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॥२॥
॥४॥
गातां ध्यात प्रेमथी, कर्म रहे नहि रश्श.. नमस्कारना ध्यानथी, प्रगटे शक्ति अनन्त सर्वोत्तम मङ्गल सदा, करे कर्मनो अन्त. शाश्वत सुख देनार छे, मङ्गल पद नवकार; सर्वमन्त्रनुं सार छे, जगमां जय करनार. कामकुम्भ चिन्तामाणि, कल्प वल्लिसम एह; नमस्कार महामन्त्रने, स्मरतां गुण गणगेह. चार निक्षेपे ध्याइए, महामन्त्र नवकार; चिदानन्द घट उल्लसे, होवे भवजल पार. चउद पूर्वनुं सार छे, स्मरतां नासे दुःख; बुद्धिसागर ध्यानी, होवे शाश्वतं सुख.
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आत्मज्ञान.
दुहा. आत्मज्ञान करीए सदा, चिदानन्द गुणधाम; आत्मज्ञानथी जाणीए, नही रूपके नाम. आत्मा सत्ने नित्य छे, कर्म ग्रहण करनार; कर्म हरण पण ते करे, निज पर्यायाधार. रत्नत्रयि साधी मुदा, पामे शाश्वत स्थान; आत्म प्रभुनी धारणा, करतां प्रगटे ध्यान. अन्तर्दृष्टि साधना, साधक शुद्धि थाय; ज्योति निर्मल झळहळे, अजरामर पद पाय. अन्तर्दृष्टि उपासना, क्षायिक गुण उपास्य; सापेक्षाए साध्य छे, साधनन्त पद वास्य,
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