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रागे वाह्यो रातदीन, ज्यां त्यां हुं भरमाउं; रागद्वेषना योगथी, कर्म ग्रही दुखपाउं. ॥ १३६ ॥ सिद्ध बुद्ध परमातमा, जेवा सिद्ध मझार; तेवो हुँ छ आतमा, फेर फार नहीं धार. जेवी स्वप्न दशाविषे, मन चंचलता थाय; स्वप्न सृष्टि भासे बहु, जागंतां दूर जाय. .२८॥ तेवी छे बहिरातमा, दशा विचित्रा वेद; अंतर आतम थावतां, तेनो नहीं मन खेद.. ॥१३९ ॥ अंतर आतम प्राणिया, सूवेछे परभाव; जागेछे निजरूपमा, चेतन एह स्वभाव. ॥१४० ॥ चतुर्थ गुणस्थानक लहे, अंतर आतम योग; द्वादश गुण स्थानक लगे, अंतर आत्म प्रयोग. ॥१४१ ॥ अंतरआतम योगथी, समकिती कहेवाय, अंतरवृत्ति तेहनी, भिन्नपणे परखाय.. ॥१४२ ॥ विषयारस विष सम हुवे, पर पुद्गल नही रंग; उदासीनता चित्तमां, झीले समता गंग... ॥१४३ ॥ कनक उपल सरखा हृदि, निंदक बंदक एक; अंतर आतम पाणिनी, वर्ते एहवी टेक. ॥१४॥ ज्ञान चरण आराधना, स्थिर भावे उपयोग औदयिक भावे भोग पण, जलपंकजने योग. ॥१४५ ॥ आतम तत्त्व विचारणा, धर्म ध्यानमा चित्त आर्त रौद्रने त्यागता, अंतर आतम मित्त. ॥ १४६ ॥ आत्मोत्कर्षे चित्त नही, परापकर्षे ध्यान, नहीं वृत्ति जेनी सदा, अंतर आतम जाण. विष्टायह सम लागतो, सघलो आ संसार;
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