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७८
॥१॥
॥३॥
सिद्धान्तामृत. कों कर्म छुटे नहि, भोगवां निर्धार नरपति सुरपति रंक सहु, कर्माधीन संसार. निकाचितजे बांधियां, अष्ट कर्म दुःखकार भोगववां नक्की पड़े, कदी न आवे पार. कर्म करे ते भोगवे, राग द्वेष प्रयोग चतुर्गतिमां भटकवू, कर्म तणो सहु भोग. उदयागत करणी करे, ज्ञानी अन्तर भिन्न नविन कर्म बांधे नहि, अन्तरमा लयलीन. उपशमादिक धर्ममां, ज्ञानि जन उपयोग; बाह्यभाव राचे नहीं, बाह्यभाव छे रोग. ज्ञानदशा विरतिपणुं, करे कर्मनो नाश; स्याद्वादना ज्ञानथी, होवे शिवमा वास. आत्मज्ञाननी तीव्रता, भाव चरणनो योगः बुद्धिसागर भोगवे, शाश्वत सुखनो भोग.
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॥५॥
॥६॥
॥७॥
शुद्धस्वरूप.
शुद्ध स्वरूपाधारमां, वर्ते जो उपयोग परमानन्द पद अनुभवे, निश्चय निज गुण भोगः ॥ १ ॥ चिदानन्दनी ल्हेरियो, प्रगटे आत्ममझार; निश्चय निज चारित्रमा, सिद्ध बुद्ध निर्धार. ॥२॥ निश्चय गुण उपयोगमा, सर्व सङ्ग परित्यागः शुक्ल ध्यान आलम्बने, शुद्ध रमणता लाग. ॥३॥
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