षयोपशम साधनथी, क्षायिक सिद्धि कर्ता सहि. ॥ २ ॥ अन्तरदृष्टि अमृत दृष्टि, प्रगटावे निजगुण सृष्टिः चिदानन्दनी ल्हेरो प्रगटे, प्रगटे चेतन गुणव्यष्टि. बाह्य भावमां सुख न भास्युं, अन्तरमां सुखनी केलि; आपस्वरूप प्रगटे शान्ति, महानन्दवर्षा हेली. ॥ ३ ॥ || 8 11 ॥ ६॥ || 9 || आत्म भावमां सुरतालागी, अन्तरदृष्टि घट जागी; निजपदमां रंगायो रागी, बाह्य भावधी वैरागी. स्वरुप म्हारु शोधी लीधुं, निजधनतो निजने दीधुं अनुभवामृत प्रेमे पीधुं, मनुष्यभव जीवन सिध्युं. अरूप अजरामर अविनाशी, चिदघन चेतन विश्वासी : गुणपर्याय विलासी सोहं, तत्वमसिध्याने वासी. आवागमन गर्मन पुद्गलनुं, पुद्गलयोगे चेतननुं चेतनशक्ति स्वयं प्रकाशे, त्यारे चाले नहि मननुं. टळे विकल्पोने संकल्पो, आत्मभावमां परिणमत; परपरिणमता ढळे छे त्यारे, निज परिणमता उद्भवतां ॥ ९ ॥ गुणस्थानक निस्सरणि चढतां योगी अमृत रसभोगी; बुद्धिसागर परिपूर्णता, क्षायिकभावे गुणयोगी. 9 ॥ १० ॥ For Private And Personal Use Only 119 11 ॥ ८ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०९ आत्मपुरुषार्थसाध्य. पुरुषार्थने प्रेमे पकडो, धर्मोघम जग जयकारी; धर्मोधमथी मळशे शान्ति, धर्मोघमनी बलिहारी.. ॥१॥ अक्रिय अरुपी चेतन निश्चय, अक्रियतापदने वर; पूर्णानन्दपणुं पामीने, भवसागरने झट तरवू. ॥२॥ बाह्यभावमा नहि कदीहुँ, बाह्यभाव ममता तजवी; अनन्तज्ञानादिक लक्ष्मीने, अन्तर उपयोगे भजवी. ॥३॥ बाह्यभावथी जे पूरा, पूर्णपणुं ते नहि म्हारु वर्णगंधरस स्पर्श यकीपण, चिदानन्दपद छे न्यारु. ॥४॥ अपूर्वशांति प्रगटे ध्याने, चेन पडे नहि भववनमां; त्यारे रंगाशे निजपदमां, नहि ममता तनधन मनमां. ॥५॥ हर्षशोक समयमा समता, गुणठाणे गुण नीपजशे; योग्यदशाथी गुणठाणानी, उपरतणी स्थितिवधशे. ॥६॥ अपूर्व भावे अपूर्वशांति, निश्चय शुद्ध दशा जागे; उपशमक्षयोपशमना करणे, घनघाती कर्मो भागे. ॥७॥ अन्तररमण सदा करवाथी, चेतन निश्चय परखाशे; ध्यानक्रिया उद्यमने पकडो, क्षायिक लब्धि प्रगटाशे. ॥८॥ सद्गुरुगमथी समजो वाणी, पुरुषार्थ मनमा आणी; बुद्धिसागर गुरु कृपाथी, पुरुषार्थ पकडे प्राणी. हेतुबोधः शुभपरिणामे पुण्यवंध छे, अशुभ परिणामे पापी; शुद्धोपयोगे आत्मधर्म छे, केवलझाने छे व्यापी. ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० शुद्धोपयोगे मुक्ति घटमां, मोक्ष नहीं छे खटपटमां; कारण कार्यनी सिद्धिलगे छे, भव्य पडो नहि लटपटमां ||२|| शुद्धोपयोगे आनंदसागर, अन्तरमां प्रगटे भारी; शुद्धोपयोगे शुद्धरमणता, अनुभवामृतनी क्यारी. सुखसागरनी ल्हेरो उछळे, जीवहंस प्रेमे झाले; परमज्योति झळके त्यां निर्मल, पूर्णकला चेतन खीले. ॥ ४ ॥ पोते पोताने मळीयो त्यां, कोने दउ हुं शाबासी; शुद्धोपयोगे अनन्त सिद्धया, समजे ते तत्पदवासी; जेणे जाण्युं तेणे आण्यं, कहो ते आवे शुं तापयुं; अनुभव कुंची पाम्या योगी, अनंतधन घरमां आण्यं ॥ ६ ॥ अचल अरुपी परम महोदय, वाणी अगोचरपद सारु; बुद्धिसागर अनंत लक्ष्मी, लीलामय निजपद प्यारु. For Private And Personal Use Only ॥ ३ ॥ 11 5 11 119 11 समाधिधर्म. हवा दवाथी शरीर पोषी, धर्मकृत्यमां वापरखु पुष्टालंबन निमित्त सेवी, भवसागरथी झटतं. देव गुरुनुं शरण ग्रहीने, प्रेमे आत्मदशा वरवी; आशा तृष्णा परिहरीने, आत्मदशा सन्मुख करवी ॥ २ ॥ शत्रु मित्रमां समता राखी, आत्मरमणतामां रहेवुं; मळे योग्य तो तेनी आगळ, हितकर सत्य वचन कहेतुं ॥ ३ ॥ सत् हुं चित् आनन्दमयी हूं, उच्चभावना दील वरवी; धैर्य धरीने विघ्न निवारी, मन चंचळता परिहरवी ॥ ४ ॥ मोहदशा प्रगटे जेथी, ते पर्यायो भूली जावा; अजपा जापे चढी गगनमां, अलख देश थावुं च्हावा. ॥ ५ ॥ ॥ १ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुँ शुं कहुं हुं वाणी अगोचर, जाणे तेने छ श्रद्धा; वाच्यावाच्यपणे भाखे छे, जिनवाणी समजे वृद्धा. ॥६॥ मळो इन्द्र के मळो चंद्र पण, बाह्यदशानुं शुं मागुं; जे मागु ते अन्य न आपे, पोताने पाये लागु. ॥७॥ सर्वजीवमा अनंतऋद्धि, खरा हृदयथी जे शोधे; सद्गुरु वचनामृत पामीने, पोताने पोते बोधे. ॥८॥ सर्व जाणतां पार न आवे, एक जाणतां सहु जाण्यु; बाह्यदृष्टिथी धामधूममां, मू॰ए अवलं ताण्यु. ॥९॥ शो शाणानी समज एक छे, भिन्न कह तो पण साचं बुद्धिसागर हृदय ज्ञानिनु, सापेक्षे समजी राचुं. ॥१०॥ ललनामोह. महामोहर्नु कारण ललना, नरकगतिनी देनारी; ललनाना रागे जे फसिया, ते पाम्या दुखडां भारी. ॥ १ ॥ तप जप संयम सर्वे भूले, जे जन ललनाना रागी; ललनाथी माया नहि अधिकी, भूल्या मुनिवर वैरागी.॥२॥ राजन साजन महाजन मोटा, ललनाना संगे खोटा; भान भूलाची दोरे भवमां, ललनाना रागे गोटा. ॥३॥ दृष्टिमोह ललना जोवाथी, काम उदय मनमा प्रगटे; ललनानो परिचय थावाथी, धर्मभावना झट विघटे. ॥ ४ ॥ पुरुष माटे ललना खोटी, पुरुष पण ललना माटे; बेना माटे मोहज खोटो, जन वळतो अवळे वाटे. ॥५॥ पुरुष स्त्रीनां दील बगाडे, वेदोदय जगमा भारी; वेदोदयना समूळ नाशे, बन्ने जाणो अविकारी. For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यावत् वेदोदय तावद् तो, ब्रह्मचर्य मुक्षि घरची; थइ मरणीया लढवू टेके, मोहनाश मुक्ति वरची. ॥७॥ देवतणो पण देव सदा ने, ब्रह्मचर्य धारो वीरा; द्रव्य भाक्थी ब्रह्म र्याथी, पामो झट चेतन हीरा. ॥८॥ ज्ञान ध्यान वैराग्ये भन्यो, ब्रह्मचर्य धारण करशो; मोह हेतुओ तजी सदा मन, बार भावनाने वरशो. ॥९॥ पुद्गल भिक्षा त्याग करीने, शुद्ध रमणता आदरशो; घुद्धिसागर शुद्ध रमणता, शुद्ध समाधि पद वरशो. ॥ १०॥ व्यवहारधर्म. व्यवहार धर्म अवलंबन करवू, व्रत नियम पालन करवू; राजमार्ग व्यवहार धर्म छे, समजी तेमां मन धर. ॥१॥ व्यवहार धर्मथी पाप पलातुं, संवरनी करणी आवे; व्यवहार धर्मना भेद दोय छे,मुनिवर श्रावक गुण दावे. ॥२॥ व्यवहार धर्मथी शाशन चाले, धर्म कृत्यनी छे खाणी; व्यवहार धर्म छे प्रथम पगथियुं, एवी जिनवरनी वाणी. ||३|| निश्वपथी पडता प्राणीने, अवलंबन व्यवहारत'; व्यवहार हेतुने निश्चय कार्य, जिन सूत्रो समजीने भ". ॥ ४॥ संघ चतुर्विध छे व्यवहारे, अडतालीश गुणनो दरियो; व्यवहार धर्मथी उंचा आवे, वीरमभुए ते वरियो. ॥५॥ सेवा भक्ति परोपकार सहु, व्यवहारे ते चाले छ; व्यहार धर्मथी उपदेशादिक, क्रियाधर्म जन पाळे छे. ॥६॥ व्यवहार धर्म महत्ता माटे, तीर्थकर दीक्षा लेवे; केवल प्रगटे श्रुतज्ञानना, व्यवहारे भीक्षा लेवे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११३ आत्मधर्म उपयोग ग्रहो पण, खावुं पीतुं व्यवहारे; साधुं समजी सत्य ग्रहे ते, जल्दी पोताने तारे. हठ कदाग्रह त्याग करीने, निमित्त साचां आदरवां; गुरु साक्षी व्यवहार धर्मनां यथायोग्य कृत्यो करवां ॥ ९ ॥ अनेक हेतु व्यवहारधर्मथी, निश्वय शुद्ध दशा रमकुं बुद्धिसागर अनुभवामृत, भोजन प्रेम करी जंमवुं ॥ १० ॥ ॥ ८ ॥ श्री मल्लिनाथस्तवनम्. विमलाचलनावासी माराव्हाला - पराग. प्रभु मल्लिजिनेश्वर पाय नमुं, नित्य पाय नमुं पाय नमुं; प्रभु आणधरु शिर प्रेमे सदा, बहु दुःख वसुं दुःख वसुं, हरिहर ब्रह्मा विष्णु तुं छे, राम अने रहमान; ख़ुदा स्वयंभू जगन्नाथ तुं, त्रणभुवन भगवान. अढार दोषो नाश करीने, पाम्या केवलज्ञान; जि० ॥ १ ॥ जि०॥ ३ ॥ भुवननो तारक व्हाला, सिद्ध बुद्ध सुलतान. जि० ॥ २ ॥ भवदुःखभंजन अलख निरंजन, अडवडीयां आधार; साधुं शरणुं ग्रधुं तमारुं, तार तार मुज तार. मोडा वला पण तुम तारक, हवे करो शीद वार; तुम हि त्राता माता भ्राता, करशो सेवकनो उद्धार. जि० ॥ ४ ॥ जे जे मारा मनमां ते ते, जाणो दीनदयाल; बुद्धिसागर वंदे निशदिन, करशो सेवकनी संभाल, जि० ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only मल्लिनाथस्तवनम्. मल्लिजिनेश्वर चरणमां, नित्य शीर्ष नमावुः विनय भक्ति श्रद्धा थकी, चित्त पंकज ध्यावं. मल्लि० ॥ १ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩ यथामवृत्ति करणमां, बीत्यो काळ अनादि; तोपण पार न आवीयो, टळी आधि ने व्याधि. म० ।। २ ।। अपूर्वकरणमा आवीने, अनिवृत्ति ग्रहायुं; सम्यक् प्रभु गुण दर्शने, शुद्धरूप जणायुं. दर्शन चारित्रमोहनो, नाश थातां प्रभुता; केवलज्ञाने ज्ञेयनी, भासनमां विभुता. क्षायिक नव लब्धि जगे, पूर्णानन्द विकासे, सिद्ध बुद्ध परमातमा, ज्योति परम प्रकाशे. निज दृष्टि निज देखतां मल्लि जिनवर मळीया; बुद्धिसागर भक्तिथी, म्हारा मनोरथ फळीया. म० ॥ ६ ॥ , For Private And Personal Use Only म० ॥ ३ ॥ म० ॥ ४ ॥ म० ॥ ५ ॥ गुरुभक्ति. सद्गुरु मुनिनी भक्ति करतां, लक्ष्मी लीला प्रगट थशे; जे जोइए ते आवी मळे सहु, आधि उपाधि दूर जशे ॥ १ ॥ आहार पाणीथी मुनिवर भक्ति करतां कर्म कलंक टळे; नरगति सुरगति शिवगति सुखड, जे इच्छे ते सर्व मळे. ॥ २ ॥ वैयावृत्य करतां मुनिनुं, बोधिबीजनी छे प्राप्ति; वैयावृत्य गुण अप्रतिपाती, गुरुधी मुक्ति छे व्याप्ति. वैयावृत्ये केवल प्रगटे, वैयावृत्ये छे मुक्ति; वैयावृत्य मुनिनुं करतां, तीर्थकर पदवी उक्ति. मुनि समुं नहि पात्र जगत्मां, मुनि तीर्थ जगमां भारी; मुनि भक्तिथी मुक्ति पासे, समजो जगमां नरनारी. मुनिनी सेवा अमृत मेवा, मुनि सेवामां छे ऋद्धि; मंगल माला सुखना दहाडा, प्रगटे छे शाश्वत सिद्धि. ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७॥ ११५ महामंत्र मुनिवरनी सेवा, कामकुंभ मुनिवर सेवा; कल्पवृक्ष मुनिवरनी सेवा, पुण्योदये भक्ति हेवा; एक टेकने पूर्णभावथी, गुरु सेवा सुखडां आपे; आ भवमा पण सुखनी वाडी, दुःखनी वल्लिने कापे. सप्त क्षेत्रमा मुनि गुरु, क्षेत्र कडं जग जयकारी बुद्धिसागर सद्गुरुसेवा, करतां तरशे नरनारी. ॥८॥ ईर्ष्या. ईऱ्यांना करनारा पापी, निंदा करवामां पूरा; ईयांना करनारा पापी, पाप कर्ममा छे शूरा. ॥१॥ ईऱ्यांना करनारा पापी, आडं अवलु बोले छे; ईयाना करनारा पापी, मर्म अन्यनां खोले छे. ॥२॥ ईयांना करनारा पापी, परनुं सारं जोइ बळे; ईयाना करनारा पापी, नरकगतिमा जइ भळे. ॥३॥ ईष्यांना करनारा दुर्जन, आर्तध्यानमा रंगाता; ईर्ष्याना करनारा दुर्जन, भवभ्रमण गोयां खाता. ॥ ४ ॥ ईर्ष्याना करनारा दुर्जन, करे कृत्य जगमां कूडां; ईर्ष्याना करनारा दुर्जन, करे कृत्य नहि जग रुडां. ॥ ५ ॥ ईष्यांना करनारा दुर्जन, सारु खोटुं नहीं जुए; ईर्ष्या करनारा कोठीमां, मुख घालीने खूब रुए. ॥६॥ ईर्ष्याना करनारा लोको, माखी पेठे हाथ घसे; ईर्ष्या करनारा मन पापी, उपर उपरथी मंद हसे. ॥७॥ ईष्या करनारा मन बळता, असंतोष मन टळवळता; सद्गुणदृष्टि कदी न पामे, अशुभ विचारे सळवळता. ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईर्ष्या करना तप जप संयम, उच्चभावना दूर टळे बुद्धिसागर सद्गुणदृष्टि, मन धार्याथी सुख मळे. ॥९॥ खटपट, दुनियानी खटपटमां दुःखडां, महामोह ज्वाळा सळगे; परनी पंचातोमा पडता, भवपरिणति राक्षस वळगे. ॥१॥ आडी अवळी वातो करतां, अथडाईं भवमा थाशे; आत्मतत्त्वनी वात कर्यावण, शाश्वत सुख न परखाशे. ॥२॥ धर्मध्यानमा स्थिरता करवी, विकथा निन्दा परिहरवी; चेतनशक्ति खीलववामां, एक टेक मनमां घरवी. परपरिणतिनी वात त्यजीने, समताना भावे रहे; कोइक निंदे कोइक वंदे, तोपण समभावे रहे. ॥४॥ लडालड़ीनी वात त्यजीने, समताए साचुं कहे; सद्गुण दृष्टि धरी हृदयमां, ज्यां त्यांची साचुं लेबु. ॥५॥ चिदानन्दमा रहेतुं ध्याने, दुर्जननुं बोल्युं खमवू; सन्तसमागम धरी हृदयमां, उच्चभाव माहे रमवू. विना प्रयोजन बोल न बोलो, संयम भेदो आदरवा; निमित्तमांहि वाद न करवो, सापेक्षाए सहु धरवा. ॥७॥ युक्ति प्रयुक्ति आगमवादे, न्यायमार्गने अनुसरवो; तटस्थभावे सहु करी परीक्षा, तस्वधर्म दिलमां धरवो, ॥८॥ यावत् सापेक्षाए वचनो, नयवादो तावत् समजो; बुद्धिसागर सापेक्षाए, अनेकान्तधर्मे रमजो. For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११७ जिनवरवाणी. जिनवरवाणी गुणनी खाणी, श्रद्धा भक्तिथी भजवी; ॥ २ ॥ गुरुगम विनय धरीने समजो कुश्रद्धा मनथी तजवी. ॥ १ ॥ अनेकान्तनय जिननीवाणी, सांभळशो प्रेमे प्राणी; मोहातीत थये उपदेशे, परमप्रभु केवलज्ञानी. जिनवाणी समज्याथी समकित योगाष्टकनी छे प्राप्ति; जिनवाणीथी अनेक सिद्धया, रत्नत्रयिनी छे आति ॥ ३ ॥ जिनवाणीना अर्थ अनंता, समजे समजु भव्य जीवो; भक्ष्याभक्ष्य पदार्थ प्रकाशक, जिनवाणी जगमां दीवो. ॥ ४ ॥ जिन वचनामृत प्रेमे पीतां, अजरामर चेतन थावे; कर्मणा अनन्त नासे, क्षायिक भावे गुण आवे. सप्तभंगीने सात नयोथी, जिन वचनो समजो साचां; रागद्वेष रहित जिनवाणी, बाकी वचनोछे काचां. सद्गुरु मुखथी जिनवाणीने, विनय धरीने सांभळवी; विरति ज्ञानतणुं फळ भाख्युं यथा योग्य श्रद्धा वरवी. ॥ ७ ॥ गुरु गीतार्थ सदुपदेशे, संयम मार्गे छे मुक्ति; बाह्य उपाधि दूर करीने, आदरशो संयम युक्ति. अनेक आशय जिनवाणीना, आराधनथी जन तरशे; बुद्धिसागर मंगलमाला, परमामृत चेतन बरशे. ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ पुद्गलममतात्याग. उरे नहि मन जड पुद्गलथी, शामाटे जडमां राचं; जडथी न्यारो असंख्य प्रदेशी, चेतन ज्ञानमयी साधुं ॥ १ ॥ हुं तुं शुं जडमांहि कर, जडमां जडता रही सदा For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ जल पडछाया जडनी माया, साथै आवे नहि कदा ॥ २ ॥ छाया आतपतमः प्रभाने, शब्दवर्गणा ने काया; ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ स्पर्श वर्ण रस गंध आकृति, पुद्गल जड ए परखाया ॥ ३ ॥ पुद्गलखावुं पुद्गल पीव्रं पुद्गल दोलत कहेवाती; पुद्गलनी भीखारी दुनिया, चतुर्गतिमां भटकाती . पुद्गलनां नाटक छे ज्यां त्यां, पुद्गलनां युद्धो भारी; पुद्गलनी पंचातो जगमां, मोह्यां तेमां नरनारी. पुदगल भटकावे छे भवमां, शुं तेनी करवी यारी; काल अनादि पुद्गल योगे, चेतन पाम्यो दुःख भारी. ॥ ६ ॥ जडनी ममता दूर करीने, चेतन हीरो हाथ धरो; चिदानन्द स्वरूपी चेतन, समजी भवपाथोधि तरो. पोते पोताने ओळखतां, जडवस्तु ममता नासे; आप स्वरूपे आप प्रकाशे, केवलज्ञाने सहु भासे. राग करु हुं कोना उपर, कोना उपर द्वेष करु; जड नहि मारु हुं नहि तेनो, शुद्ध बुद्धनुं ध्यानधरुं ॥ ९ ॥ अनन्त शक्तिमय हुं चेतन, अन्तर दृष्टिथी निरखुं; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, झळहळतो चेतन परखं. ॥ १० ॥ ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only ॥ ८ ॥ चेतन ध्यान. ॥ १ ॥ शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन, अजरामर निर्मल योगी; परम हंस परमेश्वर ब्रह्मा, आनन्दामृतनो भोगी. गुण पर्यवनो ज्ञाता स्वामी, अलख अरूपी जयकारी: अनन्त शक्ति पूर्ण प्रकाशी, क्षायिक शाश्वत सुखकारी ॥ २ ॥ गुण व्यंजन पर्याय विलासी, अनेकान्तनय निर्धारी; Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्यतणा व्यंजन. पर्याये, काल अनादि जयकारी. ॥३॥ उत्पत्ति व्यय ध्रुवतारूपी, पुरुषोत्तम चिन्मयराजा; अनन्तज्योति धारक चेतन, आत्मस्वरूपे छ ताजा. ॥ ४ ॥ शुद्ध रमणता धारक तुं छे, विश्वेश्वर गुणनो कर्ता ज्ञायक लोकालोकतणो तुं, पुद्गलभावतणो हर्ताः ॥५॥ पुद्गलथी न्यारो निश्चयथी, त्रण भुवननो छे देवा, ध्याता ध्येय ने ध्यानमयी तुं, निजनी निज करतो सेवा.॥६॥ ज्ञाता ज्ञेय ने ज्ञानमयी तुं, उपादेयने निष्कामी; शुद्ध तव पदकारक कर्ता, चिन्मय पदमां विश्रामी. ॥७॥ स्व परप्रकाशक परथी न्यारो, अनंत ज्ञाता ज्ञेयपणे; व्याप्य अने व्यापकता तुजमां, निजोपयोगे कर्म हणे.॥ ८ ॥ अनाधनन्ति स्थितिमय तुं, वाणी अगोचर तुं प्यारो बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, झळहळ ज्योति करनारो. ॥९॥ सापेक्षबोध. ममता मांहि दुनिया खुंची, मत पोतानो ताणे छे; मन मान्युं ते साचुं बाकी, झूठं मनमा आणे छे. निरपक्षी दुनियामां विरला, पक्षापक्षी मची रही; सहु पोतानो पक्ष ज ताणे, हठ कदाग्रह गहगही. ॥२॥ देशकुळ जातिनी ममता, ज्ञातिनी ममता मोटी. वस्त्र वेषनी ममता मोटी, बाह्य भाव ममता खोटी... ॥ ३ ॥ ममताथी समता नहि प्रगटे, ममता दुःख वधारे छे; ममताथी साचु नहि मुझे, समजु सत्य विचारे छे. ॥४॥ भवनुं कारण ममता मोटी, ममता भव दुःखनी घाणी For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ६ ॥ ममता हेतु दुश्मन बहु छे; ममता जन्ममरण खाणी ॥ ५ ॥ ममता मोह अरिनी बेटी, महाडाकिनी दुःखकारी; ममतानुं अंधारं मोडं, समजो मनमां नरनारी. आधि उपाधि व्याधि ममता, पुत्र पुत्री जननी बापा; तनमां ममता धनमां ममता, ममताना ज्यां त्यां छापा ||७|| कुगुरुधर्म कुदेव ममता, वंशपरंपरनी ममता; ममतामां बुडेली दुनिया, ममताना त्यागे समता. युद्ध भयंकर ममता योगे, सगपण सहु ममता योगे; ममतानो मोटो छे दरियो, ममता छे कुमति ढोंगे. आशा तृष्णा ममता त्यागी, समताथी सन्तो जागे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर प्रगटे मन बैराग्ये. ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ परमबोध. देव गुरुनी श्रद्धा पक्की, भव्यजनो प्रेमे राखेः सुश्रद्धाना धारक जीवो, अनुभवामृतरस चाखे. श्रद्धाथी संयम प्रगटे छे, भव्यपणुं श्रद्धा योगे; श्रद्धा भक्ति प्रगटे छे, सत्य ज्ञान श्रद्धायोगे. पद् स्थानकनुं ज्ञान थयाथी, सुश्रद्धा समकित प्रगटे; जब चेतननो भेद पडे छे, अनन्त मिथ्यातम विघटे ॥ ३ ॥ जीani जीवपणुं भासे ने, अजीवमां जडता भासे; जडनो कर्ता नाही पण साक्षी, अज्ञपणु त्यारे भासे ॥ ४ ॥ भूत कर्मनो कर्त्ता चेतन, वर्तमान तेनो भोक्ताः भोक्ता साक्षित्व समभावे, नवीन कर्मनो नहि योक्ता ॥ १ ॥ भ. व कर्म जे रागद्वेष छे, तेनी उपशमता होवे; For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२१ द्रव्य कर्म बांधे नहि त्यारे, पोताने पोते जोवे... ॥६॥ गुण स्थानक अभ्यास करतां, चरण मोहनी उपशांतिः क्षयोपशम पण मोहतणो छे,क्षायिक भावे सुखशान्ति. ॥७॥ मूल थकी सहु मोह विनाशे, क्षपकश्रेणिए जीव चढी; अनन्त दर्शन ज्ञान प्रकाशे, घाती कर्मनी साथ लड़ी. ॥८॥ केवलज्ञान प्रगटतुं पहेलं, समयांतर केवल दर्शन; श्री जिनभद्रगणिनी वाणी, क्रमवादी गणितुं स्पर्शन. ॥ ९ ॥ अक्रमवादी एक समयमां, वे उपयोगोने भाखे, युगपत् आवरण नाश थयाथी,अनुभवी रस तो चाखे.॥ १०॥ ज्ञानथकी दर्शन नहि जुएं, वृद्ध कहे क्षायिक भावे त्रण पक्ष सिद्धांते भाख्या, ज्ञानी समजी सुख पावे. ॥११॥ चार अघातिकर्म हणीने, सिद्ध बुद्ध चेतन थावे; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, अनन्त शाश्वत सुख पावे. ॥१२॥ - उत्पादव्ययध्रुवता बोध. अनंतगुण पर्याय अस्तिता, चेतन मांहि नित्य रही; आत्मस्वभावे शुद्ध रमणता, परमाहि केम जाय कही. ॥ १ ॥ अस्तिता निज गुणनी परमां, नास्तिपणे जाणो भव्यो; आविर्भावे अस्तिपणाना, सद्गुण खीलववा भव्यो. ॥२॥ त्रणकालमा अस्तिभाव ते, सहुमां सत्ताए सरखो अनुभव ज्ञाने सर्व जणाशे, साधु पोतानु परखो. ॥३॥ अस्तिभावथी षड् द्रव्यो सत्, उपादेय चेतन जाणो आस्तिपणे निजगुणमा रमतां, वस्तुधर्म मनमा आणो. ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ वस्तुधर्ममां अनंत सुख छे, वस्तुधर्मनी बलिहारी; वस्तुधर्मनी प्राप्ति करवी, कर्माष्टक वेगे वारी. वस्तुधर्म स्याद्वाददृष्टिथी, जाणे ते शिवसुख पामे; अनन्त शक्ति चेतननी छे, जाणे ते पुद्गलं वामे. अनन्त शक्ति धाम जीव छे, परमभाव गाहक पोते; पोतानामां गुण पर्यवता, बीजे तुं शीदने गोते. ज्ञानचक्षुथी जाणो देखो, चिदानन्द चेतन देवा; उत्पत्ति स्थिति व्यय भोगी, शुद्ध रमणताथी सेवा. अनेकान्त दृष्टियी दर्शन, परममभुनां जे करशे; बुद्धिसागर धर्मध्यानथी, चेतन भवजलधि तरशे. भेदज्ञान. जड चेतननी भिन्नता, प्रगटे समकित सार; परपरिणमता तब टळे, सत्यज्ञान निर्धार. अन्तर्मुखोपयोगता, चेतनधर्म कथाय; परमप्रभुता संपजे, भेदभाव दूर जाय. बाह्यदशा व्यवहारथी, वर्ते चेतन भिन्नः अनुभव अमृतपानमां, रहे सदा लयलीन. अनुभव अमृत स्वादतां, पडे न परमां चेन; अनुभव हेरि लागतां, मगटे मनमां घेन. अनन्तगुण पर्यायनो, वर्ते घट उपयोग; आत्मस्वभावे जागीने, भोगवतो जीव भोग. अन्तर्मुखोपयोगधी, सिद्धया जीव अनन्त; सिद्धदशा ते मार्गथी, भाखे छे भगवन्त. For Private And Personal Use Only ॥५॥ ॥ ६॥ ॥७॥ #1-6 11 ॥ ९ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७॥ १२३ पुष्ट निमित्तासेवथी, उपादाननी सिद्धि उपादान आसेवना, प्रगटे अनन्त ऋद्धि. उपादाननी योग्यता, प्रगटे शुद्ध स्वभाव; शुद्धभाव चारित्र छे, भवजलधिमां नाव. अनन्त अक्षय मुखमयी, निर्मल सिद्ध समान; बुद्धिसागर पामीए, अनन्तगुण भगवान्. ॥८॥ ॥२॥ ॥३॥ चिदानन्द. चिदानन्द निर्मल प्रभु, गुणपर्यायाधार;. छतिपर्याय अनंतमय, ज्ञानथकी निर्धार. सामर्थ्यपर्याय छे, व्यय उत्पत्ति स्वरूप; द्रव्यार्थिकथी ध्रुवता, शुद्धभाव निजरूप. द्विविधनय दृष्टि करी, ध्यावो चिन्मय देव; शुद्धनय निज थापना, करवी निजपद सेव. चतुर्निक्षेपे ओळखी, निर्मल सहजानन्द ध्याता ध्येय स्वरूपमा, वर्ते नासे फन्द. अचल अमल निर्भय प्रभु, पूजक पूज्य स्वरुप असंख्य प्रदेशी सेवतां, नासे भवभय धूप. शुद्ध चेतना सेवना, सत्य सनातन धर्म उपादान सन्मुख थतां, नासे सघळां कर्म. बहिर् रमणता झट टळे, झळके चेतन ज्योत; परमशुद्ध समाधिमां, प्रगटे सत्य उद्योत. अन्तर्चक्षु प्रकाशता, लोकालोक जणाय; अनन्त ऋद्धि पामीने, पूर्णानन्द कथाय. ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्यभाव बे भेदथी, कारण कार्य स्वरूप बुद्धिसागर सिद्धमां, वर्ते रूपारूप. ॥९॥ माध्यस्थभाव. माध्यस्थ अवलंबीने, करीए तत्त्व विचार; सत्यासत्य विचारीए, लहीए भवजलपार. पक्षपातने परिहरी, दृष्टिराग करी दूर ज्ञाने सत्य विचारीए, होवें सुख भरपूर. अनेकान्त सहु वस्तु छे, अनेकान्त परमार्थ गुरुगमथी अवधारीए, लहीए सद्गुण सार्थ. दर्शन ज्ञान चरण थकी, होवे शाश्वत शर्म; अशुद्ध परिणति झट टळे, रहे न किंचित् कर्म. परंपरागम सेवीए, धर्म हेतु व्यवहार; निश्चय आत्मस्वरूपमा, रहेतां शर्म अपार. असंख्य योग छे मुक्तिना, करो न मिथ्यावाद; सापेक्षाए हेतुओ, जाणे प्रगटे स्वाद. उपादानथी साधीए, उपादेय निज धर्म; साध्य दृष्टि वर्तन थकी, नासे सघळां कर्म. आत्मसाध्य करणी भली, रंगावू त्यां सत्य; बुद्धिसागर भावथी, साध्यदशा निज कृत्य, ॥४॥ ॥५॥ ॥७॥ ॥ ८ ॥ परमब्रह्मस्वरूप. मन चञ्चळता वारीने, थइए अन्तर स्थिर; स्थिरोपयोगे ध्यानमां, थइए जग महावीर. For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म लक्ष्य एक साध्य छ, साधन सिद्धि कराय; गुरुगम साधन साधतां, चिद्घन चेतनराय. ॥२॥ आत्मशक्तिने ध्यावतां, अनन्त प्रगटे सुख आत्मतत्वना ध्यानथी, नासे अनन्त दुःख. ॥३॥ अनन्त सुख गुण स्वादतां, अजर अमर पद थाय; परम प्रभुता सम्पजे, जन्ममरण दुर जाय. ॥४॥ बाह्यभावथी दूर रही, ध्यावो अन्तर्देव; त्रिकरणयोगे आत्मनी. प्रेमे कीजे सेव. ॥५॥ ध्याता ध्येय स्वरूपमां, ध्याने छे लयलीन; अन्तरमा लयलीनतो, अनन्त सुखथी पीन. ॥६॥ शरण शरणने ध्येय छे, चेतन प्रभु सदाय; षदकारक निजरूपमां, समये समये समाय. ॥७॥ धूम धाम तजी बाह्यनी, सेवो शुद्ध स्वभाव; स्थिरतायोगे संपजे, अनन्त ऋद्धि सुदाव. ॥८॥ जाणो ध्यावो शुद्ध घन, पुरुषोत्तम भगवान् ; बुद्धिसागर सेवता, परम प्रभु गुणवान्. ॥९॥ परमब्रह्म जागृति स्वाध्याय. जाग जाग अरे जीवडा, झट निद्रा त्यागी; बाह्यदशामां शुं पोढियो, जोजे घटमां जागी. जाग० ॥१॥ बाह्य भावमा उंघतां, मोह वैरि टूटे अज्ञान खाडीमां पाडीने, निद्रा राक्षसी कूटे. जाग० ॥२॥ निद्रामा मुख नहि कदी, उठ आलस त्यागी; अनुभव भानु देखी ले, शुद्ध गुणना रागी. जाग० ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मस्वभाव जागजे, दुनियाने विसारी; निद्रा तन्द्रा परिहरी, कर तुं निजगुण यारी. जाग० ॥॥ दुनिया दशामां जे जागती, बोले खावे ने पीवे; योगी दशामां ते उंघतो, आत्म जागृति जीवे. जाग० ॥५॥ अनन्त शक्ति प्रकाशतो, ज्यारे चेतन जागे; मिथ्या परिणति बापडी, त्यारे दूरे भागे. जाग० ॥६॥ छति पर्याय अनन्त छे, निजगुणना सदाय; सामर्थ्य पर्यायनी, अनन्तता कथाय. जाग० ॥७॥ परमानन्दनी ल्हेरियो, भोगवतां विलासी; बुद्धिसागर सेवना, सिद्ध बुद्ध प्रकाशी; . जाग० ॥८॥ संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन. संखेश्वर पार्श्वनाथजी, विघ्न वृन्द निवारे; धरणेन्द्र पद्मावती, वंछित सहु सारे. संखेश्वर० ॥१॥ अश्वसेन कुल दिनमणि, वामानन्दन प्यारा क्षायिक नव लब्धि धणी, सिद्ध बुद्धावतारा. संखे ॥२॥ अजरामर अरिहंत छो, विश्वानंद विलासी; अजरामर निर्मल प्रभु, शुद्ध तत्त्व प्रकाशी. संखे० ॥३॥ उत्पत्ति व्यय ध्रुवता, समये समये भोगी; सादि अनंतु पद वद्यु, क्षायिक गुण योगी. संखे ॥४॥ पुरुषोत्तम सर्वज्ञ छो, शुद्ध चैतन्य धारी अष्ट सिद्धि सुख ऋद्धिनो, दाता जयकारी. संखे०॥ ५ ॥ चिंतामणि तुज मंत्रथी, पामी मंगल माला; बुद्धिसागर पूजतां, लीला हेर विशाला. संखे० ॥ ६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२७ धन्य दीवस. धन्य दीवस क्षण धन्य छे, प्रगटयो अपूर्व आनन्दरे; अनुभव अमृत पानथी, टळ्यो विषयनो फन्दरे. धन्य० ॥ १ ॥ आत्मतत्व उद्योतथी, अज्ञान दूर हटायुंरे; अनुभव श्रुत वधती दशा, पूर्णानन्द पद घ्यायुंरे. धन्य० ॥ २ ॥ अजरामर निर्मल प्रभु, परम समाधिमा दीठारे; धन्य० ॥ ६ ॥ वचनातीत अखंड अज, चिदानन्द रस मीठारे, धन्य ॥ ३ ॥ स्वयं देख्यो जाणीयो, स्वयं रूपनो दृष्टारे; षट्कारक स्वामी सदा, आविर्भावनो सृष्टारे. परम प्रभुता पारखी, मगटी शान्ति अपूर्वरे; वीर्योल्लासनी वृद्धिथी, विणश्यो मिथ्या गर्वरे. साक्षित्व परनुं रं, नहि परकर्त्ता भोक्तारे; ज्ञानादिक ऋण रत्ननो, अन्तर्दृष्टिथी योक्तारे. अन्तर्मुख वृत्ति वळी, साची शान्ति प्रकाशीरे; पुद्गलथी प्रेम उठियो स्थिरता घटमां वासीरे धन्य० ॥ ७ ॥ निश्चय चेतन रामनो, सम्यग् ज्ञाने कीधोरे; मिन करी परद्रव्यथी, चेतन ज्ञानमां लीधोरे. परम समाधि स्वरूपस, वेदनी वेदीने रहीगुंरे योग्यजनोनी आगळे, तत्त्वनी वातो कहीशुंरे. श्रुत वाणी अवलंबीने, आतम अनुभव पायोरे; बुद्धिसागर शान्तिमां, परम प्रभु परखायो रे. सन्त महिमा. शान्ति अर्षे सन्तजन, परम कृपाना नाथ: धर्म बोध दाता गुरु, सेवक करे सनाथ. For Private And Personal Use Only धन्य० ॥ ४ ॥ धन्य० ॥ ९ ॥ धन्य० ॥ ८ ॥ धन्य० ॥ ९ ॥ धन्य० ॥ १० ॥ ॥ १ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन्तजनोने पारखे, कोइक वीरला भव्य; दोषदृष्टिथी देखतां, लहे न सन्त सुभव्य. गुणग्राहक दृष्टि थतां, सन्तजनो देखाय; अवळी दृष्टि परिणमे, दोषी सर्व जणाय. राचे साचा ध्यानमां, पाळे पश्चाचार. पञ्च महाव्रत पाळता, साधु सन्त सुधार. ॥४॥ पश्च महाव्रत पाळतां, लागे जे अतिचार; प्रतिक्रमणना योगथी, टाळे ते निर्धार. द्रव्यभाव बे भेदथी, प्रतिक्रमण करनार; अन्तर उपयोगी मुनि, भवजलधि तरनार. ॥६॥ आत्मरमणता आदरे, सन्त मुनि गीतार्थ निश्चयने व्यवहारथी, पामे ते परमार्थ. ॥७॥ अनुभव अमृत स्वादता, सन्त मुनिवर देव; गुण स्थानकना योगथी, करीए प्रेमे सेव. ॥८॥ दृष्टिदोषने परिहरी, आत्मज्ञान थइ लीना बुद्धयब्धि श्री सदगुरु, सेवा सुख गुण पीन. ॥९॥ उच्चभावना स्वाध्याय. श्री स्थलिभद्र मनिवरमांहि शिरदारजो-एराग. आत्मोन्नति करवानां साधन साधोरे, ध्यानभावथी उच्चभावमा वाधोरे, सत्य भक्तिथी सहुर्नु सारु कीजांएरे. परमप्रेमथी वर्तो सहुनी साथजो, उच्चभावथी थाशो त्रिभुवन नाथजो; ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२९. सहनी साथे राखो मैत्री भावनाजो. सर्व आतमा निर्मल सिद्ध समानजो, सत्ताथी जोतां नहि भेद निदानजो; मदिरापानी पेठे दोष न जीवनोजो. दोषदृष्टि दोष न देखो भव्यजा, सहुनुं सारुं इच्छो शुभ कर्तव्यजो; मननी निर्मलतानी कुंची सत्य छे जो. दुर्जनतु पण बुरु न इच्छो लेशजो, समताभावे आयु गाळो हमेशजो; शाता अशातामां पण समभावे रहोरे. परम दयामां सर्व धर्म अवतारजो, निष्काम कृत्यथी वर्तो नर ने नारजो; पोतानाथी आत्मोन्नतिनी साधना जो. आतम ते परमातम साचो देवजो, प्रेम करशो भव्यो तेनी सेवजो; आत्मोन्नतिमां खर्च न पैसा पाइनुं जो. निंदा विकथा दोषो सर्व निवारोजो, सद्गुणदृष्टिथी आतमने तारोजो; पोताना सम सर्व जीवोने, देखशोजो. आत्म दृष्टिथी साधो झट आत्मार्थजो. शुद्ध दृष्टिथी प्रगट थशे परमार्थजो; बुद्धिसागर मंगलमाला पामीए जो. १७ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11 ॥५॥ ॥ ३ ॥ 119 11 11 2 11 119 11 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म शिक्षा. ॥२॥ विद्या वधतां करो न गर्व लगारजो, लक्ष्मी वधतां गर्व करे ते गमारजो; सत्ताथी फुले ते तत्त्व न पारखे जो. उच्च नीचनो भेद न राखों लेश जो, कदी न करशो वात वातमा क्लेश जो सहुनी साथे राखो मैत्री भावना जो. निंदा करतां पाप घणुं बंधायजो, निंदा करतां मनडुं उच्च न थायजो; निंदा वृत्ति टाळ्याथी बहु गुण वधेजो; करुणा दृष्टि सर्व जीवोपर राखोजो, तेथी अनुभवामृत प्रेमे चाखोजो; . दया धर्मथी परमातम पद हाथमांजो. दुखवq नहि परतुं मन तलभारजो, परनुं मन दुःखव, हिंसा धारजो; सापेक्षाए दया धर्मथी मोक्ष छे जो. अदेखाइथी परने द्यो नहि आळजो, निंदा कुथली ए सहु माया शाळजो; द्वेष क्लेश ते महा पाप मनमा घणुं जो. रागद्वेषने टाळो नर ने नारजो, उच्च भावथी उच्च थशो निर्धारजो; बुद्धिसागर मंगल माला पामीएजो. ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१॥ ॥२॥ व्यवहार धर्मशिक्षा. कदी न करशो कोइनी साथे कलेशजो, उद्धत्तपणानो कदी न पहेरो वेषनो; चाडी चुगली परनी कदी न कीजीएजो. कदी न कर कोइकनुं अपमानजो, ठठा हांसी त्याग करो गुणखाणजो; हांसीमांथी खांसी प्रगटे जाणशोजो. आत ध्यानने रौद्र ध्याननो त्यागजो, धर्म ध्यानने शुक्ल ध्यानयी रागजो; संवर भावे जीवन सघलं गाळीएजो. परने पीडो नहि पाणी तल भारजो, परनी हाय न लेशो समजी सारजो सारा भावे सारु थाशे आत्मनुजो. दुःख पडे पण हिंमत कदी न हारोजो, समता धारो आतमने झट तारोजो; ज्ञान ध्यानने वैराग्ये भवजल तरोजो. शुभ परिणामे पुण्य कर्म बंधायजो, पापाश्रवथी अशुभ कर्म ग्रहायजो; वस्तु धर्म ते चेतनना उपयोगयीजो. चेतन दृष्टि मोक्ष महेल निस्सरणीजो, चेतन दृष्टि भवजलधिमां तरणिजो; शुद्धोपयोगे मुक्ति वधू छे हाथमां जो. श्रावकने साधु बे भेदे धर्मजो, पाळी व्रतने टाळो सघळां कर्मजो; व्यवहारे वाथी निश्चय साधनाजो. ॥४॥ ॥७॥ ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९॥ जेने लागे जगत् कुंटुंब समानजो, सरखं भासे मान अने अपमानजो; समभावे वर्ते ते शिवसुख चाखताजो. उच्च जीवन करशो अंतरवें भव्यजो, वस्तु धर्मनी प्राप्ति ते कर्तव्यजो; बुद्धिसागर मंगलमाला पामीएजो. ॥ १०॥ ॥१॥ ॥२॥ नीतिशिक्षा. वदो विचारी वाणी हितकर सत्यजो,, माण पडे पण वदो न वाणी असत्यजो; सत्य थकी नहि अपर धर्म जगमा खरेजो. सत्य वचन वदवाथी मुखडं शोभेजो, सत्य तेजथी भूत प्रेत सहु थोभेजो; सत्य प्रतापे जलधि मर्यादा रहीजो. सत्य बोलथी राखे सहु विश्वासजो, सत्य वचनथी क्रोधादिकनो नाशजो; सत्य वदे तेनी कीर्ति जगमां घणीजो. सत्य बोलथी देवो सारे सेवजो, अनन्त महिमा सत्य बोल सुख मेवजो; सत्य वदे तेने नहि भय जनदेवनोजो. रागद्वेषथी वचन असत्य वदायजो, अज्ञाने पण जूटुं बहु बोलायजो; दोष निवारी सत्य वचन वदीए सदाजो. जूदा जननो जगमां नहि विश्वासजो, ॥४॥ ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३३ सत्य वचनथी मिथ्याभर्म विनाशजो; साचुं बोले धन्य धन्य ते नर सदाजो. साचं बोले तेना देवो दासजो, सत्यवादीनो राखे सहु विश्वासजो; सत्यवादीनी बलिहारी जगमां खरीजो. सत्य बोलथी मुख थाशे निर्धारजो, भुल्या त्यांथी फेर गणो नर नारजो; धैर्य धरीने सत्यवचन वदवू सदाजो. द्रव्य क्षेत्र ने काल भावथी सत्यजो, सापेक्षाए सात नयोथी सत्यजो; बुद्धिसागर सत्यवचन महिमा घणोजो. ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ श्रद्धामहत्ता. श्रद्धाथी जीवन छे साचं, श्रद्धा वण जीवन काचुं श्रद्धा वण लुखी छे भक्ति, श्रद्धा वण ज्ञानज काचुं. ॥१॥ श्रद्धा वण सत् क्रिया फळे नहि, श्रद्धा वण नहि मंत्र फळे श्रद्धा वण सद्गुरु न रीझे, श्रद्धा वण विद्या न मळे. ॥२॥ श्रद्धा वण छे तर्क नरक सम, श्रद्धा वण ज्यां त्यां भटके, श्रद्धाथी सिद्धि छे सहुनी, श्रद्धा वण अधवच लटके. ॥शा श्रद्धा वण वाणी छे लुखो, श्रद्धा वण जीवन बगडे; करो कुतों पण श्रद्धा वण, सत्य तणी नहि सुझ पडे. ॥॥ श्रद्धाथी औषध पुष्टि दे, श्रद्धाथी विद्या साधे; श्रद्धाथी सहु मंत्र फळे छे, श्रद्धाथी सुखडां वाधे. ॥५॥ श्रद्धाथी प्रगटे छे उद्यम, श्रद्धाथी भक्ति साची, For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ " श्रद्धा त्यां परमेश्वर वसति, श्रद्धामां रहेशो राची. श्रद्धाथी जीवन छे साधुं तप जप संयम धर्म फळे, श्रद्धाथी प्रगटे छे समकित श्रद्धाथी इच्छे ते मळे. श्रद्धाथी देवोनी प्रीति, श्रद्धाथी नीति रीति, देवगुरुनी श्रद्धा धारे, तेने नहि जगमां भीति. श्रद्धाथी उत्साह वधे छे, श्रद्धाथी शाश्वत सिद्धि; बुद्धिसागर सद्गुरु श्रद्धा, प्रगटावे छे सहु ऋद्धि. For Private And Personal Use Only ॥ ६ ॥ || 19 11 ॥ ८ ॥ 119 11 दुःख समयमां धैर्य राख. ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ दुःख पडद्याथी तजो न समता, कर्या कर्मने भोगववां; उदये आवे जे जे कर्मों, समता भावे ते सहेवां. शीलवंती सीताने माथे, कलंक दुःखदायेि तो चढयुं, भोगवतां अंते ते छूट, जंगलमांहि रहेवं पडयुं. पूर्व कर्मी कलंक चढे पण, शा माटे मन दीलगीरी, आत्मघात पण कदी न करवो, सारी वेळा थाय फरी ॥३॥ राजा कर्मोदयी रंका, ब्रह्मचारी पण व्यभिचारी, शीलवंतीने लोको निंदे, कर्म तणी गत छे न्यारी ॥ ४ ॥ कर्मोदयधी जन भीखारी, फरी फरी भीक्षा मागे; कर्मोदयी राजा थावे, नरनारी पाये लागे. शुभ कर्मोदयथी छे सारु, अशुभथी जगमां दुःखी; सारा खोटा कर्म उदयने, समभावे वेदे सुखी. ॥ ५॥ कोइक वेळा कीर्ति गाजे, मान घणुं जगमां छाजे, अपकीर्ति तेनी कोइ वेळा, मान भंगधी ते लाजे. कर्या कर्म भोगवां सहुने, कर्माधीन सहु संसारी, ॥ ६ ॥ 116 11 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३५ कर्मोदयमा अहंपणानो, त्याग करी वर्तो धारी. .॥८॥ नरपति सुरपतिने नहि छोडे, समजो मनमां नरनारी; बुद्धिसागर ज्ञान क्रियाथी, कर्माष्टक नासे भारी.. ॥९॥ परम मित्रता. मित्राइ राखो सहु साथे, मित्राइथी क्लेश टळे; मित्राइथी संप वधे छे, मनना मेळा सर्व मळे. ॥१॥ मित्राइथी सलाह शांति, धार्या कृत्यो सर्व सरे; मित्राइथी वैरं टळे छे, उच्च भावना थाय खरे. ॥१॥ मित्राइथी जगमां शांति, मित्राइथी द्वेष टळे मित्राइयी प्रेम वधे छे, मैत्रीभावना तुर्त फळे. ॥३॥ मित्राइना भेद घणा छ, लौकिक लोकोत्तर जाणो; मित्राइथी अपूर्व शक्ति, समजी साचुं मन आणो. ॥४॥ मित्राइथी कुंटुंब दुनिया, परम मित्रता पात्र ठरो दया धर्ममा मैत्री भावना, समजी परमानंद वरो. ॥५॥ द्रव्यभाव वे भेदे मित्र, मैत्री भावना बे भेदे; समजीने मित्राइ धारे, ते कर्माष्टकने छेदे. ॥६॥ वस्तु धर्मनी साची मैत्री, ज्ञानिने सहु समजाशे; साची मित्राइ चेतननी, परम प्रभुता परखाशे. ॥७॥ आत्म धर्ममां करो रमणता, मित्राइ तेनी साची; बुद्धिसागर परम मित्रता, समजी तेमां रहो राची. ॥ ८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ आत्मज्ञान महत्ता. आत्माऽसंख्य प्रदेशी शाश्वत, अनन्तगुण पर्यायाधार; अनंतज्ञानने अनंत दर्शन, अनन्त चारित्र धरनार. ॥१॥ सहभाविते गुण- लक्षण, लक्षण क्रमभावि पर्याय; द्रव्यार्थिक नयथी छे ध्रुवता,पर्यायार्थिक अनित्यसार. ॥ २॥ षड् गुणहानि वृद्धि थाती, प्रति प्रदेशे समये सार; अगुरुलघु पर्याये प्रगटे, अनुभवथी समजो निर्धार. |॥ ३ ॥ छती पर्याय तणी छे ध्रुवता, अनाद्यनंति स्थिति धार; सामर्थ्य पर्याय अनंता, उत्पत्तिव्यय समये सार. ॥४॥ छति पर्याय थकी पण जाणे, सामर्थ्य पर्याय अनंत समये समये अनंतगुणतुं, वर्तन ते पर्याय कहत. ॥५॥ उपशम क्षयोपशम साधनथी, क्षायिक साध्यपणुं वीय; सहज भाव ते क्षायिक जाणोक्षायिक शाश्वत सुख कथाय.॥६॥ सात नयोने अष्ट पक्षथी, चेतन समजे दुःखडां जाय; सहज रुप चेतननुं प्रगटे, उपदेशे छे श्री जिनराय. ॥७॥ सोऽहं सोऽहं तत्त्वमसि जीव, एक चित्तथी ध्यावो ध्येयः । ज्ञाता ज्ञेयने ज्ञानमयी तुं, शुद्ध बुद्धने उपादेय. ॥८॥ अज अक्षर अविनाशी निर्मल, परमब्रह्म परमेश्वर देव; बुद्धिसागर अनुभवामृत, चाख्यु निजगुण करतां सेव. ॥९॥ जगत्नी खटपट. दुनियानी खटपट सहु खोटी, शा माटे तेमां राचं, गाडी घोडाथी नहि शान्ति, वाडी, वर्तन काचं. ॥१॥ शा मादे विकथामां राचं, विकथामांहि सार नहीं; For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोज मझामां शुं हुं राचुं, जरा सार पण तेमां नही. ॥२॥ शा माटे हुं ज्या त्या दोडं, स्थिरता तेथी नहि जरा; शा माटे हुँ इच्छा राखं, इच्छाना उंडा छे धरा. ॥३॥ करगरवू पण शाने माटे, हाजीहा पण शामाटे; दुनियादारी सहु विसारी, जावू मारे शिववाटे. ॥ ४ ॥ म्हारु हारु करवू शाथी, स्वमसमी दुनियादारी; आंख मींचाए कोइ न साथे, दुनियानी वस्तु न्यारी. ॥ ५ ॥ वस्तु धर्मते मारो साचो, रंगायो तेमां राची; रत्नत्रयिनी ऋद्धि म्हारी, दुनियानी ऋद्धि काची. ॥६॥ आत्म धर्मनुं ध्यान धर्याथी, आनंदना उभरा प्रगटया; भेद ज्ञानथी खेद टळ्यो सहु, विषय विष वेगो विघटया.॥७॥ अन्तरमा उपयोग धरीने, अलख समाधिने वरशं; बुद्धिसागर शाश्वत सुखडा, पोतानां पोते वरशं. ॥८॥ श्री महावीर स्तवनम्. तारहो तार महावीर जगदिनमणि, भक्तने एक शरणुं तमारु; अकल निर्भय प्रभु शुद्ध स्वामी विभु, शरणथी शुद्ध व्यक्ति समारु. तारहो० ॥१॥ नित्य निरंजन धर्म स्याद्वादमय, शुद्ध व्यक्ति असंख्यप्रदेशी; ज्ञानयी जाणता दर्शने देखता, शुद्ध पर्यायमय ने अलेशी. तारहो० ॥२॥ छतिपणे केवलज्ञानना पर्यवा, For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयमां जाणता ते अनंता; तेथी पण जाणता अनंत सामर्थ्यना, ज्ञानने ज्ञेयरुपे मुहंता. ताहरो० ॥३॥ परम इश्वर सदा ऋद्धि क्षायिक धणी, पौद्गलिक भावथी देव न्यारो; शर्म अनंतनो भोग तुं भोगवे, पूज्य तुं प्राणथी मुज प्यारो. तारहो० ॥४॥ द्रव्यने भावथी शरण छे ताहरु, शुद्ध उपयोगमां तुं प्रभासे; बुद्धिसागर प्रभो तारशो बापजी, ध्यानना योगमा देव पासे. ताहरो० ॥५॥ संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवनम्. पार्श्व संखेश्वरा जगत्मा जयकरा, ज्ञानने ज्ञेयरुपे सुहाया; सर्व जड वस्तुथी भिन्न तुं छे प्रभु; जाति भाति नहि लिंग काया. पार्श्व०॥ १ ॥ शक्ति अनंत आधार तुं देव छ एक समये सकलगुण भोगी, लब्धि क्षायिक नव साधनंतिपणे; शुद्ध रत्नत्रयि गुण योगी. पार्थ० ॥२॥ शुद्ध शक्तिमयी अलख अरिहंततुं; देवनो देव तुं धर्म धोरी, अचल निर्मल विभु व्याप्यने व्यापक For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पार्श्व० ॥३॥ शुद्ध उपयोगमा तुं वस्योरी. तारजो नाथजी बिरुद निज राखशो; शुद्ध व्यक्ति पणे शीघ्र थापो, बुद्धिसागर प्रभु शुद्ध उपयोगमा धर्म स्याद्वादमय शीघ्र आपो. पार्य० ॥४॥ अवळी दृष्टि. अवळी दृष्टिना बहु फेरा, अन्तरमांहि अंधेरा; अवळी दृष्टि झेर समी छे, पुनः पुनः भवना फेरा. ॥१॥ करे कुतों पक्ष थापवा, करे धर्म ताणताणा; दोष दृषिथी दोषो खोळे, पाळे नहि जिनवर आणा. ॥ २ ॥ ज्यां त्यां अवगुण नजरे आवे, अवळी दृष्टि जगकाळी; अवळी दृष्टि धर्म हणे छे, सन्तजनो देशो टाळी. ॥३॥ अवळी दृष्टि दुःखनी वृष्टि, अरिसमा अवळी दृष्टिः अवळी दृष्टि अंधसमी छे, देखे नहि सद्गुण दृष्टि. ॥४॥ अवळी दृष्टिना बहु भेदो, शास्त्र थकी समजी लेशो; अनेकान्तनय धर्म विचारी, भव्यो त्यां राची रहेशो. ॥५॥ अवळी दृष्टिवाळा जीवो, पोताने साचा माने पकडयुं गद्धा पुच्छ न मूके, वर्ते पहेला गुण ठाणे. ॥६॥ पक्षपातनो त्याग करीने, जिन आणा हेते समजो अवळी दृष्टि झट अळपाशे, गुरु गमने साथे लेशो. ॥७॥ सहुथी पहेलुं कृत्य मजानु, अवळी दृष्टि परिहरवी; संयत गुरुना सदुपदेशे, साची धर्मदशा वरवी. ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० अवळी दृष्टि त्यागो भव्यो, दृष्टिरागने दूर करी; बुद्धिसागर वीर जिनेश्वर, गुरु परंपर चित्त घरी. For Private And Personal Use Only ॥९॥ सवळी दृष्टि. || 8 || सवळी दृष्टि सत्य सुजाडे, परम प्रभुमां मन वाळे; सवळी दृष्टि योगे समकित अनेक दोषोने टाळे. सात नयोथी सप्त तत्त्वना, ज्ञाने छे सवळी दृष्टि. सत्य धर्मने सत्य ग्रहे छे, सद्गुण मेघतणी दृष्टि. सवळी दृष्टि शंसय टाळे, सवळी दृष्टि गुण खाणी; सम्यग्ज्ञाने सवळी दृष्टि, भाखे जिनवरनी वाणी. क्षमा दयाने सत्य वचन पण, सवळी दृष्टिना योगे; पक्षपातनो त्याग कर्याथी; सवळी दृष्टि गुण भोगे. जिन वाणीना गहन अर्थने, जाणे तो सवळी दृष्टि; सद्गुरु मुनिनी निश्रायोगे, प्रगटे अनंत गुण सृष्टि ॥ १ ॥ जिन आगमनुं सेवन करतां, सवळी दृष्टि झट मगटे; समकित सडसठ बोल विचारे, मिथ्या दृष्टि झट विघटे ।। ६ ।। सापेक्षाए सत्यग्रहे छे, सवळी दृष्टि जयकारी; अनुभवामृत प्रेमे अर्पे, जाणे तेनी बलिहारी. म्हारु हरु दूर करीने, सवळी दृष्टि चित्त धरो; परम महोदय लीला प्रगटे, भव पाथोधि शीघ्र तरो ॥ ८ ॥ श्रद्धा साची जैन सूत्रनी, राखी झट अभ्यास करो; साधुं ते पोतानुं मानी, सवळी दृष्टि शीघ्र वरो. गुरु परंपर ज्ञान ग्रहीने, योगाष्टक मनमां धारो; बुद्धिसागर तत्व दृष्टिथी, पोताने पोते तारो. ॥ ९॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ।। ॥३॥ ॥७॥ ॥ १० ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्णानन्द. पूर्णानन्द स्वरूपी चेतन, पूर्णानन्दतणो भोक्ता; असंख्यप्रदेशी शक्ति अनन्ति, शुद्ध धर्म निजगुण योक्ता. ॥१॥ पर पुद्गलमां कदी न सुखडां, जडथी शी होवे शान्ति; पूर्णानन्द पणुं अन्तरमां, जाणे नासे सहु भ्रान्ति. ॥२॥ विषयानन्दपणुं नासे तो, चिदानन्द श्रद्धा थाशे; चिदानन्दनी श्रद्धा थातां, वळशे मनडु अभ्यासे. ॥३॥ अभ्यासे मनडुं वाळ्याथी, विषय वासना दूरथशे; स्थिरता थातां चिदानन्दनी, पूर्ण खुमारी चित्त वसे. ॥४॥ देहे वसियो गुणगण रसियो, जाणे ते तेने पावे; चेतनता निज घरमां आवे, पूर्णानन्दपणुं भावे. शाने माटे बाह्य भटकवू, अन्तरमा आनन्द खरे; कर्मापरणो दूरे थातां, चेतन पूर्णानन्द वरे. पूर्णानन्द प्रगटतो जेथी, तेने अवलंबो प्रेमे; सर्व जीवपर मातृभावना, सर्व जीवन गाळो रहेमे. ॥७॥ रागद्वेषना हेतु त्यागी, आत्म तत्वमांहि उतरो; जिनाज्ञाए धर्म विचारी, भव पाथधि भव्य तरो. ॥८॥ पूर्णानन्दपणुं अन्तरमां, वीर जिनेश्वरनी वाणी; बुद्धिसागर पूर्णानन्दी, चेतन अनन्त गुणखाणी. - राचवानुं स्थान कयुं. हसा हसीयां शुं हुं राचुं, जरा नहि त्यां चेन पडे; घाडी घोडामा शुं राचुं, शोधतां नहि सुख जडे. मारामारीमी शुं राचु, सुख नहि तलभार अरे; ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨ गप्पांसप्पांमां शुं राचुं, नही सुख तलभार खरे. पर पुद्गलमा शुं हुं राचं, जडमां सुख नहि दीडं; कुटुंबमांहि शुं हुं राचं, क्षणिक होवे शुं मीटुं. निद्रामांहि शुं हुं राचं भानुं नहि जेथी पोते; शुं राचं हुं नाटकमांहि, नाटकीया बीजे गोते. सगां संबंधीमां शुं राचुं, अंते जुदां थानारां; मुसाफरखाना समदुनिया, जुदां सर्वे जानारां. शुं हुं राचुं राज्य ऋद्धिमां, अंते तेनुं नष्टपणं; शुं हुं राचं मिष्ट भोज्यमां, तेनुं पण छे अन्यपणं. मोजमझामां शुं हुं राचं, मोझमझा अंते खोटी; शुं हुं राचुं वस्त्र वेषर्मा, सुखनी आशा त्यां छोटी. ॥ ७ ॥ शुं हुं राधुं रागरंगमां, रागरंग जुठी माया; शुं हुं राचं शरीरमांहि, पाणीमांना पडछाया. asथी शाश्वत शर्म न मळशे, भाखे छे जिनवरवाणी; अन्तरमांहि शर्म सदा छे, श्रद्धा तेनी मन आणी. सदाय राचुं अन्तरमांहि, अन्तरमां सुखडांभारी; बुद्धिसागर अलख निरञ्जन, राचो तेमां नरनारी ॥ १० ॥ ॥ ६ ॥ For Private And Personal Use Only ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 ॥ ५॥ 11 2 11 ॥ ९॥ अनुभव वातो. अनुभव वातो अटपटी छे, विरला जाणी त्यां रमता; विना गुरुगम आप मतिला, भ्रमणाथी भवमां भमता ॥ १ ॥ अनुभववाणी ज्ञानी जाणे, मूढजनो ज्यां त्यां ताणे; गुरुगम सप्त नयोना ज्ञाने, पडे न ज्ञानी तोफाने; परम तत्वनो पार लहे कोइ, जिनवाणी हृदये धारे; ॥ २ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४३ ज्ञानाचार प्रपाले योगे, आपतरे परने तारे. जैनागमनी गहन शैलीने, जाणे ते समकित ठाणे; विरत्यादिक गुणग्रहीने, अवळो पन्थ नहि ताणे. अध्यवसाय असंख्य भेदो, गुणठाणे गुणनी राशि; संयमस्थाने विचारे मनमां, प्रगटे छे झट उदासी. अनुभवभानु झळहळतो, त्यां, भासे मिथ्यातमनासे; द्रव्य गुण पर्याय रमणता, लेश्या निर्मलता वासे. ज्ञानयोगथी ध्यानयोगमां, प्रगटे समतामृत प्यारु; बाह्य अने अन्तरमां ज्यां त्यां, शान्तिमय जीवन सारु ॥ ७ ॥ अपूर्ववीर्ये आत्मध्यानमां, परमब्रह्मध्यानी पोते. ब्रह्म अरूपी अरूप ध्याने, पोते पोताने गोते. एकलीनता उपादानथी, गुणठाणे गुणने पावे; शुद्ध रमणता स्थिरोपयोगे, चेतन निज घरमां आवे ॥ ९ ॥ शुक्लध्यानमां श्रुतप्रयोगे, चेतन चढतो गुणठाणे; शुकलध्याननो बीजो पायो, ध्यातां नव ऋद्धि माणे. ॥१०॥ क्षायिक भावे शुद्ध थने, समये लोकांते जावे; बुद्धिसागर तत्त्व विचारे, समजे ते शिवपद पावे. ॥ ११ ॥ मुनिवर गुंहळी. श्री धुलिभद्र मुनिवरमांहि शिरदारजो-ए राग. सद्गुरु मुनिवर पंच महाव्रत धारीजो, घर त्यागीने थया मुनि अनगारीजो; सत्तर भेदे संयम पाळे भावथीजो. For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ८ ॥ 11 3 11 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ ॥ ३॥ अन्तर दृष्टिधी आतम अजुवाळेजो, अतिचारने प्रतिक्रमणथी टाळेजो; सुख दुःखमां वैराग्ये समभावे रहेजो. जिनशासननी शोभा नित्य वधारेजो, श्राप तरेने बीजाने वळी तारेजो ध्यान दशामा जीवन सघळू गाळताजो. जिनवाणी अनुसारे दे उपदेश जो, उदये आव्या टाळे रागने द्वेषजो; शांत दशाथी अनुभवमंदिर म्हाळता जो. मान करे कोइ मनमां नहि मकलायजो, जश अपयशमां समभावे मुनिरायजो; ज्ञान ध्यानथी मनमर्कटने वश करेजो. चढते भावे संयम साचुं शोधजो, दिनप्रतिदिन संयममांहि बोधजो; निरुपाधिपदयोगे सुख अनुभव लहेजो. करे न निन्दा द्वेषथकी तलभारजो, धर्म करीने सफळ करे अवतारजो एवा मुनिवर वंदो उत्तम भावथीजो. मुनिवरनी भक्तिथी मीठा मेवाजो, करवी भावे मुनिगुरुनी सेवाजो बुद्धिसागर सद्गुरुमुनि आधार छेजो. ॥