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५४ उच्च भावथी क्षणमा सुधरी, चेतन धार्यु करशे रे. वर्त० ॥८॥ अडग वृत्तिने उच्चाशयथी, क्षण क्षण शुद्ध थवाशे रे। चेतन श्रद्धा साची थाशे, कर्म कलंक कटाशे रे. वर्त० ॥९॥ शांति स्थळ चेतनने जाणी, समता सत्य पमाशे रे; जीवनकळा बहु उच्च थवाथी, चेतन रुद्धि कमाशे रे. वर्त०॥९१।। वर्तमान परिणति जो निर्मल, निर्मल चेतन कहीए रे; मलीनता मायानी त्यागी, सरल भावथी रहीए रे. वर्त० ।।९२|| मनने सत्तामा राखीने, अशुभ विचारो हरीए रे. हृदय स्थानमां ध्यान लगावी, अन्तर्मुख संचरीएरे वर्त० ॥९३॥ जडतो जडभावे परिणमशे, चेतन चेतन भावे रे .. भेद ज्ञानथी निजमां वर्ती, भव्यो शिव सुख पावे रे. वर्त० ॥९॥ उत्पत्ति स्थिति ध्रुवताने, वर्तमानमां वरवी रे; षड्गुण हानि वृद्धि धारी, अंतर्मुखता करवी रे. वर्त० ॥९॥ पररमणता ज्ञाने त्यागी, थइए निजगुण रागीरे; निजगुण रागी जन सौभागी, वर्तमान वडभागीरे. वर्त० ॥९॥
अंतर्मुखता राखी ध्याने, परमब्रह्मने ध्यावोरे; निज शक्ति निजमा परिणमता,सायिक लब्धि पावोरे.वर्त०॥९७॥ संयमथी शक्ति बहु प्रगटे, जो जो चित्त विचारीरे; जीव अनंता पाम्या मुक्ति, स्वरुप साचुं धारीरे. वर्त० ॥९८|| विपयकषाये शक्ति घटती, अनुभवथी ए भाख्युं. रे; पर पुद्गल परिणामी चेतन, पर स्वभावे दाख्युं रे. वर्त० ॥९.९।। ज्ञान ध्यानथी मोहावरणो, क्षणमां भव्य निवारोरे; धैर्य धरीने प्रवृत्तथाओ, मळ्यो समय केम हारोरे. वर्त०॥१००॥ जेवू धारो तेवू करशो, सुधर निज हाथेरे; परम प्रभु सत्ताने ध्यावो, कह्यु त्रिभुवन नाथेरे. वर्त०॥१०१॥
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