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॥ १२ ॥
वात मनां धरीछेरे अभय पद करवाने. गावे पोते पोतानेरे व्यवहारे भेद पडे, षट्कारक समजेरे समजण सारी जडे; शुद्धध्यानदशामारे मुँलातुं जगत भूईं, शुद्धध्यान कर्याथीरे जडयुं घट तत्त्व रुडु. स्वयंभूसमुद्रनेरे हस्त थकी तर, शुद्धचेतन वर्णनरे रसनाथी कर निर्विकल्पदशामारे अनुभव धार्यों छे, धरी श्रद्धा हृदयमारे मोहारि निवार्योछे. छंडी चेतनलक्ष्मीरे हवे नहि बाह्य भमुं, हीरो हस्त चडयोछेरे हवे नहि बाह्य भमुं; प्रभु तुहि तुहि ध्याबुरे हुं तुं नो भेद नहि. पोते पोताने कहेवुरे विचारनो भेद ग्रही. पोते पोताने देखुरे पोते पोताने मळ्यो, नहि पुद्गल ममतारे अज्ञानभाव टळ्यो; नाम रूपथी न्यारोरे चिद्घन चित्त वर्यो, बुद्धिसागर ध्यानरे, अखंडानंद धर्यो.
॥ १४ ॥
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