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आत्म लक्ष्य एक साध्य छ, साधन सिद्धि कराय; गुरुगम साधन साधतां, चिद्घन चेतनराय. ॥२॥ आत्मशक्तिने ध्यावतां, अनन्त प्रगटे सुख आत्मतत्वना ध्यानथी, नासे अनन्त दुःख. ॥३॥ अनन्त सुख गुण स्वादतां, अजर अमर पद थाय; परम प्रभुता सम्पजे, जन्ममरण दुर जाय. ॥४॥ बाह्यभावथी दूर रही, ध्यावो अन्तर्देव; त्रिकरणयोगे आत्मनी. प्रेमे कीजे सेव.
॥५॥ ध्याता ध्येय स्वरूपमां, ध्याने छे लयलीन; अन्तरमा लयलीनतो, अनन्त सुखथी पीन. ॥६॥ शरण शरणने ध्येय छे, चेतन प्रभु सदाय; षदकारक निजरूपमां, समये समये समाय.
॥७॥ धूम धाम तजी बाह्यनी, सेवो शुद्ध स्वभाव; स्थिरतायोगे संपजे, अनन्त ऋद्धि सुदाव. ॥८॥ जाणो ध्यावो शुद्ध घन, पुरुषोत्तम भगवान् ; बुद्धिसागर सेवता, परम प्रभु गुणवान्. ॥९॥
परमब्रह्म जागृति स्वाध्याय. जाग जाग अरे जीवडा, झट निद्रा त्यागी; बाह्यदशामां शुं पोढियो, जोजे घटमां जागी. जाग० ॥१॥ बाह्य भावमा उंघतां, मोह वैरि टूटे अज्ञान खाडीमां पाडीने, निद्रा राक्षसी कूटे. जाग० ॥२॥ निद्रामा मुख नहि कदी, उठ आलस त्यागी; अनुभव भानु देखी ले, शुद्ध गुणना रागी. जाग० ॥३॥
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