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जल पडछाया जडनी माया, साथै आवे नहि कदा ॥ २ ॥ छाया आतपतमः प्रभाने, शब्दवर्गणा ने काया;
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
स्पर्श वर्ण रस गंध आकृति, पुद्गल जड ए परखाया ॥ ३ ॥ पुद्गलखावुं पुद्गल पीव्रं पुद्गल दोलत कहेवाती; पुद्गलनी भीखारी दुनिया, चतुर्गतिमां भटकाती . पुद्गलनां नाटक छे ज्यां त्यां, पुद्गलनां युद्धो भारी; पुद्गलनी पंचातो जगमां, मोह्यां तेमां नरनारी. पुदगल भटकावे छे भवमां, शुं तेनी करवी यारी; काल अनादि पुद्गल योगे, चेतन पाम्यो दुःख भारी. ॥ ६ ॥ जडनी ममता दूर करीने, चेतन हीरो हाथ धरो; चिदानन्द स्वरूपी चेतन, समजी भवपाथोधि तरो. पोते पोताने ओळखतां, जडवस्तु ममता नासे; आप स्वरूपे आप प्रकाशे, केवलज्ञाने सहु भासे. राग करु हुं कोना उपर, कोना उपर द्वेष करु; जड नहि मारु हुं नहि तेनो, शुद्ध बुद्धनुं ध्यानधरुं ॥ ९ ॥ अनन्त शक्तिमय हुं चेतन, अन्तर दृष्टिथी निरखुं; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, झळहळतो चेतन परखं. ॥ १० ॥
॥ ७ ॥
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॥ ८ ॥
चेतन ध्यान.
॥ १ ॥
शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन, अजरामर निर्मल योगी; परम हंस परमेश्वर ब्रह्मा, आनन्दामृतनो भोगी. गुण पर्यवनो ज्ञाता स्वामी, अलख अरूपी जयकारी: अनन्त शक्ति पूर्ण प्रकाशी, क्षायिक शाश्वत सुखकारी ॥ २ ॥ गुण व्यंजन पर्याय विलासी, अनेकान्तनय निर्धारी;