७॥ ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org સ્ટેમ્પ गुंहळी. मुनिवरनो श्रावकने उपदेश. श्रीस्थूलभद्र मुनिवर मांहि शिरदारजो-ए राय. 1 सद्गुरु मुनिवर श्रावकने उपदेशेजो, पडो न श्रावक पाप कर्मना क्लेशेजो; देवगुरुनुं आराधन निशदिन करोजो. जिनवाणी सांभळशो गुरुनी पास जो, - व्रत नियम पण करवां भावे खास जो; सिद्धांतो सांभळतां श्रद्धा निर्मली जो. श्रवण करीने मनमां साधुं राखो जो, मोह दशाने टाळी सुखडां चाखोजो; स्वमामां पण संसारे सुख नहि जराजो. कमळ रहे छे जलमांहि निशदीनजो, जोशो ते वर्ते छे जलथी भिन्नजो; संसारे पाता नहि श्रावक खराजो. श्राद्धविधियां श्रावकनो अधिकारजो, धर्मरत्नमां पण तेनो विस्तारजो; द्वादश बसने धारे श्रावक प्रेमयीजो. सात क्षेत्रमां वापरतो निज चित्तजो. गुण ग्रहणमां वर्ते जेनुं चित्तजो; गुरुनी आणा पाळे शिर साटे खरोजो. न्याय थकी पैदा करतो जे वित्तजो, दोषो टाळी राखे दील पवित्रजो; श्रावकना आचारों जयणाथी भर्याजो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ १ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥६॥ 11.9 11 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥८॥ साधीने देखी हर्षित यायजो, धर्म बंधुने कस्तो भावे स्हायजो अपूर्व अवसर जैन धर्म पाम्यो गणेजो. मुनिवर थावा इच्छा दील हमेशजो, मुनि थइने विचरीश देश विदेशजो एवा भाव प्रगटवाथी श्रावक खरोजो. पाळो श्रावकना उत्तम आचारजो, सफल करोने मानव भव मुखकारजो; बुद्धिसागर उपदेशे मुनिवर गुरुजो. ॥९॥ ॥१०॥ गुंहळी. जिनधर्म. श्री स्थूलिभद्र मुनिवरमां शिरदारजो-ए राग. मुनिवर उपदेशे छे श्री जिनधर्मजो, टाळो भव्यो आठ जातनां कर्मजो; श्रवण करीने सद्वर्तन सुधारशोजोः 'दया धर्म वर्ते जगमां-जयकारजो .. जिन आणाथी पाळो मर ने नारजो; स्वरुप साचुं समजी जिन आगमयकीजो, साचुं बोलो निशदिन नर ने नारजो, साचुं बोले तेनो धन्य अवतारजो ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४॥ ॥५॥ ફક૭. साधु बोले वचन सिद्धि थाशे खरी जो. करो न चोरी जेथी दुःख अपारजो चोरी करतां पापकर्म निर्धारजो माण पडे पण चोरी कदी न कीजीएजो. दा न कीजीएजो. जननी सरखी देखो परनी नारजो, 'व्यभिचारथी नरकगति अवतारजो; सर्वनारी मैथुन निवारे मुनिवराजो. परिग्रह ममता त्यागो नर ने नारजो, सद्गुणनी दृष्टि धरशो जयकारजो; राखो सहुनी साये मैत्री भावनाजो. वात वातमा कदी न करीए कलेशजो, उच्चाशयथी वर्तो भव्य हमेशजो; पापकर्मने टाळो साचा ज्ञानथीजो. . 'मुनि गुरुवर देषे छे उपदेशजो, टाळो भव्यो जन्मजराना क्लेशजो; बुद्धिसागर धर्म करतां सुख घणुंजो. ॥७॥ ॥८॥ अपूर्व अवसर गुंहळी. ओधवजी संदेशो-ए राग. अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे, शत्रु मित्रपर वर्ते भाव समानजो; माया ममता बंधन सर्व विनाशीने, For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्यारे करशुं अनेकान्त नय ध्यानजो. अपूर्व. ॥१॥ शुद्ध भावमा रमण करीशुं टेकथी; षड द्रव्योनुं करशुं उत्तम ज्ञानजो, अनुभवामृत आस्वादीशुं प्रेमथी; सरखां गणशुं मान अने अपमानजो. अपूर्व० ॥२॥ पिंडस्थादिक चार ध्यानने धारशु बारभावना भावीशुं निशदीनजो, स्थिरोपयोगे शुद्ध रमणता आदरी; ध्यान दशामा थाशुं बहु लयलीनजो. अपूर्व०॥ ३ ॥ सर्व संगनो त्याग करीशुं ज्ञानथी; बाह्योपाधि जरा नहि संबंधजो, शरीर वर्ते तोपण तेथी भिन्नता; कदी न थइशं मोह भावमां अंधजो. अपूर्व०॥४॥ शुद्ध सनातन निर्मल चेतन द्रव्यनो; क्षायिक भावे करशुं आविर्भावजो, ऐकयपणुं लीनताने आदरशुं कदी; ग्रहण करीने औदासीन्य स्वभावजो. अपूर्व० ॥५॥ प्रति प्रदेशे अनंत शाश्वत सुख छ आविर्भाव तेनो करशुं भोगजो, . बुद्धिसागर परम प्रभुता संपजे; क्षायिक भावे साधो निजगुण योगजो. अपूर्व० ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुहळी. संयमधर्मः मुनिवर उपदेशे छे संयम धर्मने, जेथी माणी पामे शाश्वत शर्मजो; परम प्रभुता पामे दुःखडां सहु टळे, अनंतभवना बांध्यां नासे कर्मजो. मुनिवर० ॥१॥ बाह्य उपाधि संयमथी दूरे टळे, द्रव्यभावथी संयम सुखनी खाणजो त्रिज्ञानी तीर्थकर संयमने ग्रहे, सेवो संयम पामी जिनवर आणजो. मुनिवर ॥२॥ रंकजनो पण संयमी मुखिया थया, थाशे अनंता संयमथी निर्धारजो ज्ञान सफलता संयमना सेवनथकी, पामे प्राणी भवपाथोधि पारजो. मनिवर० ॥ ३ ॥ अन्तर गुणनी स्थिरता संयम मोदकुं, इन्द्रादिक पण सेवे मुनिवर पायजो; द्रव्यादिकथी संयम पाळे मुनिवरा, संयम सेवे जन्म जरा दुःख जायजो. मुनिवर० ॥४॥ निश्चयने व्यवहारे संयम साधना, जिन आगमथी संयमना आचारजो; संयमपाळे तेने निशदिन वन्दना, समता योगे मुनि सफळ अवतारजो. मुनिवर०॥५॥ ज्ञानदशाथी संयमनी आराधना, समता सरघर श्रीले मुनिवर हंसजो; For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानभुवनमां शाश्वत सुखने भोगवे, काँ कर्मनो कर्ता तपथी ध्वंसजो. मुनिवर० ॥३॥ त्रिगुप्तिने समिति पंचे परिवर्या, उच्च दशाना ध्याता मुनि अणगारजो बुद्धिसागर सद्गुरु मुनिने वंदना, जगमा जेनो थयों सफल अवतारजो. मुनिवर० ॥७॥ गुंहळी. मुनिनो उपदेश. मुनिवरना उपदेशे मनडुं वाळीए; कहेणी जेवी रहेणी राखो भव्यजो, व्रत उच्चरीए मुनिनी पासे प्रेमथी; मानव भवनुं साचुं ए कर्त्तव्यजो मुनिघर० ॥ १ ॥ श्रवण करीने सार ग्रहो सिद्धान्तना; सद्वर्तनथी सुधरो नरने नारजो, निन्दा विकथा परपंचातो वारीए, सत्य धर्मना करीए नित्य विचारजो. मुनिवर० ॥१॥ बार भावना भाग्याथी छे उन्नति, कर्मवर्गणा खरे अनंति खासजो; उज्जवल आतम. याशे वैराग्ये करी, परपुदगलनी छोडो सघळी आशजो. मुनिवर ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मध्यानना पाया चार विचारीए, आत्म रमणता शुद्ध चरणता धारजो; परम महोदय शाश्वत लीला संपजे, वस्तु धर्मना उपयोगे आधारजो. मुनिवर० ॥ ४॥ विषय कषायो मदिरा सरखा जाणीने, वैराग्ये मन वाळीशुं निर्धारजो; ज्ञानक्रियामा उद्यम निशदीन राखशुं, भेद दृष्टियी त्यागीशुं ममकारजो. मुनिवर० ॥५॥ नय सापेक्षे जिनवर धर्माराधना, करशे ते पामे सुख नरने नारजो; लाख चोराशी परिभ्रमण दूरे टळे, महामोहनो नासे सर्व विकारजो, मुनिवर० ॥ ६॥ उदासीनता राखो आ संसारमां, धर्म कोथी सफळ थशे अवतारजो; बुद्धिसागर अनुभव लीला पाइए, सद्गुरुवरने वंदन वारंवारजो. मुनिवर० ॥ ७॥ मुनिवर गुंहळी. अली साहेली-ए राग. मुनिवर वंदो पंच महाव्रत धारी जिन आणाधरा, गुरु गुण गावो अनुभव अमृत भोगी जगमां जयकरा; गुरु देश विदेश विहार करे, गुरु तारेने वळी आप सरे, For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरु प्रवचनमाता चित्त धरे. मुनिवर० ॥१॥ गुरु द्रव्यभाव संयम धारे, महा मोह वेग मनथी वारे चाले जिनवाणी अनुसारे. मुनिवर० ॥२॥ गुरु पंचाचारतणा धोरी, गुरु करमां शान तणी दोरी; कदी करता नहि परनी चोरी. मुनिवर ॥३॥ गुरु उपदेशे जनने बोधे, गुरु वैराग्ये चेतन शोघे; लागंतां कर्म सहु रोधे. मुनिवर. ॥४॥ गुरु ध्यान दशाथी घट जागे, रंगाता नहि ललना रागे; साधे निजलक्ष्मी वैराग्ये. मुनिवर. ॥५॥ अंतर ऋद्धिना उपयोगी, साधे छे रत्नत्रयि योगी परमातम अमृतरस भोगी.' मुनिवर० ॥ ६॥ गुरु शुद्धोपयोगे नित्य रमे, परभाव दशामा जे न भमे, जे शानदशानुं जमण जमे. मुनिवर० ॥७॥ गुरु भावदयाना छे दाता, ज्ञाता ध्याता ने जगत्राता; । निश्चय दृष्टि निज गुण राता. मुनिवर० ॥ ८॥ गुरुवरजी जगमा उपकारी, जे अनेकान्त मतना धारी; बुद्धिसागर शुभ जयकारी, मुनिवर० ॥९॥ मुनिवर्य गुंहली. उहाला वीर जिनेश्वर-ए राग. मुनिवर वैरागी त्यागी जगमा जयकारछेरे, खरेखर ब्रमदशाना भोगी मुनिवर थायछेरे For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम तीर्थ मुनिवर साचुं, प्रेम धरी मुनिपदमा राचुं, जगमा मुनिवर साचा उपदेशक कहेवायछेरे.: मुनिबर० ॥ १ ॥ बाब उपाधिना जे त्यागी, अन्तर मुणना जे छ रागी; सुखकर वैरागी शिवमंदिरमाहि जायछेरे. मुनिवर० ॥ २ ॥ निन्दा विकथा दोषो वारे, आप तरेने परने तारे,. साधत मुखना साधक जगमाहि वखणायछेरे. मुनिवर० ॥ ३ ॥ परम महोदय ऋदि धारी, भावदयाना जे उपकारी, बाधक योगो टाळी साधकमाहि जायछेरे.. मुनियर० ॥ ४ ॥ सिददशाना जे अधिकारी, वंदो प्रेमे नरने नारी, रिला आत्मदशाना भोगी मुनि वर्तायछेरे. - मुनिवर० ॥ ५ ॥ आत्म ज्ञानमा जे रंगाया, अनुभव अमृत ध्याने पाया, परमभावमा ध्यान थकी रंगायछेरे. . मुनिवर० ॥ ६ ।। समकित दाता मुनि उपकारी, ध्यान दशाना जे छे धारी; भावे बुद्धिसागर मुनिवरना गुण गायछेरे. मुनिवर० ॥ ७॥ गुरु गुहळी. बेनी रविसागर गुरु बंदीए-ए राग. गुरु पंचमहाव्रत पाळता, करे देशोदेश विहार, पंचाचारने मनमा धारता, भावे भावना उत्तम बार. गुरु० ॥१॥ पददर्शनने जे जाणता, जिन दर्शन स्थापे सार; मान ध्यानमा आयु गाळता, करे निन्दानो परिहार. गुरु० ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर नारीने प्रतिबोधता, शुभ संयमना धरनार, त्रण गुप्ति धारे भावथी, पंच समितिथी संचनार. गुरु० ॥३॥ पंच इन्द्रियने वशमां करे, धारे गुप्ति ब्रह्मनी बेश; टाळे चतुर्विध कषायने, आनंदे विचरे हमेश. गुरु० ॥ ४ ॥ द्रव्य क्षेत्रने काल भावथी, पाळे संयम मुख करनार, उज्ज्वल ध्याने निशदिन रमे, श्रुत ज्ञान रमणता सार-गुरु० ॥१॥ वैरागी त्यागी शिरोमणि, धन्य धन्य मुनि अवतार. निश्चयनय व्यवहार जाणता, होशो वंदना वार हजार. गु०॥६॥ मुनिवर वंदे भवभय टळे, शुभ मुनि सुणो उपदेश; बुद्धिसागर सद्गुरु वंदीए, गुरु ज्ञाने सुख हमेश. गुरु०॥७॥ गुरुवन्दन. गुंहळी. बेनी रविसागर गुरु बंदीए-ए राग. बेनो पालो गुरुजीने वंदीए, उपदेशे छे जिनधर्म साधु श्रावक धर्म बे भाखता, जेथी नासे सघारे कर्म. बेनो. ॥१॥ सातनपथी मधुरी देशना, देवे भविजन सुख करनार; बोधिबीज ह्रदयमा वावता, भाखे धर्मना चार प्रकार. बेनो. |२|| नयभंग प्रमाणथी देशना, वर्षती घनजलधार; जीव चातक पान करे घj, थावे चित्तमा हर्ष अपार. बेनो. ॥३॥ संसार असार जणावता, दुःखदायक विषय प्रचार; For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महा मोहमल्ल दुःख आपतो, चेतो चेतो झट नरनार. बेनो. ॥४॥ माया ममता दारु घेनमा, नहि मुज्युं आतम भान; आशा वेश्या करमाहि चन्यो, कर्मे थइयो अति नादान. बेनो. ॥५॥ लाख चोराशी भमतां थकां, पामी मनुष्यनो अवतार; चेतो चेतो ह्रदयमा माणिया, गुरु कहेता वारंवार. बेनो. ॥६॥ गुरु वस्तु धर्म बतावता, तेनो आदर करवो सार; जाणी धर्म आचारमा मूकवो, सत्यधर्म करी निर्धार. बेनो. ॥७॥ निंदा विकथादिक परिहरी, सेवो उत्तम धर्माचार; बुद्धिसागर सद्गुरु वंदीए, गुरु तारे अने तरनार. बेनो. ॥८॥ जैनधर्म गुंहली. राग उपरनो. जैन धर्म हृदयमा धारीए, जेथी नासे भवभय दुःख थावे निर्मल आतम धर्मथी, पामे चेतन शाश्वत सुख. जे ॥१॥ भेद छेद आतमना ज्ञानथी, शुद्ध चेतन ऋद्धि पमाय; होवे आतम ते परमातमा, भवोभवनी भावट जाय. जै० ॥२॥ ज्ञान दर्शन चरणनी साधना, साधु श्रावकना आचार; सागर सरखा जैन धर्ममां, सर्व दर्शन नदी अवतार. जै० ॥३॥ समुद्रमा सरिता सहु मळे, नदीमांहि भजनाधार; अंतरंग बहिरंग उच्च छे, जिन दर्शन जग जयकार. जै० ॥४॥ सापेक्ष वचन जिननां सहु, षड्व्य ना धर्म अनंत; एक चेतन द्रव्य उपासीए, एम भाखे छे भगवंत. जै० ॥५॥ वीतराग सेवे वीतरागता, निजं चेतननी प्रगटाय; For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ नासे अशुद्ध परिणति वेगळी, भेदभाव सकल दूर जाय. जै० ॥६॥ गुरु विनये ज्ञानने पामीए, श्रद्धा भक्तिथी उदार; बुद्धिसागर सद्गुरु सेवतां, होवे जिनशासन जयकार. जै० ॥७॥ धर्मोपदेश गुंहली. सनेही वीरजीजय कारीरे-ए राग. बनी सद्गुरु वाणी सारीरे, साकरथी पण बहु प्यारीरे; कर्या कर्म सहु हरनारी, जिनेश्वर धर्मनी बलिहारीरे; जेथी तरतां नरने नारी. जिनेश्वर० ॥ १ ॥ दया धर्म हृदयमां धरीएरे, कदी वेंण जूटुं न उच्चरीएरे; कदी चोरी परनी न करीए. जिनेश्वर० || २ || पर पुरुषथी प्रेम निवारोरे, धर्म पतिव्रता मन धारोरे; तेथी पामो भवजल पारो. For Private And Personal Use Only जिनेश्वर० ॥ ३ ॥ हेतु पूर्वक धर्म आदरीएरे, निंदा विकथा परिहरीएरे; उत्तम नीति संचरीए.. धर्म अर्थने काम विचारीरे, करो मोक्ष जवानी तैयारीरे; धर्मे झट मुक्ति नारी, जिनेश्वर० || ५ || दुर्जननी संग निवारीरे, भजो सज्जननी संग सारीरे; 'वैराग्यदशा चित्तधारी. देश विरतिपणुं दिलधारीरे, जिन आज्ञाना अनुसारीरे; उत्तम जन शिव संचारी. जिनेश्वर० ॥ ६ ॥ जिनेश्वर० || ७ || गुरु सेवी सदा उपकारीरे, श्रद्धा भक्ति अवधारीरे; बुद्धिसागर गुरु जयकारी. जिनेश्वर० ॥ ४ ॥ जिनेश्वर० || ८ || Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५७ अमुल्य सत्य बोध. गुंहली. ओधवजी संदेशो कहेशो श्यामने-ए राग. मुनि गुरुने वंदन करवु भावी, विनय भक्तिथी साधक सिद्धि थायजो; प्रशस्त प्रेमे देवगुरुने सेवीए, . तन मन धनथी सेवो धर्म सदायजो. मुनि० ॥ १॥ भेद ज्ञानथी भावो आत्मस्वरूपने, अनंतशक्ति चेतननी प्रगटायजो; सर्वकालमा चिदानंद चेतन कयो, चेतन ज्ञाने वस्तु सर्व जणायजो. मुनिः ॥२॥ आत्मज्ञानथी अळपाशे मिथ्यापणुं, अंतरना उपयोगे साचो धर्मजो; धामधूमथी धमाधमी चाली रही, राग दोषथी बांधे जीवो कर्मजो. मुनि० ॥ ३ ॥ सद्गुणदृष्टि सद्गुण धारी लीजीए, उच्चभावथी भावो आतम द्रव्यजो; हेय ज्ञेयने उपादेयना ज्ञानथी, साचुं ते मारु मानो कर्तव्यजो. मुनिः ॥१॥ उपशम संवर विवेक रत्न विचारीए, समता भावे करीए आतम ज्ञानजो; भावदयाथी सत्य धर्म अवधारीए, आरमोमतिनुं कारण जाणो ध्यानजो. मुनि ॥५॥ दुनियामांहि दोषोने सद्गुणो भर्या, जेने जे रुचे ते लेता भव्य जो For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ दुर्गतिने सुगति पण निज हाथमा, समजी धारो धर्म एक कर्तव्य जो. मुनि० ॥ ६ ॥ आजकाल करतां सहु दहाडा वही जशे, श्वासोच्छ्वासे अमूल्य जीवन जाय जो ज्यारे त्यारे आत्मोघमथी मोक्ष छे, अंतरदृष्टिवाळो मन हित लायजो. मुनि०॥७॥ जेवी बुद्धि तेवू समजाशे सहु, . दृष्टि भेदयी भेद पडे निर्धारजो; बुद्धिसागर सद्गुरु श्रद्धा धारतां, शाश्वत सिद्धि पामे नरने नारजो. मुनिः ॥ ८ ॥ गुरु स्तवनम्. गुहळी. ओधवजी संदेशो कहेशो- श्यामने-ए राग. वंदु बंदु समकित दाता सद्गुरु, पंच महाव्रत धारक श्री मुनिरायजो; उपशम गंगाजलमा निशदिन झीलता, मनमा वर्ते आनंद अपरंपारजो. अनेक गुणना दरिया भरिया ज्ञानथी, पडे न परनी खटपटयां तलभारजो. वंदु० ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५९ बंदु० ॥२॥ वंदु० ॥३॥ वंदु० ॥४॥ सदुपदेशे साचुं तस्व जणापिने, संयम अपी करता जन उद्धारजो. अंतरना उपयोगे विचरे आत्ममां, योग्य जीवने देता योग्यज बोधजो; असंख्यप्रदेशे स्थिरता ध्याने लावता, संवर सेवी करता आश्रव रोधजो.. त्रस थावरना प्रतिपालक करुणामयी, भावदयानी मूर्ति साधु खासजो; ज्ञाता भ्राता त्राता माता सद्गुरु, सद्गुरुना बनीए साचा दासजो. त्रण भुवनमा सेव्य सदा श्रीसद्गुरु, द्रव्य भावथी संयमना धरनारजो, भव जलधिमां उत्तम नौका सद्गुरु, सद्गुरु नौकाथी उतरो भव पारजो.. गुरु भक्तिथी गुरुवाणी मनमा ठरे, गुरु भक्तिथी उत्तम फळ निर्धारजो; सद्गुरु द्रोही द्वेषी दुर्जन त्यागशो, परमब्रह्मनी प्राप्ति शीघ्र थनारजो. कलिकालमा गुरुनी भक्ति दोहीली, गुरु भक्तो पण विरला जन देखायजो दृष्टि रागमां भूली दुनिया बावरी, कस्तुरी मृग पेठे बहु भटकायजो.. सद्गुरुदास बन्या वण ज्ञान न संपजे, समजी साचो सार ग्रहो नरनारजो; बंदु० ॥