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अन्तर सृष्टि लीला प्रगटे, लोह संग तेजंतुरी. स्पृहा नहि तलभार जगत्नी, नामरूपथी हुं न्यारो; कोइक निन्दो कोइक वंदो, समभावे घट उजियारो ॥ ४ ॥ दुनियानी खटपट लटपटमां सुखनुं चिन्ह न देखातं : पोताने पोते देख्यो त्यां, कांइ न जातुं नहि थातुं. जुओ विचारी जुओ विचारी, देह देवळमां संन्यासी; सन्यासीनी अकळकळाने, देखतां नहि उदासी. ध्याने ध्यावुं अन्तर गावं, सुरताथी दीलमां लां; परम प्रभुनुं दर्शन दीडं, बाह्यभावमां नहि जावं. अलख फकीरी भोगववामां सात धाततो रंगाणी; बुद्धिसागर अलखफकीरी, आनंदकारी मस्तानी.
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आत्मज्ञानप्रकाश.
आपस्वरुपे आप प्रकाश्यो, नातुं सहु हुं ने मारु; वदवं व्यवहारे हुं मारु, शुद्धरूप निश्चय न्यारु. औदयिक योगे फर हरवु, अन्तरथी न्यारा रहें; भिन्न भिन्न जड चेतनवृत्ति, निजधन तो निजने देवुं ।। २ ।। अन्तरदृष्टिथी सह जोबुं, परिणमुं नहि परभावे; ध्यान धारणामां हूं पोते, पोते पोताने ध्यावे. चेन पडे शुं दुनिया रंगे, आतममांहि रंगातां; चेन पडे नहि बाह्यमदेशे, प्रदेश अन्तरमां जातां रूप रागमां मोज मझा शुं, अन्तरथी निश्रय धार्यो; शरीरमांहि वास कर्यो पण, निश्चयथी हुं हुं न्यारो ॥ ५ ॥
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