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वस्तुधर्ममां अनंत सुख छे, वस्तुधर्मनी बलिहारी; वस्तुधर्मनी प्राप्ति करवी, कर्माष्टक वेगे वारी. वस्तुधर्म स्याद्वाददृष्टिथी, जाणे ते शिवसुख पामे; अनन्त शक्ति चेतननी छे, जाणे ते पुद्गलं वामे. अनन्त शक्ति धाम जीव छे, परमभाव गाहक पोते; पोतानामां गुण पर्यवता, बीजे तुं शीदने गोते. ज्ञानचक्षुथी जाणो देखो, चिदानन्द चेतन देवा; उत्पत्ति स्थिति व्यय भोगी, शुद्ध रमणताथी सेवा. अनेकान्त दृष्टियी दर्शन, परममभुनां जे करशे; बुद्धिसागर धर्मध्यानथी, चेतन भवजलधि तरशे.
भेदज्ञान.
जड चेतननी भिन्नता, प्रगटे समकित सार; परपरिणमता तब टळे, सत्यज्ञान निर्धार. अन्तर्मुखोपयोगता, चेतनधर्म कथाय; परमप्रभुता संपजे, भेदभाव दूर जाय. बाह्यदशा व्यवहारथी, वर्ते चेतन भिन्नः अनुभव अमृतपानमां, रहे सदा लयलीन. अनुभव अमृत स्वादतां, पडे न परमां चेन; अनुभव हेरि लागतां, मगटे मनमां घेन. अनन्तगुण पर्यायनो, वर्ते घट उपयोग; आत्मस्वभावे जागीने, भोगवतो जीव भोग. अन्तर्मुखोपयोगधी, सिद्धया जीव अनन्त; सिद्धदशा ते मार्गथी, भाखे छे भगवन्त.
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