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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काया नमरीना बसनारा, चेत चेत चेतनराया; बुद्धिसागर अवसर पामी, जाग्रत था चिद्घनराया. दे० ॥ ५ ॥ रीस. दुहा. ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥४॥ रीस कदी नहि कीजीए, रीस थकी सन्ताप; वैर झेर प्रगटे बहु, प्रगटे बहुला पाप. अवळी बुद्धि उपजे, हठ कदाग्रह जोर; रीस थकी बहु शोक छे, ठरे न जेवू ढोर. रीस सर्पिणी मन डसे, प्रगटे मिथ्या घेन; प्रेम सम्प टाळे अरे, पडे न रीसे चेन. अकृत्य कृत्य कराय छ, अवाच्य पण बोलाय; व्हालां पण द्वेषी बने, अवळे पन्थ जवाय. अमृत शिक्षा झेर सम, रीसे ऋद्धि विनाश विवाहनी वरसी बने, रीसे कार्य हणाय. ज्ञानी ध्यानी मोटका, रीसे वाळे दाट; रागी पण द्वेषी बने, बेसे उधे खाट. रीसे सन्मति वेगळी, रीसे दूरे धर्म; पग पग रीसे दुःख छ, रीसे बांधे कर्म. तप जप संयम सहु टळे, मळे नहि सुखधाम; क्षमा धर्याथी सन्मति, सिद्धे सघळां काम. रीस तज्याथी शान्तता, पामे सहु कल्याण; बुद्धिसागर सज्जनो, पामे शिवपुर स्थान. ॥८॥ ॥९॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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