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आत्मज्ञानिना उद्गार. शुद्ध चेतना स्वरूप रमणमां, अनुभव योगे रंगायो। भूल्यो मिथ्या दुनियादारी, स्वरूप म्हारु हुं पायो. ॥१॥ दुनियानी खटपट सहु छोडी, जोडी सुरता अन्तरमा यन्त्र तन्त्रनी तजी कल्पना, भमुं न माया भणतरमां. ॥ २॥ निन्दो कोइक वंदो कोइक, दुनियानी परवाहनथी; . मनमां आवे तेवु मानो, ल्यो शुं अमृत वारि मथी. ॥ ३ ॥ अळहळ ज्योति दर्शन करशं, बाह्य दशामां नहि फरशु, तरशुं भवजलधिने सहेजे, अन्तरनी वातो करशं. ॥४॥ अलखनी अवधूत दशामां, जगनुं स्वप्नुं भूलायु; हुं तुं नो सहु भेद गयो दूर, भूल्यो सहु मिथ्या गायु.॥५॥ प्रगटयो विजळीनो चमकारो, झळहळ झगमग अजवाईं; कर्तुं न कोने जातुं मुखथी, अन्तर आंखोथी भालु. ॥ ६ ॥ दुनिया मानो के नहि मानो, जरुर तेनी शुं मारे; समज्या तेने सान मळी छे, पोताने पोते तारे. ॥७॥ मूढ कहो के बुध कहो कोइ, तेथी कंइ न जावा, ज्ञान ध्यानमा रहे| रंगे, भावि भाव ते थावान. ॥८॥ अनुभवामृत पीधुं प्रेमे, विषयाशा दूरे वारी; धुद्धिसागर अलखधूनमां, चिदानन्दपद जयकारी. ॥९॥
आत्म देशमा अनन्त सुख. आत्म देशमां सुख अनंतु, मळ्या पछी महि टळवार्नु, आत्म देशनी लीला न्यारी, परम रूपमा भळवानु. ॥१॥
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