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॥१॥
॥२॥
व्यवहार धर्मशिक्षा. कदी न करशो कोइनी साथे कलेशजो, उद्धत्तपणानो कदी न पहेरो वेषनो; चाडी चुगली परनी कदी न कीजीएजो. कदी न कर कोइकनुं अपमानजो, ठठा हांसी त्याग करो गुणखाणजो; हांसीमांथी खांसी प्रगटे जाणशोजो. आत ध्यानने रौद्र ध्याननो त्यागजो, धर्म ध्यानने शुक्ल ध्यानयी रागजो; संवर भावे जीवन सघलं गाळीएजो. परने पीडो नहि पाणी तल भारजो, परनी हाय न लेशो समजी सारजो सारा भावे सारु थाशे आत्मनुजो. दुःख पडे पण हिंमत कदी न हारोजो, समता धारो आतमने झट तारोजो; ज्ञान ध्यानने वैराग्ये भवजल तरोजो. शुभ परिणामे पुण्य कर्म बंधायजो, पापाश्रवथी अशुभ कर्म ग्रहायजो; वस्तु धर्म ते चेतनना उपयोगयीजो. चेतन दृष्टि मोक्ष महेल निस्सरणीजो, चेतन दृष्टि भवजलधिमां तरणिजो; शुद्धोपयोगे मुक्ति वधू छे हाथमां जो. श्रावकने साधु बे भेदे धर्मजो, पाळी व्रतने टाळो सघळां कर्मजो; व्यवहारे वाथी निश्चय साधनाजो.
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