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व्यापक ज्ञाने व्याप्य स्वरूपी, अनन्त क्षायिक शक्ति धणी;
परम महोदय परम म हुँ, आनंदघन चेतन दिनमणि ॥ ४ ॥ अज स्वयंभु परमेश्वर हुं, जगन्नाथ जग जयकारी; बिभु अकलने अलख रूप हुं, अनन्त रत्नत्राये धारी. नाम रूपथी न्यारो हुं हुं जड सृष्टिथी भिन्न खरो; चेतन सृष्टिनो हुं माळी, अनन्त, समता जलनो झरो. ॥ ६ ॥ विश्वेश्वर हुं नित्यनियंता, विमलाचल पदमां वासी; चाद्य भावनो नहि हुं कर्त्ता, शत्रुंजय गंगा काशी. स्थिति व्ययपद धारी, समय समयमां हुं भोगी; निरागीने निद्वेषी हुं, अधिकारी ने निर्योगी. पोतानामां पोते हुं हुं, अरिहंत सत्ता धारी; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, पामी परखो सुखकारी.
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॥ ९ ॥
देह तंबुरो.
देहतंयुरो सात धातुनो, रचना तेनी बेश बनी;
इडा पिंगला सुषुम्णा, नाडीनी शोभा अजब घणी ॥ १ ॥ त्रण तारनी गेवी रचना, त्रण आंगुलीथी वागे; अष्टस्थानथी शब्द उठावे, मन मोहन मीढुं लागे. अनेक रागने अनेक रागणी, चेतन तेनो गानारो; रजस्तमोगुण सत्वभावना, जे आवे ते गानारो. पिंड अने ब्रह्मांड भावने, देहतंबुराधी गांव daiथी बहिर सुणावे, मध्यमा प्रेरक थावे. परापश्यंतीथी गानारो, अलख अलख उच्चरनारो; श्रुतमयोगे परापश्यंती, भाषामां ते गानारो,
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