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द्रव्यतणा व्यंजन. पर्याये, काल अनादि जयकारी. ॥३॥ उत्पत्ति व्यय ध्रुवतारूपी, पुरुषोत्तम चिन्मयराजा; अनन्तज्योति धारक चेतन, आत्मस्वरूपे छ ताजा. ॥ ४ ॥ शुद्ध रमणता धारक तुं छे, विश्वेश्वर गुणनो कर्ता ज्ञायक लोकालोकतणो तुं, पुद्गलभावतणो हर्ताः ॥५॥ पुद्गलथी न्यारो निश्चयथी, त्रण भुवननो छे देवा, ध्याता ध्येय ने ध्यानमयी तुं, निजनी निज करतो सेवा.॥६॥ ज्ञाता ज्ञेय ने ज्ञानमयी तुं, उपादेयने निष्कामी; शुद्ध तव पदकारक कर्ता, चिन्मय पदमां विश्रामी. ॥७॥ स्व परप्रकाशक परथी न्यारो, अनंत ज्ञाता ज्ञेयपणे; व्याप्य अने व्यापकता तुजमां, निजोपयोगे कर्म हणे.॥ ८ ॥ अनाधनन्ति स्थितिमय तुं, वाणी अगोचर तुं प्यारो बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, झळहळ ज्योति करनारो. ॥९॥
सापेक्षबोध.
ममता मांहि दुनिया खुंची, मत पोतानो ताणे छे; मन मान्युं ते साचुं बाकी, झूठं मनमा आणे छे. निरपक्षी दुनियामां विरला, पक्षापक्षी मची रही; सहु पोतानो पक्ष ज ताणे, हठ कदाग्रह गहगही. ॥२॥ देशकुळ जातिनी ममता, ज्ञातिनी ममता मोटी. वस्त्र वेषनी ममता मोटी, बाह्य भाव ममता खोटी... ॥ ३ ॥ ममताथी समता नहि प्रगटे, ममता दुःख वधारे छे; ममताथी साचु नहि मुझे, समजु सत्य विचारे छे. ॥४॥ भवनुं कारण ममता मोटी, ममता भव दुःखनी घाणी
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