५॥ बंदु० ॥६॥ वंदु० ॥ ७॥ For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुद्धिसागर सद्गुरु श्रद्धा भक्तियी; उतरो माणी भवसागरनी पारजो.. बंदु० ॥ ८॥ जिनवाणी. गुंहळी. बेनी रविसागर गुरु वंदीए-ए राग. मारु मन मोयुं जिनवाणीमा, अति आनंद मन उभरायः अन्य वात प्रसन्न न आवती, कोने दीलनी वात कवाय.मा०।१। लागे विषय विकारो विष समा, लागे कुंटुंब माया शाळ; गृहावास कारागृह जेहवो, सहु स्वार्थ तणी छे धमाल. मा० ॥२॥ अज्ञानयी म्हारु जे मानियु, ते म्हारु नहि पडी सुझा नयी पडतुं चेन संसारमां, गुरु कहेछे बुझ्झ बुझ. मारु० ॥३॥ हाजीहा सहु मोह प्रपंचनी, ज्यां त्यां मोह धतींग जणाय; जेणे जाण्यु तेणे मन वाळीयु, श्रुतज्ञाने सहु समजायः मारु०॥४॥ नयसापेक्षे नवतत्त्वने, जाणी आदर्यु उपादेय; बाह्यभावनी खटपट भूलतां, शुद्ध तत्व हृदयमा शेय. म्हारु० ॥५॥ शिवपुर संचरशुं ध्यानथी, निरुपाधिदशामा सुख, निग्रंथ अवस्था आदरी, वेगे टाळीशुं भवदुःख- म्हारु० ॥६॥ सागरमा गागर फुटतां, तेतो सागररूप सुहाय; बुद्धिसागर अन्तर आतमा, परमातम पोते थाय. म्हारु०॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६१ ॐ नमः संखेश्वर पार्श्वनाथाय. अथ आत्मस्वरूप ग्रन्थः छंद दुहा. शुद्ध बुद्ध परमातमा, अविनाशी चिद्रूप; अखंड अजरामर विभु, चिदानंद सुखरूप. परस्वजाति परातमा; ध्येयरूप गुणधामः सिद्ध मुहंकर ध्यावतां, ध्याता गुणगण ठाम. अनेकांतनयनाकथक, पूर्णानंद स्वभाव; अरिहंतादिक ध्यावतां, स्तव्रतांटले विभाव. कर्मोपाधियोगथी, आतम भेद कहाय; कर्मोपाधि जोटळे, भेद भाव दुर जाय. बाहिर अंतर आतमा, परमातम ऋण भेद; तेनां लक्षण जुजुवां, समय वाणीथी वेद. पंचभूत ते आतमा, अथवा देहाध्यास; पुद्गल माने आतमा, बहिरातम ए खास. बुद्धि एहवी जेहने, ते मिध्यात्वी जोय; पुण्यपापने नवगणे, भवाभिनंदि होय. खावुं पीवुं पहेरवुं जगमां माने सार; बहिरात पद प्राणिया, लहे न तत्व विचार. आपमतिए चालता, करता तर्क वितर्क; पाप पुंज पोठी भरी, जावे भरीने नरक. बाहिर दृष्टि तेहनी, भूले भवमां फोक; एळे जन्म गुमावता, शुं त्यां करिए शोक. For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11 119 11 ॥ ६॥ 11 6 11 ॥ ८ ॥ ॥९॥ ॥ १० ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१२॥ ॥१३॥ ॥ १५ ॥ ॥ १६॥ पृथ्वी अपने तेजवळी, वायुकाय मजार; सूक्ष्म बादर भेदथी, भटक्यो जीव अपार. साधारण प्रत्येक बे, वनस्पतिना भेद; भटक्यो वार अनंति त्यां, विविध पामी खेद. बहिरातम पद त्यां ग्रयुं, लडुं न आतम भान; भूल्यो भारे कर्मथी, शुद्ध बुद्ध भगवान्. काल अनन्तो, त्यां रह्यो, दुःख ज्या श्वासोच्छ्वास भवितव्यता योगयी, बेरेंद्रिमा वास. विचित्र देहो त्या ग्रहां, नाम रूपना योगः ... तेरेंद्रि चौद्रिमां, थइयो दुःखनो भोग. एम अनंता भव भमी, पंचेंद्रि अवतार पंचेंद्रिमा चार भेद, देवादिक मन धार. काल अनंतो वीतियो, बहिरातम पद बुद्धि भेद ज्ञानना योगवण, लही न आतम शुद्धि. पर भव कोने देखियो, क्या ईश्वर देखाय; खा, पी, पहेरवू, सत्यपणे मन लाय. पुण्य पाप दीसे नही, स्वर्ग बतावो भाई; पाप पुण्यनी कल्पना, जगमा बडी ठगाई. भोळा त्यां भरमाय छे, करे विचारो एम; बहिरातमपद वासिया, भवजलधि तरे केम. दान करेथी शुं हुवे, जाप जपे शुं थाय; धूर्त जनोनी कल्पना, भोळा त्यां भरमाय. एवी बुद्धि जेहनी, ते बहिरातम दीन; धर्म मर्म समझे नहि, सद्गुरु संगति हीन. पंचतत्व पूतळ, आतम मानो देह ॥ १८॥ ॥ १९ ॥ ॥ २०॥ ॥ २१ ॥ ॥२२॥ For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२३॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५ ॥ ॥२६ ।। ॥ २८॥ देह थकी न्यारो नही, नास्तिक माने एह. सूक्ष्मबुद्धि सयुक्ति वण, आतम नहि समजाय; आतम अज्ञानी जडो, भवमांहि भटकाय. वीतरागना वचनथी, ए सघळू समजाय; सद्गुरु संगे आतमा, स्यावाद रूप थाय. अनंत काल भवमा भम्यो, थइ नहि तत्व प्रतीत आत्मतत्चना ज्ञान वण, टळी न भवभय भीत. कर्ता ईश्वर मानता, आपमतिला लोक; तत्वमार्गने नहि गणे, तसविद्या सब फोक. बहिरातमपद वासना, एहिज भवतुं मूल; मोह मदिरा पानथी, करी महा ए भूल. विवेक दृक् खूले यदा, तो सवढं समजाय; भेद ज्ञाननी योजना, हंस चंचुने न्याय. पंच तत्त्वथी भिन्न छ, चेतन मनमां जाण; अरणिमा अग्नि वसे, आत्म देहमा मान. पंच भूतमां ज्ञान गुण, कदी नहीं देखाय; मृतक शरीरे पंच भूत, नहि चेतन वर्ताय. सुख दुःख चेष्टा जेहथी, जाणे सुखने दुःख; ताप टाढने जाणतो, तृषा रोगने भूख. । आतम तत्व विचारीए, व्यापक देह मजार; असंख्यात मदेशथी, शाश्वत नित्य विचार. चित् शक्ति चेतन विषे, वर्ते काल अनादि पंच तत्त्व जड रूप छे, नहि तेथी तसबाध. परभव कोने देखियो, एनो उत्तर एम; ' सर्वज्ञे दीठो सदा, ज्ञानदृष्टिथी तेम. ॥ २९ ॥ ॥३०॥ ॥३४॥ For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ३७॥ ॥ ३८॥ ॥ ३९॥ ॥४०॥ ॥.४१ ॥ ईश्वर क्या देखाय एम, वदे विकल जन वाण ज्ञानदृष्टिथी सहु घटे, शुं त्या ताणाताण. चक्षुथी देखायजे, मान तेह प्रमाण; पितामहादिक थै गया, शुं छे त्यां एधाण. परंपराए ते घटे, माने मन जो बेश; परंपराए तीर्थनाथ, मानतां शो क्लेश. तीर्थकर सर्वज्ञ छे, भाषे सत्य स्वरूप; सिद्धो देख्या तेमणे, शाश्वत शुद्ध अनुप. तीर्थकर ते ईश छे, शिवनगरीनो भूप; देखे ज्ञानी आतमा, मूढ धरे मन चूप. पाप पुण्य दीसे नहीं, ए पण युक्ति हीन वायवादिक दीसे नहीं, मानो केम प्रवीण. पुद्गलस्कंधो दृष्टिथी, कोईक तो देखाय; कोइक तो स्पर्शाय पण, नजरे नहीं जणाय. ताढ ताप स्पर्शाय छे, ग्रह्यां नहीं ते जाय; शाताशाता पुद्गलो, फलोदये परखाय. पुण्य प्रकर्षे स्वर्गमां, उपजे भवि जन कोय; उग्र पापथी नरकमां, शुं त्यां अचरिज होय. स्वर्ग नरक ते कल्पना, माने मोही मूढः सत्य स्वरूप न अन्यथा, ए अन्तरनूं गूढ. ज्ञानीये दीढं सहु, स्वर्ग नरक साक्षात सर्वज्ञदृष्टि वडे, दृश्यपणे सहु वात. सूर्य चंद्र ग्रहादिको, भाख्या सूत्र मझार; स्वर्ग नरक पण भाखियां, सत्यपणे ते धार. कयु प्रयोजन ज्ञानिने, करे कल्पना वात; ॥४२॥ ॥४५॥ For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राग द्वेष जेने नथी, सत्य पणे सौ ख्यात. ॥१८॥ दान करेथी शुं हुवे, जाप जपे शुं थाय; करे कुतर्को मुग्ध जन, बुद्धि नहि स्थिरठाय. ॥४९॥ दाने इष्ट पमाय छे, दाने सर्व सधाय; उत्तम ग्रहमा उपजे, ए सहु तस महिमाय. ॥१०॥ राजग्रहे को उपमे, कोईक भिक्षुक घेर; दान पुण्य मान्या विना, न्याय ग्रहे अंधेर.. ॥५१ ।। दान क्रिया तप जप थकी, प्रगट पुण्य बंधाय तदनुसारे जन्म होय, घर सयुक्ति न्याय. ॥५२॥ पश्चिमवतनी संगथी, बुद्धि विकलता थाय; शास्त्रो श्रवण कर्या विना, नास्तिकता मन पाय. ॥५३ ।। सदगुरु संग करे नहि, वांचे नहि सद्ग्रंथ; आपमति आगल करी, चाले अवळे पंथ. ॥ ५४॥ दीर्घदृष्टि जेनी नही, तस्व तणुं नहि भान; सुधारो ते शुं करे, बुद्धि हीन नादान. - ॥ ५५॥ पुनर्जन्म नहि संपजे, कथनी करता कोय; सत्य वचन तेनुं नहीं, कां विचारी जोय. यदि सिद्ध जो आतमा, पुनर्जन्म तो सिद्धः पुनर्जन्म संस्कार बाल, स्तन पाने प्रसिद्ध. ॥१७॥ जन्मे अंधा पांगला, पुनर्जन्मनां पाप; रोगी शोकी को हुवे, पामे बहु संताप. ॥ १८॥ जाति स्मरणे सिद्ध छ, पुनर्जन्मनी वात; पुनर्जन्म अविरामथी, आतम होय अनाद. ॥१९॥ 'पहेरे त्यागे वस्त्र पण, नहि मानव बदलाय; देह प्रहेने छोडतो, आतम एहिज न्याय. ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६६ योगि योग समाधिथी, पुनर्जन्मनी बात; सिद्ध ग्रहे छे ज्ञानमां, अनुभवधी साक्षात्. पुनर्जन्म संस्कारथी, क्रोध अदिमां सिद्धः नास्तिकवादि तर्कने, देशबटो एम दीघ. पंच भूतथी भिन्न ए, चेतन नहि परखाय; पंच भूत संयोगथी, चेतन शक्ति याय. चेतन शक्तिज्ञातृता, पंच भूत संयोग; पंच भूत संयोग वण, घटे न चेतन योग. पंचभूत संयोगथी, आतम संज्ञा थाय; पंच भूतना योगयी, चेतन शक्ति विलाय. ओछ अधिकां पंच भूत, मलतां घटना थाय; 'अंधा बहिरा बोबडा, पंचभूत महिमाय फेरफार वायु थकी, साजा गांडा थाय; इंद्रिय पंचनी शक्तियो, शक्ति भूत कहाय. मृतक शरीरे पंच भूत, संयोगे पण होय; रही नहीं त्यां ज्ञातृता, जडता धर्मे जोय. जडता धर्मे पंच भूत, काल अनादि जोय; चित् शक्ति चेतन विषे, भिन्नपणे अवलोय. पंचभूतयी भिन्न छे, जाणो आतम द्रव्य; कोटि कुतर्कोएकरी, वले नही कंइ अव्य. उपज्यो नहीं ए हेतुयी, अज आतम कहेवाय; रूप नहि ए हेतुथी, अरूप एह ग्रहाय. पुद्गल स्कंधो कर्म रूप, ग्रहि करे अवतार; निश्वयथी अरूप पण, रूपीनय व्यवहार. अंधा बहेरा बोबडा, कर्म थकी उपजाय; ' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ ६१ ॥ ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ॥ ६५ ॥ ॥ ६६ ॥ ॥ ५७ ॥ ॥ ६८ ॥ ॥ ६९ ॥ 11:00 11 ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७ ॥ ॥ ७६ ॥ ॥ ७७॥ ॥ ७८॥ पश अपकीर्तिमान पान, चेतन ए सहु पाय. -फेरफार वायुथकी, साजा गांडा याय; पोले एवं पावरा, जूटु ए कहेवाय. प्राथिलता कर्मोदये, निमित्त योगे थाय; आतम भूले भान निज, गांडो जग गवराय. कर्ता भोक्ता कर्मनो, चतुर चेतन जाण; पुनर्जन्मनी साविती, पूर्वे करी प्रमाण. पुनर्जन्मनी सिद्धता, भाखी आतम ग्रंथ; समजु समजी सत्यने, चाले मुक्ति पंथ. श्रद्धा पक्की जो हुवे, तो सघळू समजाय; अभवी दुरभवी जीवने, श्रद्धा कदी न थाय. सघलु अवलुं परिणमे, मीटु लागे झेर; अभवी दुरभवी जीवने, अंतरमां अंधेर. कोण हुने मायलं, तेनुं नहि मन भान; बाहिर दृष्टि वासना, बहिरातमनुं ठाण. ईश्वर कर्ता मानता, बहिरातमनी ल्हेर; आतमते परमातमा, मान्या वण अंधेर. रागद्वेष जेने नहीं, निराकार भगवान् ; समवायि कारण विना, निमित्तनुं शुं ठाण. काल अनादि दुनीयां, स्वयंसिद्ध ते जाण; कर्ता नहि तेनो प्रभु, एवं मनमा आण. काल अनादि परिणमी, अशुद्ध परिणति योग, देहादिकनो आतमा, कापणे प्रयोग. आतम तेहिज ईश छ, सत्ताए कहेवाय; शुद्धाशुद्ध सुवर्णवत्, घर सयुक्ति न्याय. ॥ ७९ ॥ ।। ८०॥ ॥ ८१॥ ॥८२॥ ॥ ८३॥ ।। ८४॥ ।। ८५.॥ For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६८ पर परिणति योगथी, परनो कर्ता प शुद्ध परिणतिए करी, निजगुण कर्ता तेह. कर्म रहित ते ईश छे, परनो कर्ता केम; पर कर्ता बहिरातमा, सवळो अर्थज एम. मिथ्यापरिणतिए करी, कारक पद बदलाय; शुद्ध परिणतिए करी, शुद्धपणे पणमाय. सर्वत्र व्यापक प्रभु, कोइक माने जीव; एक एवहि आतमा, माने जीवने शिव. प्रतिबिंब परमात्मनां जीव अनेको जोग; जीवपणुं टळतां थकi, परमातम पद होय. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " आतम तत्त्व न एहवुं व्यापक सर्व मझार; आतम तत्व जो एकतो, सुख दुःख घटे न सार. एक बंधाये अन्य बंध, एक छुटाये अन्य; संग्रह नय सत्ता ग्रहे, व्यापक छे चैतन्य. शति शरीरे भिन्न भिन्न, आतम तत्त्व कहाय; व्यक्तिथी सहु भिन्न छे, ऐक्यपणं गुण लाय. आतम ते परमातमा, अनंत आतम जाण; कर्म क्षयेथी सिद्ध बुद्ध, चिदानंद भगवान्. स्वामी सेवक भावने, शिवमां माने कोय; कर्म क्षयेथी सारीखा, भिन्नपणुं नहि जोय. जीव ईश्वर माया त्रिक, जगमोहि वर्ताय; जीव ईश्वर पद नहीं, वरे, ईश्वर जीव न थाय. माया आधीन जीव छे, माया उपरी ईश; एवं जाणी सेवको भक्ति करो जगदीश. सम्यक ज्ञान विना सुधा, भाखे मतिया कोय; For Private And Personal Use Only ।। ८६ ।। ।। ८७ ।। 1166 || 1129 11 1180 11 ॥ ९१ ॥ ॥ ९२ ॥ ॥ ९३ ॥ 1198 11 ॥ ९५ ॥ ॥ ९६ ॥ ॥ ९७ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक दृष्टि जेहनी, तेने सवळु होय. ॥ ९८॥ जीव ईश्वरमा भेद तो, मायाथी परखाय; बेमा छे ज्ञानादि गुण, भिन्नपणुं शु थाय. ॥ ९९ ॥ भिन्नपणुं माया थकी, जीव ईश्वरमा भेद; पर परिणतिए करी, शुं त्यां करीए खेद. ॥ १० ॥ माया जड स्वरूप छे, चेतन नहीं कहेवाय; जीष ईश्वरमा चेतना, द्वि तत्त्वे चित्तलाय.. ॥१०१॥ अनित्य आतम मानतां, घटे न युक्त विचार; जन्मांतरमा यादी तो, नित्य थकी सोहाय. ॥१०२ ॥ क्षणिक आतम मानतां, को कोथी बंधाय; कोइ करे को भोगवे, ए मोटो अन्याय. ॥ १०३ ॥ क्षणे क्षणे विचार श्रेणि, उपजे विणशेभाइ; आतम नित्य स्विकारतां, क्युं कर होय सगाइ. || १०४ ॥ भूत भाविने संमति, त्रिकाले एक रूप; स्वरूप फरे नहीं जेहनु, मान नित्य कर चूप. ॥१०५ ।। नित्य आतमा होय तो, शो विचारे फेर; जो विचारे फेर तो, नित्य आहे अंधेर. अनित्य माटे आतमा, क्षणे क्षणे बदलाय; करे विचारो आत्म फेर, क्षणिक वादनो न्याय. ॥ १०७ ॥ सद्गुरु कृपा कटाक्षथी, कहेता आतम तत्व; सत्य युक्तिथी धारीये, तो प्रगटे भव्यत्व. ॥१०८॥ अनित्य आतम मानवो, अहि एकांते पक्ष; अनेकांत मतज्ञानथी, सवढं माने दक्ष. ॥ १०९ ॥ द्रव्याथिक नय पक्षथी, आतम नित्य कहाय; पर्यायार्थिकनय थकी. आनित्य आतम थाय, ॥११० ।। For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥११॥ ॥ ११२ ॥ ॥११३ ॥ ॥११४ ।। ॥११५ ॥ घोटी वेढने टुंपीयो, सोनाला पर्याय भिन्नपणे फरता अपि, सोनापणुं सामांय. अनेक वासण माटीनां, माटी नहीं बदलाय, फरे ज्ञान त्युं आत्मनु, आतम नहीं बदलाय. आत्म ज्ञानना फेरथी, आतम विणशी जाप मृद्रव्य पर्याय नाश, क्षय मृत्तिका पाय. ..तका तो नहिं फरे, क्षणिक आतम केम: पर्याये अनित्य नित्य, द्रव्यपके छे तेम. आतम नित्यानित्य छे, वदो विचारी एम; स्याद्वाद मत ज्ञानथी, चिदानंद लहो क्षेम. आतम ते शी वस्तु छे, तेनुं नहिं मन भान धर्म धर्म करता फरे, बहिरातम गुलतान. धर्म न जाति कूलमां, धर्म न बाखाचार; आतम तत्त्व ग्रह्या विना, बहिरातम, निरधार.. पुण्योदयथी सद्गुरु, संगत सहेजे थाय; भेद ज्ञाननी योजना, पामी तत्व ग्रहाय. तिमिरारिना तेजथी, अंधकार विघटाय; अंतरतम भानु थकी, कदी न दूरे थाय. सद्गुरु संगत पामतां, अंतरतमनो नाश; कल्पवृक्ष श्री सद्गुरु, तेना थइए दास. उपकारी निज आत्मना, सद्गुरु साचा देव सेवो त्रिकरण योगथी, टळे अनादि कुठेव. मिथ्या तर्को शुं करो, टालो मिथ्यावाद; गुर्वाधीन मनडु करो, पामो शुध्धुं हार्द. मायामां मलकाइने, धसे शु. मनमा मान, ॥१७॥ ॥११८॥ ॥ १.१९ ॥ ॥ १२०॥ ॥ १२२॥ For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१२३ ।। ॥ १२४ ॥ ॥१२५ ॥ ॥ १२६ ॥ ॥१२७ ॥ ॥ १२८॥ १७१ गुर्वाधीन मनडे करो, पामो निज घर भान. श्रद्धा भक्ति गुरु तणी, जेवी मनमां होय; तदनुसारे तत्त्वने, पामे. भविका कोय. प्रिया प्राणने पुत्रथी, अधिको गुरुनो राग; गुरु वचने गुणधर्म ने, पामे भवि सौभाग्य. असंख्यआत्मप्रदेशमय, आतम तत्त्व विचार; आतम ते परमातमा, सिद्ध बुद्ध निरधार. पगथी शिर पर्यंत जे, पुद्गलरूपि देह; वश्यो म्यानमां खड्गज्यु, निराकार गुण गेह. नहि इन्द्रियो आतमा, मन वाणीथी भिन्न; अंतर आतम ओळखो, तेनुं ए आकीन. लेश्या योग न आतमा, नहि वर्गणा आठ; अंतर आतम ओळखो, तेनो एछे पाठ. कर्ता छे निज रूपनो, अचळ अकळ भगवान्। शक्ति अनंति शाश्वती, देता निजगुण दान. अमल अटल आधारवंत, वेत्ता पण नहीं वेद; सूक्ष्मथी पण सूक्ष्मए, ज़रा नहि प्रस्वेद. काल अनादि योगथी, मिथ्या परिणति पीन; कर्मरूप पुद्गल ग्रही, जिन पण थइयो दीन. जड पुदगल संगे रही, भूल्यो निजगुण भान; गुरु वचनामृत त्यागिने, कीधुं विषतुं पानः सत्ता बे मारी खरी, करी न तेनी याद; तिरोभाव निज ऋद्धिमुं, हेतु छे परमाद. पर पोतानुं मानीने, रझल्यो हुँ परदेश मोहमायामां मस्त थई, विविध पाम्यो क्लेश. ॥ १२९ ॥ ॥ १३०॥ ॥१३१ ॥ ॥ १३२ ।। ॥१३५॥ For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रागे वाह्यो रातदीन, ज्यां त्यां हुं भरमाउं; रागद्वेषना योगथी, कर्म ग्रही दुखपाउं. ॥ १३६ ॥ सिद्ध बुद्ध परमातमा, जेवा सिद्ध मझार; तेवो हुँ छ आतमा, फेर फार नहीं धार. जेवी स्वप्न दशाविषे, मन चंचलता थाय; स्वप्न सृष्टि भासे बहु, जागंतां दूर जाय. .२८॥ तेवी छे बहिरातमा, दशा विचित्रा वेद; अंतर आतम थावतां, तेनो नहीं मन खेद.. ॥१३९ ॥ अंतर आतम प्राणिया, सूवेछे परभाव; जागेछे निजरूपमा, चेतन एह स्वभाव. ॥१४० ॥ चतुर्थ गुणस्थानक लहे, अंतर आतम योग; द्वादश गुण स्थानक लगे, अंतर आत्म प्रयोग. ॥१४१ ॥ अंतरआतम योगथी, समकिती कहेवाय, अंतरवृत्ति तेहनी, भिन्नपणे परखाय.. ॥१४२ ॥ विषयारस विष सम हुवे, पर पुद्गल नही रंग; उदासीनता चित्तमां, झीले समता गंग... ॥१४३ ॥ कनक उपल सरखा हृदि, निंदक बंदक एक; अंतर आतम पाणिनी, वर्ते एहवी टेक. ॥१४॥ ज्ञान चरण आराधना, स्थिर भावे उपयोग औदयिक भावे भोग पण, जलपंकजने योग. ॥१४५ ॥ आतम तत्त्व विचारणा, धर्म ध्यानमा चित्त आर्त रौद्रने त्यागता, अंतर आतम मित्त. ॥ १४६ ॥ आत्मोत्कर्षे चित्त नही, परापकर्षे ध्यान, नहीं वृत्ति जेनी सदा, अंतर आतम जाण. विष्टायह सम लागतो, सघलो आ संसार; For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतर आतम माणिया, सफलो तस अवतार.. ॥१४८ ॥ भोग रोगसमभावतो, नहीं संसारे चेन; स्वारथियो संसार छे, मात पिताने बहेन ॥१४९ ॥ शरीर काराग्रह वश्यो, आयुष्य बेडी बंध; शुं संसारे राचवू, पुद्गलना ए स्कंध. ॥ १५॥ आतम ध्याने रक्तता, रत्नत्रयितुं ध्यान; एकोहं गुण पूर्णता, साधु वर्ते ज्ञान. रस्नत्रयीनो स्वामी हुं, सुख शाश्वत चिद्रूप; नहीं अन्यनो हुँ कदी. परमानंद स्वरूप... ॥१५२ ॥ शाताशाता वेदनी, कर्मे सुख दुःख थायः चतुर्गति भवकूपमा, केवल दुःख ग्रहाय. क्रोध करु कोना प्रति, क्रोधी नहीं देखाय; राग करुं कोना प्रति, रागी नहीं दर्शाय. ॥ १५४॥ होवे मनमा द्वेषतो, द्वेषी पोते थाय; . द्वेषातीत मन मायाँ, वर्ते तत्व जणाय. ॥१५५ ॥ स्थिर भासे मन माह्यरुं, तो सहु लागे स्थिर; मूर्णतीत मनयोगथी, चेतन स्वयं फकीर. ॥१५६ ॥ चित्ते भव भ्रमणा वधे, चित्ते भवनो नाश; चित्ते चंचलता वधे, चित्ते मुखनी आश. ॥ १५७॥ मन मर्कट मदिरा पीवे, कुदे गमो ठाम; विषयातीत मन मांकडं, स्थिर वर्ते सुख धाम. ॥ १५८ ॥ कष्ट क्रिया करतो फरे, वशवते नहीं चित्त; निष्फळ करणी जाणवी, ज्युंझांखरनुं चित्र... ॥१५९ ॥ सरजल हाले हाल तुं, चंद्रतणुं प्रतिबिंब सरजत स्थिरे स्थीरते, मनवशति क्लीव, For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १६४ ।। ॥१६५ ।। ॥१६६॥ १७४ पुरुषार्थ प्रेमे ग्रही, करशे मन आधीन आतम अर्थी तेजनो, कोइ न वाते दीन. आडं अवटु दोडतुं, मनडु मोडं झेर; यावत् मन नवी झीतीयुं, तावत् छे अंधेर. मन चंचलता शुं करे, मन चंचलता वार; मुक्ति सन्मुख मन करो, पामो भवजल पार. विषय भीख भोगी यदा, मनटुं हारु होय; तावत् भ्रमणा भवतणी, करो न संशय कोय. मन मारो निजध्यानथी, वारो विषय विचार; फरी फरी मळशे नहीं, मानवनो अवतार. द्वेषी तज तुं द्वेषने, द्वेषी शाने थाय; द्वेषीजन संसारमा, चतुर्गति भटकाय. द्वेष न तारो धर्म छे, परपरिणतिथी द्वेष, नाहक द्वेषकरी भवी, पामो भवमा क्लेश. शुद्ध स्वरूपी तुं सदा, निर्मल सिद्ध समान; पर पोतानुं मानीने, शं तुं भूले भान. परपरिणतिथी तुं सदा, न्यारो चेतनराय; आपोआप विचारता, अनुभव पोते पाय. इसतो रोतो तुं नही, तुं छे गमनातीत; देह भाटकनी कोटडी, त्यां शुं ममता चित्त. अनंत देहो मूकीयां, तेवी छे आ देह; न्यारो तेथी आतमा, चिदानंद गुण गेह. उपजे विणशे तुं नही, तुं अविनासी जाण; अजरामर आतम प्रभु, मुखनु तु छे ठाण. अनंत शक्तिमय सदा, अनंत ऋद्धि मूळ; ॥ १६७॥ ॥१६८ ॥ ॥ १६९ ।। ॥१७॥ ॥ १७१ ॥ ॥१७२।। For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निश्चल ध्याने ध्यावतां, मिटे अनादि धूप. ॥१७३ ।। दुर्भागी दुःखी नही, अंतरदृष्टि धार; अमूल्य आयु पामिने, कर निजगुण शुं प्यार. . ॥ १७४ ॥ सोनुं रुपुं तुं नहीं, पुद्गल स्कंध विचार; तेमां तुं ललचाइने, भूले मूढ गमार. ॥ १७५ ॥ स्त्री पुत्रादिक तुं नही, ताराथी ए भिन्न सौथी न्यारो तुं सदा, क्युं माने हुं दीन. ॥ १७६ ॥ खसचळथी खणवू मुधा, सुख ते दुःख स्वरूप; विषय वासना सुख ते, केवल भवनो कूपं. ॥१७७ ।। पर सन्मुख जे चेतना, तेहिज भवतुं मूल; स्व सन्मुख जे चेतना, आत्मदशा अनुकूल. ॥ १७८ ॥ परभावे रंजेयदा, तदा आहे तुं कर्म; आत्म स्वरूपे रमणता, करता पामे शर्म. ॥ १७९ ॥ अंतरदृष्टि धर्म छे, बाहिरदृष्टि कर्म; समजे समजु चित्तमां, पामी तेनो मर्म. ॥ १८ ॥ अंतरदृष्टि जीवने, उपजे मन आनंद, केवल दुःख निधानरूप, लागे दुनीयां फंद. ॥ १८१ ॥ राजा रंकने बादशाह, ए सहु दुनीयां खेल; हारुं नहीं एमां जरा, ममता पुद्गल मेल. ॥ १८२॥ सौथी मोटो श्रेष्ठ तुं; दुनीयां छे तुज दास; आशादासी वश करी, करतुं ध्याने वासः ॥ १८ ॥ धर्माधर्माकाशने, पुद्गल काल विचार; न्यारो तेथी तुं सदा, काल अनादिधार. ॥ १८४ ॥ कालअनादि पुद्गले, पर परिणामी होइ, मिथ्याअज्ञाने करी, शक्तिज तारी खोइ. ॥१८५॥ For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ ॥ १८६॥ ॥१८७॥ ॥१८८ ॥ ॥ १८९॥ ॥१९॥ ॥ १९१ ।। पुरळ मित्र न ताहरो, तस संगे नहीं सुख, मुख छे एकाकीपणे, पर परिणामे दुःख. महो ज्ञानी पण आतमा, पुद्गलथी बंधाय; पुदल जड शुं जाणतुं, चेतन दुःख उपाय. शाताशाता पुद्गलो, क्षीर नीरज्युं होय । परग्राहक 2 आतमा, सुख दुःख पामे सोय. बाहिरदृष्टि चेतना, परिणमतां छे बंध; बाहिर दृष्टि थावतां, चेतन पोते अंध. अंतरदृष्टि चेतना, करती आतम भान; बंधाये नहीं आतमा, निज भावे गुलतान. आत्मासंख्य प्रदेशथी, करतो स्वयं प्रकाश; द्विउपयोगे चेतना, शाश्वत सिद्ध विलास. स्विरदृष्टिथी धारीये, आतम शुद्ध स्वरूप; भासे आतम ज्ञानमां, लोकालोक स्वरूप. केवल शुद्ध स्वरूपमा, अखंड आनंद होय; बाकी दुनीयादारीमा, दुःखनादरिया जोय. फेकी रत्नचिंतामणि, कोइच्छे मनकाच; क्षणिक मानव मुख हेत, परिहरे केम साच. शाश्वत सत्य ते आतमा, शाश्वत सुखनुं स्थान बाकी सुख न कोइमां, शुं भूले छे भान. गांडा अज्ञानीजना, अंतरमा अंधेर; बाहिर सुखनी लालचे, भमता ठेरंठेर. स्वम सुखलडी भक्षता, भूख न भागे भाई पर पुद्गलथी सुख ते, केवल दुःख सगाइः तुं पोताने पारखे, तुं छे अपरंपार; ॥ १९२ ॥ ॥१९३ ।। ॥ १९४ ।। ॥ १९६ ॥ ॥ १९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७७ निर्मळ केवल ज्ञानमय, निजगुण कर्त्ता धार. निर्मल ज्योति ताहरी, अलख अगोचररूप; निश्चयनयथी ताहरी, सत्ता शुद्ध अनुप. अन्तर देखे योगि जन, बाहिर देखे मूढ; स्वपर प्रकाशी आतमा, अंतरनुंए गूढ. कथनी तारी शुं कथं, तुं कथनीथी दूर; अनेकान्त सत्तामयी, चिदानंद भरपूर. अस्तिनास्ति स्वरूपनुं, तुं छे शाश्वत स्थान; तारा वण बीजो कयो, प्रभु विभु भगवान्. शाश्वत लोकालोकनो, दृष्टा पोते देख; लिंग योनि जाति नहीं, नही नामने भेख. उत्पत्तिव्यय स्थिति रूप, गुण पर्यायाधार; अनुभव अमृत तुं सदा, नही तुं बाह्याचार. मन चंचलता त्यागीने, करजो घटमां खोज; चिदानंद चारित्रनी, मगढे अंतर मोज. अमल अटल अवगाहना, असंख्यप्रदेशे जोय; दृश्यपणे तुज रूपथी, कदी न जुदो होय. परमातम ते हुं सदा, सिद्ध बुद्धनो भाइ; सोहं सोहं अनुभवे, साची होय सगाइ. क्षायिक भावे ऋद्धिनो, भोगी तुं हि सदाय; ध्यावे शुद्ध स्वरूपने, तो सहु ए प्रगटाय. बात करे वळशे नहीं, करतुं निज उपयोग; निज उपयोगी आतमा, अनंत सुखनो भोग. कर्माष्टकनी वर्गणा, ते तो पुद्गलरूप पुदगलधी तं भिन्न छे, मोक्षमयीचिद्रप. For Private And Personal Use Only ॥ १९८ ॥ ॥ १९९ ॥ ॥ २०० ॥ ॥। २०१ ।। ॥ २०२ ॥ ॥ २०३ ॥ || 208 || 11209 11 ।। २०६ ।। 11 200 11 11202-11 ॥ २०९ ॥ ॥ २१० ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २११ ॥ ॥२१२ ॥ ॥२१३ ॥ ॥ २१४ ॥ ॥२१५ ॥ १७८ पुद्गल ऐंठने मेलवी, करतो तेथी खेल; भिन्न द्रव्यथी खेल श्यो, जाणी तेहने मेल. समजे तो निर्भय सदा, सौथी सत्तावान् ; दृढ निश्चयथी धारतां, वर्ते त्रिभुवन आण. दीपक हस्त ग्रही मुधा, खोले निजने कोय; अंतर ज्ञान प्रकाशतां, परमां शुं निज होय. हरिशिशु अजवृन्दमां, बालपणे करी वास; अजबुद्धि निजमां धरी, वर्ते संगे खास; केशरीसिंह निहाळतां, होवे निजरूप याद, परमातम पद ध्यावतां, तत्पद अंतर हार्द. उपयोगी उपकारवंत, दृढ साहसने धैर्य गुरुश्रद्धाभक्ति घणी, विनय विवेकी शौर्य. चले नही निज टेकथी; भय लज्जानो त्याग; शिष्यो एवा धारशे, आतमपदथी राग. दोरंगी दुनिया वदे, ते उपर नहीं ध्यान कान सान सारे सदा, भूले नहीं निज भान. जिज्ञासु निज तत्वना, शिष्यो धरशे प्रेम अंतर तत्वे चित्तने, वाळी लेशे क्षेम. अंतरतत्त्वे चित्त त्यां, शुद्धदशा प्रगटाय; शुद्धरुचि त्यां कोइनी, भीरु भवभटकाय. भीरु कायरता करे, त्यागे अंतर टेक मकरग्रहणत्ति करे, निज पदना जे छेक. सद्गुरु आज्ञा धारता, वैयाकृत्ये व्हाल; क्षुद्रवृत्ति जेनी नही, धारे अन्तर ख्याल.. वचन टेक छोड़े नही, गुरु भक्तो सुदयाल; ॥२१६ ॥ ॥ २१७॥ ॥२१८॥ ॥ २१९ ॥ ॥ २२०॥ ॥ २२१ ॥ ॥ २२२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७९ शिष्यो आ संसारमा, एवा धरशे ख्याल. ॥२२३ ॥ अंतर तत्वे योग्यता, धारे सज्जन शिष्य; अंतर आतम ओळखी, थावे प्रभु जगदीश. ॥२२४॥ जगमाय ते आतमा, तीर्थ वडं संसार; सत्य तीर्थ समज्या विना, शोध्यो नहिं कंइ सार. ॥ २२५ ॥ जेयी सहु शोधाय छे, ते तुं आतमराय; अनंत ऋद्धि स्वामी तुं, निजपदने निज गाय. ॥ २२६ ॥ उलटी नदीने उतरी, जावू पेले पार; परमातम पद तेहवू, प्राप्ति दुष्कर धार. ॥ २२७ ॥ टींगेडो उद्यम करे, करु हुँ जलधि शोष; तेवू साहस आत्ममां, करतां छे. संतोष. ॥ २२८ ॥ धर्मध्यान अवलंबता, वर्ते शुद्ध स्वभाव; शुक्लध्यानना अंशने, पामे निजगुण दाव. ॥२२९ ॥ शुक्लध्यानने ध्यावतो, करतो कर्म मणाश; केवलज्ञानोधोतथी, लोकालोक प्रकाश. ॥ २३०॥ घनघाति चड कर्मनी, स्थिति अलगी कीध; दग्ध रज्जुवत् वेदनी, आदि चउ प्रसिद्ध. ॥ २३१॥ आयुः कर्मोदय थकी, विचरे महीतल पीठ; सर्वकर्मना अंतथी, पामे शिवपुर इष्ट. ॥ २३२॥ जन्म मरण तो ज्यां नही, ज्यां नहि शोक वियोगः क्षुधा पिपासा ज्यां नहीं, चिंता नहि ज्यां रोग. ॥ २३३ ॥ शरीर पंचातीत ज्यां, गमनागमनातीत; रूपारूप स्वरूपवंत, नहि ज्यां तृष्णा चित्त. ॥२३४ ॥ भष्टवर्गणा ज्यां नही, लिंग न जाति वेद, पंच इंद्रीने प्राण दश, नहि ज्यां छेदने खेद. ॥२३५ ।। For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० शाताशाता वेदनी, तेपण नाठी दूर; सहेजानंद स्वरूपमां, सुखवर्ते भरपूर. ॥ २३६॥ पुरुषोत्तम परमातमा, परमेश्वर मुखकंद दुःखातीत स्वरूपमय, नही शब्दादिक फंद. ॥२३७॥ राग द्वेष जेमां नहीं, निर्मळ आतमज्योत; स्वसत्ताए शुद्ध थै, कर्यो महा उद्योत., ॥ २३८॥ त्रण्य भुवनमा दिनमाण, स्त्रपर प्रकाशी जेह वाणी अगोचर धर्ममय, क्षायिक गुणनुं गेह. ॥२३९ ॥ शुद्ध स्वरूपी चेतना, वर्ते त्यां बे भेदः अस्ति धर्म अनंत त्यां, नास्ति धर्म पण वेद, ॥२४० ॥ अविचल आत्म स्वरूपमय, नित्यानित्य स्वभावः । भव्याभव्यस्वभावमय, शुद्ध अनंत प्रभाव. ॥२४१ ।। 'अखंड अव्यय अज सदा, निराकार निःसंग; गुण पर्यायने ध्रौव्यता, अगुरुलघु गुण चंग. ॥२४२ ॥ अक्षर अविचल धर्ममय, वाणी लहे न पार; जाणे पण नहि कही शके, केवलज्ञानी धार. ॥२४३ ॥ निवृत्तिपद एकयुं, ज्यां नहि दुःख लगार; शिव सनातन पदवरी, लहिये सुख अपार. ॥२४४॥ तिरोभाव गुण संपदा, आविर्भावे तेह; परमातम पद जाणीये, तत्त्वमसि गुणगेह. ॥ २४५ ॥ भेदभाव हुं तुं नही, निर्मल आतम द्रव्य; अनेकगुणथी व्यक्ति एक, असंख्यप्रदेशी भव्य. ॥२४६ ॥ जीव अनंता मुक्तिमा, सरखा गुणधी होय; व्यक्ति स्वरूपे भिन्न सहु, नडे न कोने कोय.. ॥ २४७ ॥ सादि अनंति स्थिति त्यां, निर्मळ मुक्ति स्थान; पह. For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨ स्वामी सेवक भाव नहीं, सरखा सत्तावान्. स्वरूप शुद्ध अगाध छे, अनुभव तेनो लेश; पामी पद ए वर्णव्युं, जेनो रुडो देश. गुणस्थानक लही तेरमुं, परमातम प्रकाश; अनन्त गुणमय केवळी, अक्षयने अविनाश. नगर माणसा शोभतुं, ऋषभदेव जिनराय; पार्श्वमधुनी साहाथी, पूरण ग्रंथ कराय. भूल चूक मति दोषथी, जिन आणाथी विरुद्ध; भासे तेह सुधारने, करशो सज्जन शुद्ध. संवत ओगणीशे उपरे, रुडी एकशठशाल; माघ शुदी दसमीदिने, पूर्ण ग्रंथ सुविशाल. तत्वस्वरुरू न अन्यथा, सिद्ध सनातनरूप; बुद्धिसागर पामतां, मंगलमय चिद्रूप. धरणेंद्र पद्मावती, पार्श्वयक्ष गुणशोल; श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ, करशो मंगळमाळ. इति श्री आत्म स्वरुप ग्रंथ समाप्तः For Private And Personal Use Only ।। २४८ ।। ॥ २४९ ॥ ।। २५० ।। ॥ २५१ ॥ ।। २५२ ।। ॥ २५३ ॥ ।। २५४ ॥ ।। २५५ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૮૨ ॥ अथ चेतन शक्ति ग्रन्थ ॥ छप्पय छंद. प्रणमुं श्री अरिहंत जिनेश्वर मंगलकारी, महिमा अपरंपार जगतमां जे उपकारी; ब्रह्मा विष्णु शिवशंकर महादेव विभु छो. शब्दातीत पण शब्द वाच्य जगमांहि प्रभुछो, परामां प्रतिभासता झट वैखरीथी वर्ण; भिन्नाभिन्न स्वपरूनुं हुं ज्ञान पामुं अभिनवं. अनेक भाषा शब्द नामथी तुं कहेवातो, पण नहि शब्द स्वरूप शब्दधी भिन्न पमातो; भाषा पुद्गल स्कंध तेहथी अरूप भासे. अचिन्त्य चेतन शक्ति चेतना सर्व प्रकाशे, शब्द संज्ञा ज्ञान हेतु छे श्रुत संज्ञा देवता; नमो बंभीलीवी भगवती योगीयो बहु सेवता. x Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हंस गामिनी सरस्वती घट घटमां व्यापी, परापश्यंती ध्याने मनमां मुनिए थापी; अन्तरमा उद्योत सदा तेनाथी थावे, शब्द सृष्टितुं बीज योगीना मनमां भावे; आद्य शक्ति ब्रह्मनी छे जगत्मां जयजय करी, बुद्धिसागर बीज मंत्रे सरस्वती घटमां वरी. चेतननी शक्ति छे सरस्वति श्रुत वाणी, क्षयोपशमना भावे ज्ञाननी शक्ति जाणी; त्रण भुवन प्रख्यात सदा सुखसागर देती, 1 For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥३॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४॥ ॥५॥ ज्ञाता ज्ञेय विचार सारमा लदबद रहेती. श्रुत वाणीने सेवीए दिल अनुभव सुखडा आपती, बुद्धिसागर सरस्वती झट भ्रांति दुःखडा कापती.. आत्म शक्तिनी सेवा सुखडा सहु करनारी, आत्म शक्तिनी सेवा दुःखडां सहु हरनारी आत्म शक्तिनो व्यक्तिभाव योगाष्टक साधे, आत्मशक्तिनो व्यक्तिभाव छे गुरु आराधे. आत्मशक्तिनी आगले सहु देवता पाणी भरे, बुद्धिसागर आत्म व्यक्ति पामतां संपद् वरे. लाख चोराशी जीवयोनिमा कोइक उंचा, लाख चोराशी जीवयोनिमां कोइक नीचा; लाख चोराशी जीव योनिमां काल अनादि, भटक्यो जीव अज्ञाने पामी आधि व्याधि. पुण्य पापथी उच्च नीचज प्राणी गतिने पामतो, शुभाशुभ परिणामथी एम कर्म लेतो वामतो. अशुभ परिणामे अवतारो अशुभ थावे, रौरव दुःखो दुर्गति प्राणी बहु पावे; अशुभ विचारे दुष्कर्मोने प्राणी ग्रहतो, शुभ कर्मोने शुभ विचारे प्राणी वहतो. शुभ चेष्टाथी जाणशो जन पुण्यराशि उपजे, चित्तना व्यापार जेवुज कार्य तो झट नीपजे. दिल विचारोमा बहु शक्ति जाणी लेजो, मननी शक्ति वापरवामां मनडुं देजो; विचार सारा खोटा करवा चेतन हाथे, विचार जेवा तेवु फल भाख्यं जिननाथे. ॥