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अंतर आतम माणिया, सफलो तस अवतार.. ॥१४८ ॥ भोग रोगसमभावतो, नहीं संसारे चेन; स्वारथियो संसार छे, मात पिताने बहेन ॥१४९ ॥ शरीर काराग्रह वश्यो, आयुष्य बेडी बंध; शुं संसारे राचवू, पुद्गलना ए स्कंध. ॥ १५॥ आतम ध्याने रक्तता, रत्नत्रयितुं ध्यान; एकोहं गुण पूर्णता, साधु वर्ते ज्ञान. रस्नत्रयीनो स्वामी हुं, सुख शाश्वत चिद्रूप; नहीं अन्यनो हुँ कदी. परमानंद स्वरूप... ॥१५२ ॥ शाताशाता वेदनी, कर्मे सुख दुःख थायः चतुर्गति भवकूपमा, केवल दुःख ग्रहाय. क्रोध करु कोना प्रति, क्रोधी नहीं देखाय; राग करुं कोना प्रति, रागी नहीं दर्शाय. ॥ १५४॥ होवे मनमा द्वेषतो, द्वेषी पोते थाय; . द्वेषातीत मन मायाँ, वर्ते तत्व जणाय. ॥१५५ ॥ स्थिर भासे मन माह्यरुं, तो सहु लागे स्थिर; मूर्णतीत मनयोगथी, चेतन स्वयं फकीर. ॥१५६ ॥ चित्ते भव भ्रमणा वधे, चित्ते भवनो नाश; चित्ते चंचलता वधे, चित्ते मुखनी आश. ॥ १५७॥ मन मर्कट मदिरा पीवे, कुदे गमो ठाम; विषयातीत मन मांकडं, स्थिर वर्ते सुख धाम. ॥ १५८ ॥ कष्ट क्रिया करतो फरे, वशवते नहीं चित्त; निष्फळ करणी जाणवी, ज्युंझांखरनुं चित्र... ॥१५९ ॥ सरजल हाले हाल तुं, चंद्रतणुं प्रतिबिंब सरजत स्थिरे स्थीरते, मनवशति क्लीव,
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