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उपशमादिक भावथी, निश्चयनय अनुसार. अन्तरना सापेक्षथी, साचो बाह्य विहार; अन्तरथी निश्चल रहे, भाख्यु शास्त्राधार. पवन फेरवे पर्णने, तेम प्रारब्धे देह; देश विदेशे भटकतुं, निश्चयथी निजगेह. प्रारब्धे विचरे मुनि, स्थिरता निजगुणमाहि बुद्धिसागर सन्तने, सदानन्द घटमांहि.
॥ ७॥
॥८॥
सत्यबोध. वसे ज्ञान त्यां मान नहि, दामवसे त्यां काम बुद्धिसागर रवि अने, रजनी एक न ठाम. ॥१॥ पर ललना परधन तजे, सेवे सज्जन संग; बुद्धिसागर अनुभवे, परमानन्द तरंग. ॥२॥ मन पाराने मारवा, उत्तम औषध जाण; ज्ञानि जननी सेवना, बीजं अनुभव ज्ञान. वैरमूल वाणी बुरी, प्रेममूल उपकार; दया धर्मर्नु मूल छे, मोक्ष मूळ अनगार. ॥४॥ विनयमूल विद्या कही, शत्रु मूलजे क्रोध; क्षमा मूल सत् सङ्गति, गुरु मूल छे बोध. विवेक मूल सज्जनपणं, धर्म मूल विश्वास; व्यसन मूल इच्छा कही, मोह मूल छे आश. ॥६॥ आत्मज्ञान शिव पन्थ छे, बुद्धिसागर जाण; अनुभवरले जे रमे, ते पामे मुख खाण.
॥७॥
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