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सद्गुरु बोध. कृपा करी सद्गुरुए बोध्यो, विवेक वस्तुनो आप्यो; जड वस्तुथी भिन्न बतावी,जिन पदमा निजने थाप्यो. ॥ १ ॥ बाह्य विषयमा दुःख बताव्यु, अन्तरमा मुख समजाव्यु; मोहभावमां भव दर्शाव्यो, स्थिरतामां मनडं आव्यु. ॥२॥ स्याद्वाददर्शननो अनुभव, गुरुकृपाए घट पायो नामरुपी न्यारो भास्यो, ब्रह्म तेजमय परखायो. ॥३॥ चित्तत्तिना शम्या उछाळा, प्रारब्धे बोटु चालु गुणस्थानक शिखरपर चढवा, अभ्यासे मन वाळु. ॥ ४ ॥ अनुक्रमे अभ्यास करीने, परम महोदयपद वरशु; गुणपर्याय स्वरुप रमणता, अन्तरना ध्याने करशुं. ॥५॥ स्पृहा नथी तलभार जगत्नी, कीर्तिआशा परिहरी; अन्तरने बाहिरमां समता, अन्तरमांहि दृष्टि धरी. ॥६॥ असंख्यमदेशो मांहि वसवू, सहजस्वभावे अवधायु सर्व संग परित्यागावस्था, शुद्ध चरण घटमां धार्यु. ॥७॥ जड स्वभावे जडता रहेशे, चेतन चेतनता लेशे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, योगे सार्चे परखाशे. ॥८॥
मन मळवाथी अन्तर वार्ता थायः चित्त मळ्या वण दिलनी वातो, बीजाने नहि कहेवाती; चित्त मळ्या वण प्रेम थया वण,खरी वाततो नहि थाती. ॥ १ ॥ निष्काम प्रेमथी चित्त मळे छे, श्रद्धाना योगे वहेलं; भक्ति योगे चित्त मळेछे, ए वण जाणो नहि रहेठे. ॥२॥
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