६॥ ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजथी जेम वृक्ष.तेमज विचारथी तो देह छे. शुभाशुभ वपुना प्रति तेम शुभाशुभ मन एह छे. ॥८॥ बीजोमां जेवीज शक्ति तेवीज विचारे, शुभाशुभ जे मन परिणामो कर्म वधारे; शक्तिथी लोहचुंबक शुचि आकर्षे जेमज, शुभाशुभ परिणार्मो कर्माकर्षे तेमज. शुभाशुभ विचारमांज चैतन्य शक्ति पर भळी, परस्वभावे परग्रहीने छडती परने वळी. ॥९॥ मन परिणामे बंध कह्यो छे सूत्रे देखो, मनथी सृष्ठि मनथी मुक्ति पंडित पेखो जेवी मननी वृत्ति तेवा फलने चाखो, सारां खोटा बीजो मन फावे ते राखो. बीज वावो आम्रनुं खरे आम्र फल शुभ लागशे बीज वावो बबुलनुं तो शूळ जथ्थो वागशे. ॥१०॥ मनने केळववाथी केळवणी छे उंची, मन केळवणी वण केळवणी समजो नीची; अशुभ विचारो हरवामां केळवणी सारी, धार्मिक उच्चाशयमा केळवणी बलिहारी. आत्म शक्ति प्राप्त करवी केळवणी जगमा खरी; बुद्धिसागर आत्म शक्तिज प्रगटती जग जयकरी. ॥ ११ ॥ आत्म शक्तिनी खीलवणी संयम अभ्यासे, शुद्ध विचारो करवाथी बहु शक्ति प्रकाशे माण विनिमय शक्ति मनना संयम योगे, हिपनोटीझमपण शक्ति संयमना भोगे. डाकिणीने शाकिणी भूत सर्व विषने टाळती: For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८५ आत्म शक्ति सत्य मोटी रोग दोषो खाळती. मंत्रोपासनमां पण श्रद्धानी छे शक्ति, मंत्रोपासनथी प्रगेटे छे देवनी व्यक्ति; श्रद्धा पण मननी शक्ति छे संयम भारी, हेतु पूर्वक ज्ञान थयाथी श्रद्धा सारी. आत्म शक्ति सत्य पंथेज वापरे वृद्धि खरी, बुद्धिसागर ज्ञान योगे आत्म शक्तिज जयकरीरी आत्म शक्तिने दैविक शक्ति जगजन कहेवे, - आत्म शक्तिने आद्य शक्ति नामे कोइ सेवे; पिंड पिंडमां आत्म शक्तिनी ज्योतिज जागी, आत्म शक्ति उपासक योगी तेनोज रागी. आत्म शक्ति योगथी देव अनेक रूपोने करे, आत्म शक्ति योगथी देव गगनमां शट संचरे. आत्म शक्तिना प्रादुर्भावे ईश्वर पोते, चेतन ते परमेश्वर बीजे शीदने गोते; आत्म प्रभुनी सेवार्थी छे मीठा मेवा, आत्म शक्तिने खीलववाथी चेतन देवा. कर्म पडदो चीरीने झट ब्रह्मतेजे झगमगे, बुद्धिसागर आत्म सूर्य पिंडमां तो तगतगे. पोते ईश्वर भ्रांति भागे घट परखातो, पोताने पोते गातो ने पोते ध्यातो; पोताने पोते कहेतोने पोते रमतो, पोताने तो पूज्य गणीने पोते नमतो, ईश्वर पोते देहमां छे चैतन्य शक्ति व्यक्तिथी, बुद्धिसागर वीर्य शक्ति आतमा निज भक्तिथी. For Private And Personal Use Only ।। १२ । ॥ १३ ॥ 11 28 01 ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेतनने ईश्वर जाणे ते सहेजे तरतो, चेतनने ईश्वर जाणेते सुखडां वरतो; चेतनने ईश्वर जाणेते स्थिरता लावे, चेतनने परमेश्वर जाणे ते सुख पावे. आत्म शक्ति खीलवामां ध्यान कुंची उच्च छ । आत्म शक्ति प्रगटताथी जगत् जन नहि नीच छे. ॥ १७ ॥ लक्ष चोराशी जीव योनिमा शक्ति सरखी, सिद्ध समी शक्ति छे सहुनी ज्ञाने परखी; आत्म शक्तिने खीलववाथी व्यक्ति प्रगटे, आत्म शक्तिने खीलवतां बाधकता विघटे. उपशम क्षयोपशम अने घट क्षायिक भावे जाणीये; बुद्धिसागर आत्म शक्तिज समजीने दील आणीये. ॥ १८ ॥ आत्म शक्तिनो उद्यम करतां शक्ति साची, आत्म शक्ति उद्यम करवामां रहेशो राची आत्मशक्तिना उद्यमयी झट आश्रव नाशे, आत्मशक्तिना उद्यमथी ईश्वरता पासे. आत्मशक्ति प्रगटाववामां संयम सत्य उपाय छे बुद्धिसागर आत्मध्याने शक्ति तो प्रगटाय छे. ॥ १९ ॥ तप जप संयमथी चेतननी शक्ति वृद्धि, पिंडस्थादिक ध्यान धर्याथी प्रगटे ऋद्धि अहाविश लब्धि आतमनी शक्ति साची, चेतन तन्मय चित्त करीने रहीए राची. मंत्रहठने राज योगेज चैतन्य शक्ति भक्ति छे; बुद्धिसागर ध्यान योगे प्रगटती निज शक्ति छे. ॥२० ।। बाह्य अने अन्तर त्राटकथी विलसे शक्ति, For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૨૮૭ बाह्य अने अंतर त्राटकमां चेतन भक्ति; बाहिर करतां अन्तर त्राटक शक्ति वधारे, अंतरत्राटक ज्ञानयोगथी दोषो वारे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असंख्य प्रदेशी आत्मव्यक्ति धारणामां धारीए; बुद्धिसागर ध्यानयोगे जीवने झट तारीये. आत्मिक शक्ति सहुथी मोटी सुखने आपे, आत्मिक शक्ति सहुधी मोटी दुःखडां कापे; आत्मस्वरूपे लीन थवाथी अनुभव आवे, - अन्तरमा उद्योत सदा जिनवाणी गावे. आत्म शक्ति यत्न करतां ईशता वेगे मळे, बुद्धिसागर आत्मशक्ति प्रगटतां सुखमां भळे. आत्मशक्ति अभ्यास करे अन्तरना योगी, आत्मशक्ति अभ्यास करे चेतनना भोगी; आत्मज्ञानथी आत्म शक्तिनी शोधज थाती; सद्गुरुगमथी ज्ञान लह्याथी वस्तु पमाती.. आत्मज्ञाने रीजीए दील ध्यान प्याला पीजीए, बुद्धिसागर लीजीए शिव चित्त तन्मय कीजीए. आत्म शक्तिना सेवक छे वैरागी त्यागी, आत्म शक्तिना ध्याता छे अन्तरना रागी; आत्म शक्तिनो महिमा जगमां जोशो भारी, आत्म शक्तिने सेवो प्रेमे नरने नारी. आत्मनी विवेचनाथीज आत्ममां रंगावनं, बुद्धिसागर आत्ममां स्थिर चित्त ध्याने भावं आत्म शक्तिथी जयडंको जगमां झट वागे, आत्म शक्तिथी सुर नरपतियो पाये लागे; For Private And Personal Use Only ॥ २१॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ 1138 || Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ आत्म शक्तिनी अकळकळानो पार न आवे, धीर वीरने सिद्ध जगतमा आत्म प्रभावे. प्रेमोत्साहे ध्याइए दील चिदानंद शाश्वत प्रभु व्यक्तिथी व्यापक नहीने ज्ञानथीज चेतन विभु. ॥२९॥ अनंत शाश्वत सुखमय चेतन हुँ छ पोते, विवेकी जे भव्य सदा निज घटमां गोते; अलख हमारो देश बाह्यमा हुँ नहि रीजें, सर्व जीवो मुज मित्र वैरथी लेश न खीजें. 'आनंदमय हुं तत्त्वथी छं भावना सुख आपती; बुद्धिसागर आत्म रटना शोक वल्लिज कापती. ॥२६ ॥ अनंत गुण चेतनना तेनी अनंत शक्ति, सर्व गुणोनी भिन्न शक्तिनी करवी भक्ति स्थिरोपयोगे अनंत गुण प्रगटे छे सहेजे, समजी सत्य स्वरूप भव्यतुं तेमा रहेजे. आत्म शक्ति खीलववाने प्रेम साचो त्यां करो। बुद्धिसागर आत्मध्याने भवोदधिने झटतरो. ॥ २७॥ यम नियम आसनने प्राणायाम करीने, धरजो प्रत्याहार चित्तना दोष हरीने; धरी धारणा ध्यान समाधि शिव सुख वरीए, शिव सौधे चढवाने योगाष्टक ए धरीए. रहेणीथी रोजी खरे दील ईशने दील ध्याइए, बुद्धिसागर आत्मशक्ति ध्यानथी शिव पाइए.. ॥ २८ ॥ चैतन्योदय हेतु जगमा असंख्य निरखो, .. रत्नत्रयी छे मुख्य सर्वमा ज्ञाने परखो भात्मशक्ति अभ्यासक पुद्गल अँठ गणे छ। For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८९ आत्म शक्ति अभ्यासक ध्याने कर्म हणेछे. निजरमणताध्यानथी तो आत्म शक्ति खीलती सहजशक्ति आत्मनी खरी सर्व दोषो पीलती. ॥२९ ।। सदुपयोगे सुज्ञानीनी लब्धि शक्ति, दुरुपयोगे अज्ञानिनी लब्धि शक्ति; चेतनशक्ति पामी ज्ञानी जरा न फूले; अज्ञानी लधिने पामी भवमा झूले, अज्ञानी पण ज्ञानियोना संगथी सुधरे खरो, परस्वभावे लब्धिने नहि वापर मनमां धरो. आत्म शक्तिने खीलवची अन्तरमा पेसी, असंख्यप्रदेशी चेतनराया निर्भयदेशी; -शुद्धस्वभावे स्थिरता करवी ध्यान विचारे, चेतन तरतो भवजलधिथी परने तारे. आत्मशक्ति खीलववामां चित्त निश्चलता करो। बुद्धिसागर आत्मशक्तिज पामीने दुःखडां हरो... ॥३१॥ चेतन शक्ति जे जे अंशे प्रगटे साची, ते ते अंशे धर्म खरो मानो मन राची; निरुपाधियी चेतन शक्ति तुर्त प्रकाशे, निरुपाधियोगे झट चेतन शर्म विलासे. आतम शक्ति खीलववा झट निरुपाधिपद राचीए; बुद्धिसागर आत्मप्रेमे परम ईशता याचीए. ॥ ३२ ॥ परमईश भगवान् हृदयमा प्रेमे ध्यावो, पोते छे भगवान् हृदयमा धेगे भावो; स्वामी सेवक पोते ते आपे निज देतो, शब्दातीत व्यवहारे ते वाणीने कहेलो. For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ३३ ॥ ॥३४॥ ईश चेतन देव तेने पूनीए प्रेमे भवी; बुद्धिसागर ज्ञान किरणे भासतो हृदये रवि. आत्म शक्तिथी योगी मेरुगिरि कंपावे, आत्म शक्तिथी योगी पृथ्वीनेज धुजावे; आत्म शक्तिने साध्य कर्याथी सिद्ध कहावे, आत्म शक्तिनी भक्ति कर्याथी विद्या आवे. आत्म शक्ति स्मरण करतां प्रगटती व्यक्ति खरी; बुद्धिसागर आत्मशक्ति योगिओए घट वरी. आत्मशक्तिने केळववामां गुरुतुं शरणुं, आत्म शक्तिनी आगल कर्माच्छादन तरणु; तरणाथी सूरज तो कदी न ते ढंकाशे, एवी युक्ति गुरुगमथी जाणी विश्वासे... आत्मशक्ति झगमगे त्यां मुक्तिनां सुख सत्य छे; बुद्धिसागर आत्मशक्तिज केळवणी ए कृत्य छे. केवलज्ञाने जाणे दर्शनथी सहु देखे, केवलज्ञाने प्रगटपणे भावो सहु पेखे, श्वासोश्वासे आत्मध्यानयी शक्ति सुहावे, श्वासोश्वासे आत्मध्यानथी शक्ति वधावे; क्षयोपशमथी वीर्यशक्ति हि आत्मनी प्रगटे खरी. बुद्धिसागर शूरवीरनी वीर्यशक्ति दील धरी. कुमतिने सुमतिरूपे छे ज्ञाननी शक्ति, क्षयोपशमने क्षायिक भावे ज्ञाननी व्यक्ति उपशम क्षयोपशमने क्षायिक भावे स्थिरता, क्षयोपशमथी जाणी लेजो चेतन वीरता.. धागि प्रयोपशम भेटे जाणीप घट वीर्यता. ॥३५॥ ॥ ३६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९१ बुद्धिसागर आत्म शक्तिज जाणीए दील धैर्यता ॥ ३७ ॥ क्षयोपशमनी शक्ति पामी मोह हठावे, क्षयोपशमनी शक्तिथी जगमां पूजावे; चारकर्मना क्षयोपशमथी शक्ति न्यारी, शक्तितणो भंडार आत्मनी छे बलिहारी. आश्चर्य जगमां मानतुं शुं आत्मशक्ति आगले, बुद्धिसागर आत्म शक्तिज पामतां सर्वे मले. परस्वभावे आत्म शक्तिने जे वापरता, भ्रांतिथी भूलेला जीवो ते नहि तरता; आत्मस्वभावे आत्मशक्तिनी थाती वृद्धि, क्षायिकभावे आत्मशक्तिथी घटमां सिद्धि. क्षायिकभावे आत्म शक्तिज शुद्ध निर्मल दीपती, बुद्धिसागर शिव सनातन सर्व शत्रु जीपती. आत्मशक्तिनी श्रद्धाथी ध्याता सुखपावे, आत्मशक्तिनी श्रद्धाथी मोहादिक जावे; आत्मशक्तिनी श्रद्धाथी हिंमत बहु आवे, आत्मशक्तिनी श्रद्धाथी देवो वश थावे. आत्मनासामर्थ्य थी तो शरीर आखं हालतं; आत्मनासामर्थ्यथी तो शरीर आखं चालतं. आत्मतणी शक्तिथी जगमां सर्व बनेछे, चेतननी शक्ति तो समजो आत्म कनेछे; आत्म शक्तिथी वीरजिने तो मेरु हलाव्यो, आत्म शक्तियी बाहुबली जगमां जयपायो. आत्मना सामर्थ्यथी तो भरत केवल पामीया; महामुनि अति मुक्तिजीए कर्म दोषो वामीया. For Private And Personal Use Only ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२ आत्म शक्तिथी सतीयोए शीयलने धार्यु, आत्म शक्तिथी गजसुकुमाले कार्य सुधार्यु; आत्म शक्तिथी अन्तर चक्षु क्षणमां उघडे, आत्म शक्तिथी धर्म कृत्यतो कदी न बगडे. आत्म शक्ति मोटकी छे सर्वथी जगमा अहो; बुद्धिसागर आत्मधर्मे राचीने जन मन रहो. ॥ ४२ ॥ आत्म शक्तिनी परिपूर्णता प्रगटे ज्यारे, सिद्ध बुद्ध जिनेश कहावे चेतन त्यारे; विघटे पुद्गल कर्मवर्गणा निर्मल न्यारो, चिदानंद भंडार अरूपी चेतन प्यारो सिद्धासनने कीजीए घट ध्याइने चेतनमणि; बुद्धिसागर ध्यानयोगे आत्म शक्तिज छे घणी. ॥४३॥ आत्म शक्तिनुं वर्णन कदीन पुरु थातुं, सद्गुरु कृपाकटाक्षे चेतन रूप पमातुं; विषयेच्छानो नाश थवाथी संयम वृद्धि, परिपूर्ण स्याद्वाद स्वरूपी चेतन ऋद्धि. देह छतां पण देहथी तो भिन्न भासे छे यदि बुद्धिसागर ज्ञान शक्तिज प्रगटती त्यारे हृदि. ॥४४॥ सहज शुद्ध उपयोग हृदयमा झळहळ भासे, आनंद अपरंपार स्वभावे ब्रह्म विकासे; शाताशाता कर्म थकी पोते छे न्यारो, विमलेश्वर विख्यात हृदयमां निशदिन प्यारो. शुद्धध्याने ध्याइए निज सत्य शांति स्वरूपने बुद्धिसागर आत्म ज्योतिः ध्याइए निज रूपने. ॥ ४५ ॥ शत्रुजय प्रख्यात स्वभावे निर्मल ज्योति, For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९३ द्रव्यगुणपर्याय सहजं निर्मल छे मोति प्रगटे रत्नत्रायनी शुद्धि ध्यान कर्याथी, प्रगटे सहज स्वभाव आत्मनुं रूप वर्याथी. असंख्यमदेशी आतमानी शुद्धता दील घारीए, बुद्धिसागर सहज योगे आतमाने तारीये. प्रगटे शुद्ध विचारे सत्यानंदनी मोजो, तजी पुद्गलनी आश हृदयमां चेतन खोजो; चेतनमा लयलीन थइने निशदिन रहेशो, चेतनना प्रेमी थइ रहेने शिवपुर लेशो. क्षायिक भावे लब्धियो नव आत्मा सहेजे बरे, बुद्धिसागर ज्ञानमूर्ति सहज गुणने अनुसरे. शुद्धाशयनो राग करो जगमां जे मोटो, अशुद्ध आशय व्याग करो दुःखदायी खोटो, सहजसमतायोगे रमीये थइने सुखी, अन्तर चेतन सुरता साधे कदी न दुःखी. उच्चवर्त्तन जीवनुंझट ज्ञान तेजे झळहळे, बुद्धिसागर आत्म सेवे जोइए ते झट मळे. आत्ममदेशे सुरता साधी स्थिरता सेवो, aण भुवनमां स्थिरता सुख जेवो नहि मेवो: जाण्युं तेणे जाण्युं छे चेतन सुख प्यारु, चेतन सुखने जाण्या वण अन्तर अंधारु. दुर्गम दुर्लभ आत्मसुखने योगिओ केइ जाणता; बुद्धिसागर सहज सुखने हृदयमां केइ आणता. चेतन श्रद्धा अनेकान्तनयथी छे साची, सापेक्षा आत्म धर्ममा रहीए राची; For Private And Personal Use Only ॥ ४६ ॥ ॥ ४७ ॥ ॥ ४८ ॥ 11 89, 11 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ५० ॥ १९४. आत्म धर्मनु सेवन करवायी सुख शांति, आत्म धर्मर्नु सेवन करवायी नहि भ्रांति. आत्म शक्ति प्रगट करवा सहज समता साधीए बुद्धिसागर आत्मशक्ति प्रगटतां बहु वाधीए. चेतननी शक्ति छे चेतन भावे मोटी, आत्मशक्तिनी आगल पुद्गल शक्तिज खोटी; अरूप चेतन शक्ति सेवो, चरण सुधारी, विषय विकथा रागद्वेषने मनथी वारी. असद्वर्तन त्यागवाथी शुद्धवर्तन वाघशे; बुद्धिसागर शुद्धवर्तन सहज योगी साधशे. .सद्गुण शिखरे आत्म शक्तिथी जीव विराजे, कर्माष्टकनो नाश करी जगमां झट गाजे; आत्म शक्तिनी आगल कोइनुं कांइ न चाले, अन्तरात्म चिद्घननी सेवा शिव सुख आले. आत्मोपासक योगथी तो प्रगटतो सुखनो झरो; बुद्धिसागर योग शक्तिज पामीने प्राणी तरो. योगाभ्यासे चेतन शक्ति दिन दिन वधती, माया प्रपंच योगे शक्ति दिन दिन घटती; मननी शुद्धि करीए सद्गुरु ईश्वर पूजी, चेतन शक्ति जाणे प्रगट भव्य रमुजी. बीजमा व्यापी रह्यु छे सत्ताथी जेम वृक्षरे बुद्धिसागर जीवमांहि सिद्ध जाणो दक्षरे. आतम ते परमातम रूपे प्रगटे सारो, आतम आविर्भाव ईश ते मनमा धारो; पति जीवोमा भिन्न शक्तियो नजरे देखो, For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९५ क्षयोपशमना भेद ज्ञानथी एमज लेखो. क्षयोपशम भावे जीवोमां शक्तिना भेदो खरा; बुद्धिसागर शक्ति भेदो जगत्मा जय जय करा. ॥५४॥ ज्ञानादिक जे चार गुणोमा शक्ति भेदो, शुक्लध्यानना महाशस्त्रथी तेने छेदोः । क्षयोपशम गुण तेतो क्षायिक भावे होवे, अनेकान्तनी दृष्टि धरीने योगी जोवे. क्षयोपशम ते हेतु छे ने क्षायिक, कार्य कहाय छे, बुद्धिसागर क्षयोपशमनी शक्ति साधन थाय छे. ॥५५॥ क्षयोपशमनी शक्ति समकित प्रगटे साची, क्षयोपशमनी शक्ति समकित वण तो काचो; आत्मशक्तियो अंतरमा परिणमती समजो, समकितनुं सामर्थ्य गणीने तेमां रमजो. सम्यक्त्व शक्ति आत्ममांहि प्रगटती दुःख नाश छे, बुद्धिसागर आद्य समकित शक्तिनो विश्वास छे. ॥५६॥ अन्तर संयम निश्चल भावे शक्ति वधारे, अन्तर संयम निश्चल भावे दुःखडा वारे; अन्तर संयम क्रिया थकी तो सुखनी लीला, अन्तरसंयम क्रियापरायण सन्त रसीला. देह वाणी मन क्रियामा आत्म स्थिरता नहि जरा, बुद्धिसागर योगसाधन मुनियो जग जय करा. ॥ ७ ॥ साची सुखकर आत्म क्रिया जगमां जयकारी, पुद्रलनी किरियाथी न्यारी दुःख हरनारी; आत्म क्रियाथी अनुभव साचो मनमां. भासे, विरति गुणथी संयम शिखरे जीव प्रकाशे. For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्च गुणनी प्राप्ति माटे ध्यान सुखकर एक छे; बुद्धिसागर आत्म शक्तिज प्रगटतां सुख टेक छे. ॥५८ ॥ दुःख समयमा आत्मशक्तिने धारण करीए? दुःख सहीने चरणशक्तिने मनमां धरीए; . दुःख समयमा आत्मशक्तिनी खबर पडे छे, दुःख समयमा आत्मशक्तिथी सत्य जडे छे. सहस्र संकट यदि पडे पण आत्मशक्ति न त्यागीए; बुद्धिसागर आत्म धर्मे समय निशदिन जागीए. ॥ ५९ ॥ ज्ञान शक्तिनो महिमा जगमा जयजयकारी, आत्मशक्तिने पामी शोभे जग नर नारी; पर पोतानुं स्वरूप जाणे ज्ञान लहीने, सत्यतच श्रद्धालु बनशो धर्म वहीने. सत्यतत्त्वश्रद्धाथकी तो आत्मशक्ति उल्लसे; बुद्धिसागर आत्मशक्तिज पामी चेतन नहि फसे. ॥६०॥ श्वासोश्वासे ध्यान लगावो चिन्मय थावा, श्वासोश्वासे प्रभु गुण गावो शिवपुर जावा; श्वासोश्वासे अलख निरंजन प्रेमे ध्यावो, श्वासोश्वासे परम महोदय मंगल पावो. सप्तराज उंचु जवू पण जीवने बहु सहेल छे बुद्धिसागर सहजयोगे आत्ममुखनो खेल छे. ॥६१ ॥ अन्तरात्म सेवनथी नरनारी सुख पावे, अन्तरात्म सेवनथी देवो गुण गण गावे अन्तरात्म सेवनमा शक्ति सत्य रहे छे, वीर जिनेश्वर वचनो सूत्रो एम कहे छे. अन्तरात्म सेवन मजार्नु सन्त जन मन प्रेम छे; For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨૭ बुद्धिसागर आत्मशक्तिज प्रगटशे ए नेम छे. अभ्यासे चेतननी शक्ति पूर्ण प्रकाशे, तीर्थकरने सिद्ध थया चेतन अभ्यासे; सूरि वाचकने मुनिवर मंडल शक्ति वधारे, रत्नत्रयीतुं सेवन करीने चेतन तारे. आत्मशक्ति वृद्धि माटे मुनिवरो दीक्षा ग्रहे; बुद्धिसागर भक्ति योगे सत्य शक्तिज जन लड़ें. जे जन जेमां रंगाशे तेने ते मळशे, चेतनमा रंगाशे ते तो सुखमां भळशे; वाळीनी चेतन शक्तिथी रावण हार्यो, विष्णुकुमारे पापी नमुचिने झट मार्यो. क्षयोपशमनी शक्तिथी आश्चर्य मोडं यह रहे, For Private And Personal Use Only ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ बुद्धिसागर प्रगट क्षायिक शक्ति महिमा सुख लहे. ।। ६४ ।। चौदपूर्वनी रचना करता गणधर देवा, मुहूर्तमांहि ज्ञान शक्तिथी समजे सेवा; पंच ज्ञानने दर्शन चारे चेतन शक्ति, महिमा अपरंपार धर्ममां घरीए भक्ति. आत्मज्ञानि सद्गुरुनी सेवनाथी धर्म छे. बुद्धिसागर गुरु प्रसादे मोक्षनां तो शर्म छे. परपरिणतिने दूर निवारी समता धारी, रूपातीतनुं ध्यान धरी वरशो शिवनारी; केवल चेतन बोध शक्तिधी धर्म खरो छे, सन्त जनोए आत्म धर्मने दील वर्यो छे. चैतन्य शक्ति जीवमां छे जीवथी न्यारी नही, बुद्धिसागर सन्तजनना दीलमां गुरुगम रही। ॥ ६५ ॥ ॥ ६६ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ गुरुपदपंकजशरण ग्रहीने ज्ञान सुधारो, गुरुविना नहि ज्ञान आवशे कदी न आरो; सद्गुरु आशीर्वादे अन्तरमां अजवाळु, सद्गुरु मुनिना कृपाविता तो मनडुं काळं. सद्गुरु मुनिनी कृपाथी धर्म करणी सत्य छेः बुद्धिसागर मुनिगुरुथी आत्मशक्तिनुं कृत्य छे. परंनी आशा परिहरी चेतनने ध्याबो, पिंड विषे परमेश्वर वसीया तेने गावो; द्रव्यार्थिकनयथी नित्यज चेतन अवधारो, अनित्यपर्यायार्थिकनयथी जीव विचारो. अशुद्धचेतनता तजी झट शुद्धचेतनता करो; बुद्धिसागर शुद्ध चेतन परम महोदय झटवरो. समय मति षटकारक परिणमतां चेतनमां, असंख्य प्रदेशे अनन्त गुणमां समजो मनमां; षट् कारक नहि भिन्न जीवधी शास्त्रे दाख्युं, समजी सन्त जनोए शाश्वत सुख घट चाख्युं. शुद्धाशुद्ध वे भेदथी तो कारको पट जाणजो; बुद्धिसागर शुद्ध कारक शक्ति घटमां आणजो. सर्व विकलपे टळे ध्यानथी स्थिरता आवे, शुद्धादर्श समान दीलडं ध्याने थावे; यो सर्व जणाय ज्ञानथी जुवो विचारी, शब्दादिकथी व्यक्ति भावता प्रगटे सारी. काळ अनादि आत्मसत्ता संग्रहनयथी खरी, बुद्धिसागर आदि एवंभूतथी व्यक्ति वरी. अस्ति नास्तिता चेतनमां छे काल अनादि, For Private And Personal Use Only ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ 11.99 11 ॥ ७० ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपशम आदिक भार व्यक्तिवाः तेनी आदि वस्तुस्वभावे धर्म मर्मने ज्ञानी जाणे, अन्तरमा उपयोग धरीने सुखडां माणे. आत्म शक्ति प्रगट करवा दृष्टि अंतर खोलो, बुद्धिसागर आजितचेतनशक्तिनी जय बोलशो.. ... ॥७१ ॥ पोते छे भगवान् हृदयमां नकी धारो, व्यक्तिभावने साध्य करीने चेतन तारो तिरोभावनो व्यक्ति भाव साची जिन मुक्ति, समजी सत्यस्वरूप हृदयमा धरशो युक्ति.. उपादान ते धर्म छे ने निमित्त ते व्यवहार छे, बुद्धिसागर आत्म शक्तिज उपादान जयकार छे. ॥७२॥ आत्मतीर्थने धार्या वण समता नहि आवे, आत्मतीर्थने जाण्याथी सहु लेखे आये; सर्व तीर्थमा चेतन तीर्थ कयुं छे मोडं, आत्म तीर्थनी आगळ अन्य विभाविक खोडं. ज्ञान दर्शन सूर्य चंद्र बे आरति नित्य उतारता, बुद्धिसागर चेतन ईशनी सत्य छे परमार्थता. तारंगा श्री अजित जिनेश्वर दर्शन कीg, . चउ निक्षेपे जिन दर्शन स्पर्शन सुख लीg; निश्चयचेतन शक्ति साधे अजित जिनेश्वर, व्यक्तिथी छे भिन्न गुणोथी सदृश सुखकर. ओगणीश चोसठ साल चैत्रनी अमावास्याए कर्यो, बुद्धिसागर चेतनशक्ति ग्रंथ मंगलपद भर्यो. ॥७४॥ इति चेतनशक्ति ग्रन्थः समाप्तः - For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१॥ ॥२॥ २०० चेतनस्तुतिः (स्वाध्याय.) गंगातट तपोवनमा रे बनी रचना भारी-ए राग. नमो चेतन ईश्वर रे सकळ गुणना स्वामी नमो चेतन ब्रह्मा रे प्रभु अन्तर्यामी नमो केवलज्ञानथी रे व्यापक विष्णु खरा, नमो निश्चय चरणथी रे महादेव मुखकरा. नमो सत्य निरंजन रे निरागी निर्नामी, नमो भवदुःखभंजन रे रंजन गुणरामी; नमो निज गुण भोगी रे पुद्गलनी न आश जरा, नमो निजगुणयोगीरे प्रभु भव दुःख हरा. परभावनो कर्ता रे काळ अनादि थकी, मोहेभावना योगेरे गयो तुं छेक छकी; बहुमलीन बन्यो छे रे पोतानु भान भूली, रह्यो पुद्गलसंगे रे धरीने मोह शूळी. लाख चोराशी चौटेरे भवनगरीमा फर्यो, पण अन्त न आव्यो रे नहि परभाव हों; हवे चेतन चेतो रे प्रभु तुज पोते छे, वश्यो कायामां पोते रे बीजे शुं गोते छे.. देह वाणीने मनथी रे चेतन तुं भिन्न खरो, ज्ञान दर्शन चरणथी रे जाणीने चित्त धर्यो; थाओ चेतन प्रेमीरे चेतनमां छे धर्म खरो; सत्य चेतनधर्मेरे सुखोदधि भव्य वरो. . बाह्य खटपट त्यागीरे अन्तरमा राग धरो बाह्य भव जंझाळेरे कदी नहि कष्ट हरो, ॥४॥ ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७॥ ॥८॥ बाधकष्टक्रियामारे भूलेछे भव्य जीवो; नहि चेतन शोधेरे पाडेछे दुःख रीवो. हवे चेतन खोजोरे अन्तरमां लक्ष्मी खरी; अन्तरना तो ध्यानरे जीवोए मुक्ति वरी, उपशम क्षयोपशमथारे क्षायिक साध्य करो; औदायक निवारीरे भवोभव दुःख हरो. शुद्ध आत्मिकभावेरे परिणमो प्रेम करी; शुद्धचारित्रयोगेरे रहे नहि कर्म जरी, चित्तदोषो निवारीरे चेतन ध्यान करो; शुद्ध चेतन पोतेरे अशुद्धता परिहरो. शुद्धपरिणति साधोरे शुद्धोपयोग धरी; जागो शुद्धोपयोगेरे ध्यानमां ईश वरी, शुद्ध आनन्द पामोरे लही नव ऋद्धि खरी, सेवो साधन साचारे अन्तर लक्ष वरी. देखी अनुभव नयनेरे निरंजन नाथ विभु. शुद्ध संयम पुष्पेरे पूजो श्री आत्मप्रभु, मारा अन्तर स्वामीरे खरखर तुंज ग्रह्यो। ज्ञानचक्षु प्रकाशीरे मुक्तिना पंथे वह्यो. जागो शक्ति विलासीरे त्रण भुवन धणी, प्यारा परम जिनेश्वररे खरो घट दिनमणि. खरी शांतिना भोगीरे खरेखर तुं योगी, शुद्ध आनंदस्वामीरे निश्चय नहि रोगी. खरो देव तुं देहेरे निश्चय वात भली, स्थिरचित्तथी ध्यानरे कर्मनी राशि टळी; शुद्धासंख्यप्रदेशीरे नमुं हुं पोताने, ॥ १०॥ For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १२ ॥ वात मनां धरीछेरे अभय पद करवाने. गावे पोते पोतानेरे व्यवहारे भेद पडे, षट्कारक समजेरे समजण सारी जडे; शुद्धध्यानदशामारे मुँलातुं जगत भूईं, शुद्धध्यान कर्याथीरे जडयुं घट तत्त्व रुडु. स्वयंभूसमुद्रनेरे हस्त थकी तर, शुद्धचेतन वर्णनरे रसनाथी कर निर्विकल्पदशामारे अनुभव धार्यों छे, धरी श्रद्धा हृदयमारे मोहारि निवार्योछे. छंडी चेतनलक्ष्मीरे हवे नहि बाह्य भमुं, हीरो हस्त चडयोछेरे हवे नहि बाह्य भमुं; प्रभु तुहि तुहि ध्याबुरे हुं तुं नो भेद नहि. पोते पोताने कहेवुरे विचारनो भेद ग्रही. पोते पोताने देखुरे पोते पोताने मळ्यो, नहि पुद्गल ममतारे अज्ञानभाव टळ्यो; नाम रूपथी न्यारोरे चिद्घन चित्त वर्यो, बुद्धिसागर ध्यानरे, अखंडानंद धर्यो. ॥ १४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०३ प्रीति वर्णन. पैसा पैसा पैसा हारी-ए राग. प्रीति प्रीति प्रीति प्रीति, प्रीतिछे सुखकारी रे; . दुनियाने प्रीति छ प्यारी, प्रीतिथी छे यारी रे. प्रीति० ॥१॥ प्रीतिनी आगल शुं भीति, प्रीतिथी छे नीति रे, प्रीतिथी परमेश्वर प्यारो, प्यारी प्रीति रीति रे. प्रीति० ॥२॥ प्रीति विना लु भोजन, प्रीति सहुथी मीठी रे; प्रीतिथी संपीली दुनिया, नजरे ज्यां त्यां दीठी रे. प्रीति० ॥ ३ ॥ प्रेम विनातो चेन पडे नहि, प्रीति जीवन मोडें रे प्रीति वण तो क्लेशी दुनिया, प्रीति वण तो खोटुं रे. प्रीति० ॥ ४ ॥ दुध मीटु साकर मीठी, मीठी घेबर पारी रे सहुथी मीठी प्रीति जगमां, समजो नरने नारी रे. प्रीति० ॥५॥ पीति वण भक्ति छे लूखी, प्रीति वण श्या मेवा रे प्रीति वण तो सेवा लूखी, प्रीति वण क्या देवा रे. प्रीति० ॥ ६ ॥ प्रीति आगल प्राण नकामा, प्रीति सारी खोटी रे; धर्मे सारी पापे बूरी, प्रीति सारी रोटी रे. प्रीति० ॥ ७॥ जेवी प्रीति तेवी रीति, प्रीतिना बहु भेदो रे; प्रीतिना विरहे प्रगटे छे, जगमां ज्यां त्यां खेदो रे. प्रीति० ॥ ८ ॥ प्रीतिथी भक्ति छे सहेली, प्रीति कामणगारी रे प्रीतितुं अजवाळु भारी, प्रीतिनी बलिहारी रे. नीति० ॥९॥ प्रीति आगल सर्व नकामुं, प्रीति सुखनी क्यारी रे; बुद्धिसागर धार्मिकमीति, धरजो नरने नारी रे. प्रीति० ॥ १० ॥ For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ अजित जिनस्तुति. ओधवजी संदेशो कहेशो श्यामने-प राग. अजित जिनेश्वर अजरामर अरिहन्तछो; ब्रह्मा विष्णु परमेश्वर महादेवजो, सहजस्वरूपी क्षायिक नवलब्धि धणी; द्रव्य भावथी नमुं करु हुँ सेवजो. अजितः ॥ १॥ एकसमयमा जाणो देखो सर्वने । समयान्तर जाणो देखो पण पक्षजो, केवलज्ञाने जाणो लोकालोकने नयपक्षोना लक्षे वाद न दक्षजो. . अजित० ॥२॥ असंख्यप्रदेशी आत्मप्रभु छो दिनमणि प्रति प्रदेशे अनन्तगुण निर्धारजो, तिरोभावना नासे आविर्भावता; शोभे चेतन शुद्ध स्वरूपाधारजो. अजित० ॥ ३ ॥ सहज शुद्धपर्याये सिद्धपणुं भलु शब्दादिकनयथी चेतनता शुद्धजो, निःसंगी नीरागी निर्भय नित्य छ। परमब्रह्म विमलेश्वर निश्चय बुद्धजो. अजित ॥ ४ ॥ सादि अनंति स्थिति शुद्ध स्वभावथी; अमूर्तव्यक्ति अगुरुलघुता सारजो, बुद्धिसागर अजितजिनेश्वर सेवना; अनन्तगुणपर्यायतणा आधारजो. अजित० ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनिसुव्रत स्तवन. श्री श्रेयांसजिन अन्तरयामी-ए राग. मुनिसुव्रत जिनराज महेश्वर, दर्शन शिवमुखकारीरे; दर्शनस्पर्शन अनुभव थातां, मंगलपद तैयारीरे. मुनि० ॥ १ ॥ लौकिक लोकोत्तर बे भेदे, द्रव्य भाव वे भेदेरे, निश्वयने व्यवहारे दर्शन, जाणे ते निज वेदेरे. मुनि ॥२॥ दर्शन दृष्टा दृश्य त्रिपुटी, एकमेकरूप थावरे षट्कारक परिणमतां सवळां,भय चंचळता जावेरे. मुनि० ॥ ३ ॥ चारभूतपुद्गलथी न्यारो, एकरूप स्थिरयोगीरे; अचळ महोदय क्षायिक नवगुण,लब्धि तगोछे भोगीरे.मुनि०॥४॥ स्याद्वाददर्शन पामीने, अनहद आनंद पावेरे; निर्विकल्प दशाए दर्शन, लोकोत्तरतुं थावरे. मुनि० ॥ ५ ॥ जिनवर दर्शन दीडें घटमां, स्थिरतामां प्रभु मळीयार; परआलंबन चेतन हेते,निजभावे गुण फळीयारे. मुनि० ।। ६ ॥ षड् दर्शनना खेद टळ्या सहु, जिनदर्शन अवधारीरे; बुद्धिसागर सुखमां महाले, दर्शननी बलिहारीरे. मुनि० ॥७॥ केळवणी. धन धन संप्रति साचो राजा-ए राग. केळवणी सुखनी करनारी, केळवणी बलिहारीरे; धार्मिक केळवणी छे साची, शक्ति खीलवनारीरे. केळवणी॥१॥ केळवणी विद्यानी कुंची, केळवणी छे उंचीरे; धार्मिक विद्या वण अंधारु, जात भात छे नीचीरे. केळवणी०॥२॥ धार्मिक केलवणीथी नीति, सद्वर्तननी रीतिरे; For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ धार्मिक केळवणोथी श्रद्धा, जावे भवभव भीतिरे. केळवणी ॥ ३ ॥ धार्मिक केळवणी पाम्या वण, सुखी नहि नरनारीरे; नव तत्वोनुं ज्ञान लहया वण, उमर जावे हारीरे. केळवणी. ॥ ४ ॥ धार्मिक केळवणीथी शान्ति, चित्तदोष दूर जावेरे; अंतर तत्त्वतुं ज्ञान लह्याथी, परम महोदय पावरे. केळवणी०॥ ५ ॥ चेतन ज्ञाता चेतन ध्याता, चेतनमा मुख भारीरे; चतेन विना नहि सुख बीजा, निश्चय जोशो विचारीरे. केळवणी. ६ सातनयोनी सापेक्षाथी, चेतन तत्त्व जणायरे; सप्तभंगीनी केळवणीथी, साचं तत्व ग्रहायरे. केळ्वणी०॥ ७ ॥ केवलज्ञाने वीर प्रभुए, केलवणीने भारवीरे; केळवणीनी शक्ति मोटी, दक्षोए शुभ दाखीरे. केळवणी०॥ ८ ॥ केळवणीथी निर्मल मनहुँ, केलमणी गुण कयारीरे; केळवणीथी साचुं खोटं, परखे सजन धारीरे. केळवणी०॥ ९ ॥ विद्यानी वृद्धिथी ऋद्धि, केळवगीथी जाणोरे, धार्मिक केळवणी लेवामां, उद्यम दीलमा आगोरे. केळवणी०॥१०॥ केलवणीथी चेतन सुधरे, निंदा विकथा जावे रे; धार्मिक केलवगी खोलवतां, शाश्वत सुखडां पावरे. केलवणी०॥११॥ हिंसादिक दोषोने हणवा, केळवणी छे पहेली रे दया दान गुण वृद्धि माटे, केळवणी छे वहेली रे. केळवणी०॥१२॥ गुरुमुखथी धार्मिक केळवणी, लीजे विनय वधारी रे; गुरुनी श्रद्धा भक्तियोगे, विद्या वृद्धि भारी रे. केळवणी० ॥१३॥ जिनश्रुतवाणी केळवणीथी, कर्म कलंक कपाशे रे; सद्गुरुमुनिपदपंकन सेवे, अनुभव सत्य पमाशेरे. केळवणी० ॥१४॥ षड्द्रव्योतुं स्वरूप साचुं, केलवणी ए सारी रे जिनमुख त्रिपदीना अवबोधे, प्रगदे समकित भारीरे. केळ०॥१५॥ For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०७ अक्षाविश लब्धिने जाणे, केळवणीथी ज्ञानी रें; पंचभावने ज्ञानी जाणे, समजे नहि अभिमानी रे. केळवणी ॥१६॥ षदकारकने समजे ज्ञानी, योगाष्टक मुखकारी रे सहज समाधि सन्तो पामे, केळवणी अवधारी रे. केळवणी ॥१७॥ अलख निरंजन दर्शन कर, केळवणीने पामी रे; परमब्रह्मनी प्राप्ति सहेजे, होवे चेतन रामी रे. केळवणी० ॥१८॥ विषय विकारो क्षय करवाने, केळवणी जग सारी रे' धार्मिककेलवणी पाम्या वण, टळे न टेव नठारीरे. केळवणी०॥१९॥ चेतन परम महोदय पामे, केलवणी ते उंची रे; अन्तरात्मनी केलवणी वण, केलवणी छे नीची रे. केळवणी०॥२०॥ केळवणीथी मंगल कोडी, उच्चाशय करनारीरे; परमानंद महोदय कारण, केळवणी, जयकारीरे. केळवणी ॥२१॥ आत्मिक धर्मोन्नति केलवणी, लेशे से जन तरशेरे; सायिकभावे मंगल मोडे, जन्म धरीने वरशेरे. केळवणी०॥२२॥ रागद्वेषने क्लेश वधे ते, केळवणी छे कूडीरे; वस्तुस्वभावे धर्म जणावे, केळवणी ते रूडीरे. केळवणी०॥२३॥ अनेकांत चेतनना ज्ञाने, शाश्वत सुखडां थावरे, कर्माष्टकनो नाश करीने, मुक्तिपुरी सोहावरे. केळवणी॥२४॥ गुरुगम केळवणी पामीने, लहोए शाश्वत सिद्धिरे; बुद्धिसागर मंगलमाला, रत्नत्रयीनी ऋद्धिरे. केळवणी॥२५॥ समाप्त. For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमदावाद. श्री सत्यविजय प्रीन्टींग प्रेसमा शा. गीरधरलाल हक मंचद छाप्यो. For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only