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द्रव्य कर्म बांधे नहि त्यारे, पोताने पोते जोवे... ॥६॥ गुण स्थानक अभ्यास करतां, चरण मोहनी उपशांतिः क्षयोपशम पण मोहतणो छे,क्षायिक भावे सुखशान्ति. ॥७॥ मूल थकी सहु मोह विनाशे, क्षपकश्रेणिए जीव चढी; अनन्त दर्शन ज्ञान प्रकाशे, घाती कर्मनी साथ लड़ी. ॥८॥ केवलज्ञान प्रगटतुं पहेलं, समयांतर केवल दर्शन; श्री जिनभद्रगणिनी वाणी, क्रमवादी गणितुं स्पर्शन. ॥ ९ ॥ अक्रमवादी एक समयमां, वे उपयोगोने भाखे, युगपत् आवरण नाश थयाथी,अनुभवी रस तो चाखे.॥ १०॥ ज्ञानथकी दर्शन नहि जुएं, वृद्ध कहे क्षायिक भावे त्रण पक्ष सिद्धांते भाख्या, ज्ञानी समजी सुख पावे. ॥११॥ चार अघातिकर्म हणीने, सिद्ध बुद्ध चेतन थावे; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, अनन्त शाश्वत सुख पावे. ॥१२॥
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उत्पादव्ययध्रुवता बोध. अनंतगुण पर्याय अस्तिता, चेतन मांहि नित्य रही; आत्मस्वभावे शुद्ध रमणता, परमाहि केम जाय कही. ॥ १ ॥ अस्तिता निज गुणनी परमां, नास्तिपणे जाणो भव्यो; आविर्भावे अस्तिपणाना, सद्गुण खीलववा भव्यो. ॥२॥ त्रणकालमा अस्तिभाव ते, सहुमां सत्ताए सरखो अनुभव ज्ञाने सर्व जणाशे, साधु पोतानु परखो. ॥३॥ अस्तिभावथी षड् द्रव्यो सत्, उपादेय चेतन जाणो आस्तिपणे निजगुणमा रमतां, वस्तुधर्म मनमा आणो. ॥४॥
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