SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ उच्च भावधी अवधूत योगी, शुद्ध भाव मस्तानीरे वर्त० ॥ १३९ ॥ उच्च भावयी जन छे राणा, उच्च भावधी शाणारे; अनुभवामृत पीतुं प्रेमे, योगी जन मस्तानारे. वर्त० ।। १४० ।। उच्च भावथी अजरामर पद, सुख अनंतु बरबुंरे; सादि अनंति स्थिति पामी, कदी न मरतुं खरखुंरे. वर्त० || १४१ || वर्तमानमां धर्माभ्यासे, जीवन सर्वे गाळोरे; केवल ज्ञान अने दर्शनथी, मुक्तिपुरीमां म्हालोरे. वर्त० ॥ १४२ ॥ उच्च भावना भेद घणा छे, अनुक्रमे सहु लही एरे; अनुभव मंगल माला पामी, परम महोदय वही रे. वर्त० | १४३ || क्षायिक शुद्ध स्वरुप मजानुं, पोतानुं झट वरीएरे; उच्च भावना निशदिन ध्यावो, केम परने करगरीएरे. वर्त० ॥ २४४ ॥ वर्तमानमां शुभ कृत्यो थाशो, उच्च भावने माटेरे; उच्च भावनी युक्ति मोटी, युक्ति सदगुरु हाटेरे उच्च भावनी वृद्धि थाशे, गुरु प्रतापे घटमां रे; मन मर्कट भटके नहि दोडी, घटमां केवळी पटमां रे. वर्त० ॥ १४६ ॥ मनथी भवने मनथी मुक्ति, नीच उच्च आशयधीरे; खराभावथी वर्तो ज्यां त्यां, भव्यो उच्च हृदयधीरे वर्त० ।। १४७।। कित्ताथी जे कक्को घुटे, तेपण बी. ए. थावेरे; उच्च भाव तेम निशदिन वधशे, ज्ञानी मनमां आवेरे वर्त० ॥ १४८ ॥ बार भावनाना अभ्यासे, संयम शिखरे चढीएरे; अशुभ विचारो जे जे आवे, तेनी साथे लढीएरे. वर्त० ॥ १४९ ॥ बाभावी कदी न उंचा, अन्तरमांहि समजोरे; अन्तरंग परिणामे उंचा, निशदिन तेमां रमजोरे बर्त० ॥ १५० ॥ आत्मभावमां क्षण क्षण रहेवुं, कोइने कांइ न कहेवं रे; सद्गुरु चरण कमलमा रहेनुं, गुरु वचनामृत पीबुंरे. वर्त० ।। १५१ ।। For Private And Personal Use Only वर्त० ॥ १४५॥ ।।
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy