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२०० चेतनस्तुतिः (स्वाध्याय.) गंगातट तपोवनमा रे बनी रचना भारी-ए राग. नमो चेतन ईश्वर रे सकळ गुणना स्वामी नमो चेतन ब्रह्मा रे प्रभु अन्तर्यामी नमो केवलज्ञानथी रे व्यापक विष्णु खरा, नमो निश्चय चरणथी रे महादेव मुखकरा. नमो सत्य निरंजन रे निरागी निर्नामी, नमो भवदुःखभंजन रे रंजन गुणरामी; नमो निज गुण भोगी रे पुद्गलनी न आश जरा, नमो निजगुणयोगीरे प्रभु भव दुःख हरा. परभावनो कर्ता रे काळ अनादि थकी, मोहेभावना योगेरे गयो तुं छेक छकी; बहुमलीन बन्यो छे रे पोतानु भान भूली, रह्यो पुद्गलसंगे रे धरीने मोह शूळी. लाख चोराशी चौटेरे भवनगरीमा फर्यो, पण अन्त न आव्यो रे नहि परभाव हों; हवे चेतन चेतो रे प्रभु तुज पोते छे, वश्यो कायामां पोते रे बीजे शुं गोते छे.. देह वाणीने मनथी रे चेतन तुं भिन्न खरो, ज्ञान दर्शन चरणथी रे जाणीने चित्त धर्यो; थाओ चेतन प्रेमीरे चेतनमां छे धर्म खरो; सत्य चेतनधर्मेरे सुखोदधि भव्य वरो. . बाह्य खटपट त्यागीरे अन्तरमा राग धरो बाह्य भव जंझाळेरे कदी नहि कष्ट हरो,
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