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॥ ५ ॥
आत्मज्ञानथी पर परिणतिता, त्यागी मिश्रय ब्रह्मचारी; आत्मज्ञान वण वृषभं विगेरे, बाह्यशीलना आचारी. द्रव्य थकी ब्रह्मचारी होवे, मिध्यात्वी जे अज्ञानी; परपणितिथी भवमां भमता, वात जरा नहिछे छानी. भाव थकी ब्रह्मचारी होवे, अनेकान्त मतनो ज्ञानी; भाव ब्रह्म ते उपादान छे, भाखेछे जिनवर वाणी. भाव ब्रह्मनुं कारण साचं, द्रव्यब्रह्म ते ज्ञानीने; समजण साची शास्त्रे भाखी, सुज पढे नहि मानीनेद्रव्य शीयल ते रंकसमुं छे, भाव शीयल सुरपति सरखं; द्रव्य थकी पण अनन्त महिमा, भाव शयिल जाणी हरखूं. ।। ६ ।। भावकी ब्रह्मचारी थातां, मुक्ति करतलमां साची; भाव ब्रह्ममां अनन्त शक्ति, रहेतो ज्ञानी त्यां राची, भाव ब्रह्मव्रत शून्य हृदय जन, द्रव्यब्रह्मथी मन फूले; भाव ब्रह्मनी प्राप्ति वण ते भवभ्रमणमांहि झूले. द्रव्यभावथी जे ब्रह्मचारी, जगमां तेनी बलिहारी; सापेक्षा सर्वे साचुं, सपजे समकित अवतारी, द्रव्यशीयलथी भावब्रह्मनी, अलखदशामां रंगायो; बुद्धिसागर भाव ब्रह्मनो अनुभव घटमांहि पायो.
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लक्ष्मीसतानी उपाधि.
लक्ष्मी सत्तानी उपाधि, प्रगटावे व्याधि आधि; लक्ष्मी सत्ताथी न्याराने, जल्दी घटमां ल्यो साधी ॥ १ ॥ विष्ठासम दुनियाना माने, वध्यं न कांइक हुं मानुः, लक्ष्मी ललनानी लालची, ब्रह्मतत्व रहियुं छातुं ॥ २ ॥