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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०९ आत्मपुरुषार्थसाध्य. पुरुषार्थने प्रेमे पकडो, धर्मोघम जग जयकारी; धर्मोधमथी मळशे शान्ति, धर्मोघमनी बलिहारी.. ॥१॥ अक्रिय अरुपी चेतन निश्चय, अक्रियतापदने वर; पूर्णानन्दपणुं पामीने, भवसागरने झट तरवू. ॥२॥ बाह्यभावमा नहि कदीहुँ, बाह्यभाव ममता तजवी; अनन्तज्ञानादिक लक्ष्मीने, अन्तर उपयोगे भजवी. ॥३॥ बाह्यभावथी जे पूरा, पूर्णपणुं ते नहि म्हारु वर्णगंधरस स्पर्श यकीपण, चिदानन्दपद छे न्यारु. ॥४॥ अपूर्वशांति प्रगटे ध्याने, चेन पडे नहि भववनमां; त्यारे रंगाशे निजपदमां, नहि ममता तनधन मनमां. ॥५॥ हर्षशोक समयमा समता, गुणठाणे गुण नीपजशे; योग्यदशाथी गुणठाणानी, उपरतणी स्थितिवधशे. ॥६॥ अपूर्व भावे अपूर्वशांति, निश्चय शुद्ध दशा जागे; उपशमक्षयोपशमना करणे, घनघाती कर्मो भागे. ॥७॥ अन्तररमण सदा करवाथी, चेतन निश्चय परखाशे; ध्यानक्रिया उद्यमने पकडो, क्षायिक लब्धि प्रगटाशे. ॥८॥ सद्गुरुगमथी समजो वाणी, पुरुषार्थ मनमा आणी; बुद्धिसागर गुरु कृपाथी, पुरुषार्थ पकडे प्राणी. हेतुबोधः शुभपरिणामे पुण्यवंध छे, अशुभ परिणामे पापी; शुद्धोपयोगे आत्मधर्म छे, केवलझाने छे व्यापी. ॥१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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