________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
द्रव्यभाव बे भेदथी, कारण कार्य स्वरूप बुद्धिसागर सिद्धमां, वर्ते रूपारूप.
॥९॥
माध्यस्थभाव. माध्यस्थ अवलंबीने, करीए तत्त्व विचार; सत्यासत्य विचारीए, लहीए भवजलपार. पक्षपातने परिहरी, दृष्टिराग करी दूर ज्ञाने सत्य विचारीए, होवें सुख भरपूर. अनेकान्त सहु वस्तु छे, अनेकान्त परमार्थ गुरुगमथी अवधारीए, लहीए सद्गुण सार्थ. दर्शन ज्ञान चरण थकी, होवे शाश्वत शर्म; अशुद्ध परिणति झट टळे, रहे न किंचित् कर्म. परंपरागम सेवीए, धर्म हेतु व्यवहार; निश्चय आत्मस्वरूपमा, रहेतां शर्म अपार. असंख्य योग छे मुक्तिना, करो न मिथ्यावाद; सापेक्षाए हेतुओ, जाणे प्रगटे स्वाद. उपादानथी साधीए, उपादेय निज धर्म; साध्य दृष्टि वर्तन थकी, नासे सघळां कर्म. आत्मसाध्य करणी भली, रंगावू त्यां सत्य; बुद्धिसागर भावथी, साध्यदशा निज कृत्य,
॥४॥
॥५॥
॥७॥
॥
८
॥
परमब्रह्मस्वरूप. मन चञ्चळता वारीने, थइए अन्तर स्थिर; स्थिरोपयोगे ध्यानमां, थइए जग महावीर.
For Private And Personal Use Only