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आत्मखुमारी. दुनिया जाणीने झुं जाण्यु, आत्मतत्त्व जो नहि जाण्यु. ग्रही ग्रहीने ग्रहण कर्युः शृं, शुद्ध रूपने नहि आण्यु. सात नयने सप्त भंगीथी, आत्मतत्त्व जे जन जाणे . समाकित दर्शन ते जनः पामे, परम सुखने मन: आगे ॥२॥ चउ निक्षेण चार प्रमाणे, आत्मतत्व जे मनः ध्यावे; तव प्रतीते मनः विश्रामे, अनुभव ज्ञानदशा थावे ॥३॥ निर्मलता, व्यापकता भोगी, परम ब्रह्म पदमां वासी देखे जाणे निजने पोते, शुद्ध रमणसा विश्वासी. ॥४॥ अनंतगुण पर्याय विलासी, स्थित्युत्पत्ति व्ययधारी; समये समये नव परिणामी, शक्ति व्यक्तिनो छे धारी. ॥५॥ ऋद्धि सिद्धि घटमां भासी, शुद्ध रूपमा रंगायो कर्मभावथी भिन्न ग्रहीने, अद्वैतता घटमां पायो. अद्वैत पोताना रूपे छे, अनुभव ज्ञाने परखायुं जाभावे जड़ सत्वपणे.छे, पोतानुं पोते पायुं. ॥७॥ सच्चिदानंद.रसमां झीली, अनुभव्यु पद पोतार्नु पस पश्यंतीमा जे भात्युं, कदी न रहेतुं ते छातुं. ॥८॥ पोते पोताने भेट्यो त्यां, पोताने दउ शाबाशी बुद्धिसागर गुरुकृपाश्री, तस्वमसि पदमां वासी..
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रागद्वेष त्यागः राग द्वेष ज्यां सुधी मनमा, लाख चोराशी त्यां मुभी ज्यां सुधी मिथ्यात्व दशा छे, त्यां सुधी अवळी बुद्धि. ॥१॥ ज्यां सुधी मन ग्रहे ने छंडे, त्यां सुधी नहि सुख शान्ति;
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