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प्रति प्रदेशे क्षायिक सुख अनंतथी, भरियो हुँ भगवंत.पी० ॥ २ ॥ अनंत गुणधीरे धुक्ता, परपुद्गळ नहि संग; कारण कार्यपणे समये गुण परिणमे, निर्मळ प्रभु गुणचन.पी०॥३॥ उपयोगी सहु द्रव्यनो, लोकालोक प्रत्यक्ष बुद्धिसागर अंतर अनुभव, चिदानंद गुण दक्ष. वी० ॥ ४ ॥
अथ १८ महाभद्र जिनस्तवनम.
ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरीरे-द रांग. महाभद्र जिनवर प्रभु उपदिशेरे, द्रव्य विशेष स्वभाव; परिणामिकता कर्तृता तथा रे, ज्ञायकता सुख दाव. महा॥१॥ ग्राहकता भोक्तृता जीवमां रे, रक्षणता जयकार; व्याप्याव्याप्यकता सापेक्षथी रे, अनेकान्त मत पार. म०॥२॥ आधाराधेयता तेम जाणजो रे, जन्य जनकता बोध अगुरु लघुता विभुता हेतुता रे, कारकता घट शोध. म०॥॥ प्रभुता भावुकताऽभावुकता रे, स्वकार्यपणु सुखकार; स प्रदेशपणुं तेम जाणजो रे, गति स्वभाष विचार. म०॥४॥ स्थिति स्वभाव ने अवगाहकपणुं रे, अखंडता निर्धार; अचल असंगपणु अक्रियतारे, सक्रियता जयकार. मं ॥५॥ ध्यामे पारो दिलमां भावने रे, निर्मळ रूप पमाय; बुद्धिसागर वस्तु स्वभावमां रे, शाश्वत धर्म सदाय. म०॥६॥
अथ १९ देवयशा जिनस्तवनम्.
___अभिनंदन जिन दर्शण-ए राग. देवयशा जिन दर्शन मीठडं, नय गम भंग विचार तत्त्व स्वरूपेरे वस्तु विचारता, दर्शन जग जयकार.दे ॥॥
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