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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org اف Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || आत्म देशनी अकळकळा छे, झळहळ झगमग ज्यां ज्योति; अंतरमां उतरी जोवाथी, चेतन ज्ञाने विष्णोति. आत्म देशमां जोगी जागे, परमातम पदने परखे; आप स्वरुपे आप प्रकाशे, समजी हंसा मनहरखे. जन्म जरा मृत्युथी न्यारो, आत्म देश घटमां लावो; मायाना देशो उल्लंघी, आत्म देशमां झट आवो. एकाकार सघळा त्यां भासे, भेदभाव नहि रहेबानो; अलखदेश पोतानो सन्तो, ज्ञान चक्षुथी जोवानो. अलखदेशमां जात भरत नहि, निराकार छे जयकारी; अनंत गुण पर्यायतुं आश्रय, शुद्ध ब्रह्मपद सुखकारी ॥ ६ ॥ दुःख देनारा माया देशो, माया दुःखनी छे क्यारी; सुरता साधो अलख देशमां, अलखदेशनी बलिहारी ॥ ७ ॥ अलखदेशना गुणो अनंता, पामे तेनी हुशियारी; बुद्धिसागर आत्म देशमां, जावो भव्यो नरनारी. For Private And Personal Use Only ॥५॥ ॥ ८ ॥ देह नगर. देह नगरमा जो तुं विचारी, कोण आवीने गया नहीं; अनन्त आव्या अनंत चाल्या, तन धन माया अहीं रही दे० || १ || पाणीमांहि जेतुं पता, देहनगर रचना तेवी; मान मूर्ख मन जूठी काया, परभवनी वाटज लेवी. दे० ॥ २ ॥ काया नगरी कदी न तारी, माने शुं मारी मारी; फजेत फाळको एकदिन थाशे, भ्रान्तिथी भूल्यो भारी. दे० ॥३॥ समज समज मन चेतन डाह्या, समजी ले शिक्षा सारी; आव्या तेने अंते जावुं त्यागी सहु दुनिया दारी. दे० ॥ ४ ॥
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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