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पूर्णानन्द. पूर्णानन्द स्वरूपी चेतन, पूर्णानन्दतणो भोक्ता; असंख्यप्रदेशी शक्ति अनन्ति, शुद्ध धर्म निजगुण योक्ता. ॥१॥ पर पुद्गलमां कदी न सुखडां, जडथी शी होवे शान्ति; पूर्णानन्द पणुं अन्तरमां, जाणे नासे सहु भ्रान्ति. ॥२॥ विषयानन्दपणुं नासे तो, चिदानन्द श्रद्धा थाशे; चिदानन्दनी श्रद्धा थातां, वळशे मनडु अभ्यासे. ॥३॥ अभ्यासे मनडुं वाळ्याथी, विषय वासना दूरथशे; स्थिरता थातां चिदानन्दनी, पूर्ण खुमारी चित्त वसे. ॥४॥ देहे वसियो गुणगण रसियो, जाणे ते तेने पावे; चेतनता निज घरमां आवे, पूर्णानन्दपणुं भावे. शाने माटे बाह्य भटकवू, अन्तरमा आनन्द खरे; कर्मापरणो दूरे थातां, चेतन पूर्णानन्द वरे. पूर्णानन्द प्रगटतो जेथी, तेने अवलंबो प्रेमे; सर्व जीवपर मातृभावना, सर्व जीवन गाळो रहेमे. ॥७॥ रागद्वेषना हेतु त्यागी, आत्म तत्वमांहि उतरो; जिनाज्ञाए धर्म विचारी, भव पाथधि भव्य तरो. ॥८॥ पूर्णानन्दपणुं अन्तरमां, वीर जिनेश्वरनी वाणी; बुद्धिसागर पूर्णानन्दी, चेतन अनन्त गुणखाणी.
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राचवानुं स्थान कयुं. हसा हसीयां शुं हुं राचुं, जरा नहि त्यां चेन पडे; घाडी घोडामा शुं राचुं, शोधतां नहि सुख जडे. मारामारीमी शुं राचु, सुख नहि तलभार अरे;
॥१॥
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