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ફ્યું
आत्मबोध.
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आत्मज्ञानने उच्चभावथी, पर पुद्गलनो नहि कर्त्ता; साक्षित्व तेनुं छे बाकी, आश्रवभाव तणो हर्ता.
॥ १ ॥
देह वचन मननो हुँ साक्षी, जाणुं पण परिणमनुं नही; उपश्रम क्षयोपशम साधनथी, क्षायिक सिद्धि कर्ता सहि. ॥ २ ॥ अन्तरदृष्टि अमृत दृष्टि, प्रगटावे निजगुण सृष्टिः चिदानन्दनी ल्हेरो प्रगटे, प्रगटे चेतन गुणव्यष्टि. बाह्य भावमां सुख न भास्युं, अन्तरमां सुखनी केलि; आपस्वरूप प्रगटे शान्ति, महानन्दवर्षा हेली.
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॥ ६॥
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आत्म भावमां सुरतालागी, अन्तरदृष्टि घट जागी; निजपदमां रंगायो रागी, बाह्य भावधी वैरागी. स्वरुप म्हारु शोधी लीधुं, निजधनतो निजने दीधुं अनुभवामृत प्रेमे पीधुं, मनुष्यभव जीवन सिध्युं. अरूप अजरामर अविनाशी, चिदघन चेतन विश्वासी : गुणपर्याय विलासी सोहं, तत्वमसिध्याने वासी. आवागमन गर्मन पुद्गलनुं, पुद्गलयोगे चेतननुं चेतनशक्ति स्वयं प्रकाशे, त्यारे चाले नहि मननुं. टळे विकल्पोने संकल्पो, आत्मभावमां परिणमत; परपरिणमता ढळे छे त्यारे, निज परिणमता उद्भवतां ॥ ९ ॥ गुणस्थानक निस्सरणि चढतां योगी अमृत रसभोगी; बुद्धिसागर परिपूर्णता, क्षायिकभावे गुणयोगी.
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